श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता : दृष्टिहीन (सूर) लोगों की अंधकारमय दुनिया कैसी होती है? इसका सठीक बयान कोई नेत्रवान व्यक्ति नहीं कर सकता है। चतुर्दिक अंधकार का एक गंभीर अनंत गह्वर! हम सब तो अचानक बिजली के गुम हो जाने मात्र से ही घड़ी भर के अंधकार में ही या फिर आँखों में कुछ पड़ जाने के बाद या फिर कुछ समय के लिए अतिरिक्त शक्ति वाला चश्मा नहीं मिल पाने में ही बड़ी बेचैनी महसूस करने लगते हैं। प्रतिपल का परिचित हमारा घर-आँगन ही अंधकार का एक भयानक गह्वर प्रतीत होने लगता है। हर कदम और हर स्पर्श ही भयजनक हो जाता है। कुछ समय के लिए हमारी बुद्धि और प्रतिभाएँ भी हमारा साथ छोड़ देती हैं। तब हम आप सरलता से ही दृष्टिहीनों की मनोदशा का आकलन कर सकते हैं।
दृष्टिहीनों की अंधकारमय दुनिया में आशा की ज्योति जलाने वाले ‘लुइस ब्रेल’ के जन्मदिन 4 जनवरी को ही प्रतिवर्ष विश्व भर में ‘विश्व ब्रेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। ‘आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है।’ लुइस ब्रेल स्वयं एक ऐसे दृष्टिहीन व्यक्तित्व रहे हैं, जिन्होंने ने एक विशेष सांकेतिक लिपि ‘ब्रेल लिपि’ का 1821 में आविष्कार किया, जो आज विश्व भर के दृष्टिहीनों के लिए वरदान साबित हुआ, जिसको स्पर्श कर विश्व भर के दृष्टिहीनों को पढ़ने और लिखने के रूप व्यवहार में लाया जाता है। इसमें अलग-अलग अक्षरों, संख्याओं को उभरे बिन्दुओं के माध्यम से दर्शाया गया है।
उन्होंने अनगिनत दृष्टिहीनों के अंधकारमय जीवन में नई उम्मीद की रौशनी को प्रज्ज्वलित करने का सार्थक प्रयत्न किया है। उनके ही सार्थक प्रयत्न से आज दृष्टिहीनता कोई विशेष अभिशाप मात्र नहीं रह गयी है। आज दृष्टिहीन व्यक्ति भी सामान्य व्यक्ति के समान ही अपने जीवन की तरक्की के विभिन्न आयामों को हासिल करते हुए समाज और देश की प्रगति में सहायक बन रहे हैं।
‘ब्रेल लिपि’ के जन्मदाता लुइस ब्रेल का जन्म 4 जनवरी 1809 में फ्रांस के छोटे से ग्राम ‘कुप्रे’ में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोडों के लिए काठी और जीन बनाने का कार्य किया करते थें। परन्तु पारिवारिक आवश्यकताओं के अनुरूप अपर्याप्त आर्थिक साधन कारण उन्हें कुछ अतिरिक्त कार्य भी करना पड़ता था। इसीलिए जब बालक लुइस मात्र तीन वर्ष का ही हुआ तो पिता साइमन उसे भी अपने साथ घोड़ों के लिए काठी और जीन बनाने के कार्य में लगा लिया। बालोचित चंचलतावश वह अपने पिता द्वारा उपयोग की जाती रही वस्तुएँ जैसे- लकड़ी, रस्सी, लोहे के टुकडे, घोड़े की नाल, चाकू और काम आने वाले लोहे के औजारों को ही खिलौने स्वरूप खेलने की कोशिश करता था।
एक दिन खेल के कर्म में एक चाकू अचानक उछल कर इस नन्हें बालक लुइस की आँख में जा लगी और उसकी आँख से खून की पतली धारा बह निकली। घर में उसके माता-पिता अर्थगत अभाव के कारण साधारण जड़ी लगाकर उसकी आँख पर पट्टी कर दिए और सोचा कि छोटा बालक है, अतः शीघ्र ही चोट स्वतः ठीक हो जायेगी। पर कुछ दिन बाद बालक लुइस को उसकी दूसरी आँख से भी कम दिखलायी देने लगी। पर साधन विहीन पिता साइमन बालक की आँख का समुचित इलाज नहीं करावा पाया और धीरे धीरे वह नन्हा बालक लुइस आठ वर्ष का पूरा होते-होते पूरी तरह से दृष्टिहीन हो गया।
