ख़ुदकुशी पर गंभीर चिंतन

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक
क्या आप भी कहोगे कायर लोग ख़ुदकुशी करते हैं क्या आप हौंसला रखते हैं जान देना मेरी जान आसान नहीं है। दो घटनाओं की बात करते हैं दोनों वास्तविक हैं। किसी देश में इक मनोचिकिस्तक ने ये इश्तिहार छपवा रखा था कि जिस किसी को भी ख़ुदकुशी करनी हो इक बार पहले आकर मुझसे अवश्य मिले।
और उसके पास रोज़ कितने लोग निराश होकर आते और वो उनमें अपनी बातों से आशा का संचार कर उनको ख़ुदकुशी करने से रोकने को सफल हो जाता था। मगर इक दिन कोई आया जिसकी दर्द भरी बात सुनकर खुद मनोचिक्त्सक ही हार मान उसको कह बैठा क्षमा करें मुझे नहीं समझ आ रहा कैसे और क्यों आपको जीने को समझाऊं। अर्थात उसको ख़ुदकुशी से रोकने का