अब तक अबोध अवस्था में देखी गई रंग-बिरंगी दुनिया उसके लिए एक दिवा स्वप्न मात्र बन कर रह गई और चतुर्दिक गम्भीर अंधकार ही उसे अपने आगोस में लिये रही। लुइस ब्रेल के पिता साइमन ने पेरिस के मशहूर पादरी बैलेन्टाइन की मदद से 1819 में अपने दस वर्षीय दृष्टिहीन बालक लुइस ब्रेल को ‘रायल इन्स्टीट्यूट फार ब्लाइन्डस्’ में भर्ती किया गया। उस स्कूल में “वेलन्टीन होउ” द्वारा बनाई गई लिपि से पढ़ाई होती थी, जो पर्याप्त न थी। इसी दौरान विद्यालय में बालक लुइस ब्रेले को पता चला कि नेपोलियन की शाही सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्लस बार्बर ने सेना के लिए कुछ ऐसी कूटलिपि का विकास किया है, जिसकी सहायता से उनके सैनिक घने अन्धकार में टटोलकर प्रेषित संदेशों के पढ़ सकते थे।
समयानुसार लुइस ब्रेल के मन में अपने चतुर्दिक व्याप्त अंधकारमय संसार से लड़ने की प्रबल इच्छाशक्ति जागृत हुई। बालक लुइस ब्रेल उस विशेष कुटलिपि के द्वारा अपने जैसे ही दृष्टिहीनों के लिए पढ़ने की कोई विशेष संभावना की तलाश करना चाहता था। पादरी बैलेन्टाइन के सहयोग से वह कैप्टेन चार्लस बार्बर से मुलाकात की। कैप्टेन चार्लस बार्बर उस अंधे बालक लुइस ब्रेल का आत्मविश्वास को देखकर तो दंग ही रह गये।
सैनिकों के उस विशेष लिपि को कागज पर अक्षरों को उभारकर बनाई जाती थी और इसमें 12 बिंदुओं को 6-6 की दो पंक्तियों में रखा जाता था, पर इसमें विराम चिह्न, संख्या, गणितीय चिह्न आदि नहीं होते थे। लुइस ब्रेल ने इसी लिपि पर आधारित 12 के स्थान पर 6 बिंदुओं के उपयोग से 64 अक्षर और चिह्न वाली लिपि बनायी। उसमें न केवल विराम चिह्न, बल्कि गणितीय चिह्न और संगीत के चिह्न भी लिखे जा सकते थे। यही लिपि आज सर्वमान्य है। लुइस ब्रेल ने जब यह लिपि बनाई, तब वे मात्र 15 वर्ष के बालक थे। लुइस ब्रेल की यह अद्भुत लिपि सन् 1824 में पूर्ण हुई। आज दुनिया के लगभग सभी देशों द्वारा यह लिपि मान्य है और उपयोग में लाई जा रही है।
कालान्तर में स्वयं लुइस ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में आवश्यकतानुसार अनेक संशोधन किये और अंततः 1829 में छः बिन्दुओं पर आधारित दृष्टिहीनों के लिए एक सार्थक समुचित लिपि बनाने में सफल हुये। पर उनके द्वारा आविष्कृत इस लिपि को तत्कालीन शिक्षाशास्त्रियों ने मान्यता नहीं दी, बल्कि उसका मजाक उड़ाया। अनेक वर्षों तक कैप्टेन चार्लस बार्बर के नाम के कारण इस लिपि को सेना की ही कूटलिपि समझा गया। परन्तु लुइस ब्रेल ने हार नहीं मानी और पादरी बैलेन्टाइन के सहयोग से उन्होंने सरकार से प्रार्थना की, कि इसे दृष्ठिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जाय।
पर यह लुइस ब्रेल का दुर्भाग्य रहा कि उनके प्रयासों को उनके जीवन काल में सफलता नहीं मिल सकी। अपने प्रयासों को सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए लगातार संर्घषर करते हुए लुइस ब्रेल 43 वर्ष की अवस्था में अंततः 6 जनवरी, 1852 में अपनी जीवन की लड़ाई से हार गये। परन्तु उनके द्वारा आविष्कृत लिपि को सर्वमान्यता प्राप्ति का हौसला उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं मरा।
लुइस ब्रेल की मृत्यु बाद भी दृष्ठिहीनों के मध्य उनकी आविष्कृत लिपि लगातार मान्यता पाती जा रही थी। अक्सर ऐसा देखा भी गया है कि किसी महान आत्मा के कार्य को समय रहते ईमानदारी से मूल्यांकित नहीं किया जाता तथा उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके द्वारा किये गये कार्यों का वास्तविक मूल्यांकन हो पाता है। लुइस ब्रेल के आविष्कृत लिपि के साथ भी वही हुआ। शिक्षाशास्त्रियों द्वारा अब उनके किये गये कार्य की गम्भीरता को समझा जाने लगा और आविष्कृत लिपि के प्रति अपने पूर्वाग्रहपूर्ण विचारों को त्याग कर इसे मान्यता प्रदान करने की दिशा में विचार किया जाने लगा।
अंततः लुइस ब्रेल की मृत्यु के पूरे एक सौ वर्षों के बाद फ्रांस में 20 जून 1952 के दिन को उनके सम्मान का दिवस निर्धारित किया गया। इस दिन उनके गृह ग्राम ‘कुप्रे’ में सौ वर्ष पूर्व दफनाये गये उनके पार्थिव शरीर के अवशेष को पूरे राजकीय सम्मान के साथ बाहर निकालकर स्थानीय प्रशासन तथा सेना के आला अधिकारियों ने अपने पूर्व अधिकारियों के द्वारा की गयी गलती की माफी माँगे। सेना के द्वारा बजायी गयी शोक धुन के बीच लुइस ब्रेले के अवशेष को राष्ट्रीय ध्वज में पुनः लपेटा गया।
अपनी ऐतिहासिक भूल के लिये उत्खनित नश्वर शरीर के अंश के सामने समूचे राष्ट् ने उनसे माफी माँगी। फिर उनके लिए बनाये गये विशेष स्थान में उन्हें राष्ट्रीय सम्मान के साथ पुनः दफनाया गया। उस दिन का सम्पूर्ण वातावरण ही ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि लुइस ब्रेल आस-पास के वृक्षों के पतों के रूप में पुनः जीवित होकर अपनी प्रफुल्लता को व्यक्त कर रहे हों। आज उनकी जीत हुई है, पर अपनी मृत्यु के एक सौ वर्षों के उपरांत।
अब तो ‘ब्रेल लिपि’ को टाइपराइटर की ही तरह दिखने वाली एक मशीन – ‘ब्रेलराइटर’ के रूप में विकसित कर लिया गया है, जो पेंसिल जैसी किसी नुकीली चीज़ (स्टायलस) और ‘ब्रेल स्लेट’ (पट्ट) का इस्तेमाल करके, काग़ज़ पर, बिन्दु उकेर कर लिखा जाता है। समयानुसार ‘ब्रेल लिपि’ में कुछ आवश्यक बदलाव भी होते रहे हैं। अब तो यह तकनीक कंप्यूटर तक पहुँच गई है। ऐसे कंप्यूटर्स को गोल व उभरे बिंदूओं के व्यवस्थित संयोग से निर्माण किया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के शैक्षिक, वैज्ञानिक और साँस्कृतिक संगठन – ‘यूनेस्को’ ने, वर्ष 1949 में ही, ब्रेल लिपि में एकरूपता लाने के इरादे से इसकी समस्याओं पर ध्यान देने वाला एक सर्वेक्षण समिति को गठित कर आगे बढ़ाने की पहल की थी।
4 जनवरी, सन 2009 को जब लुइस ब्रेल के जन्म को पूरे दो सौ वर्षों का समय पूरा हुआ, तो ‘लुइस ब्रेल जन्मद्विशती’ के अवसर पर हमारा देश भारत ने भी उन्हें पुनः पुर्नजीवित करने का प्रयास किया और इस विशेष अवसर पर लुइस ब्रेल के सम्मान में डाक टिकट जारी किया। हमारे देश में भी ‘ब्रेल लिपि’ को आदर-सम्मान प्रदान कर उसे सादर अपनाया और उसमें लिपिगत कुछ विशेष परिवर्तन कर एक समान व्यवस्था की, जिसे ‘भारती ब्रेल लिपि’ कहा जाता है, जिसे सन् 1951 में स्वीकृत कर ली गयी, जिसे श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश ने भी सादर स्वीकार कर लिया है।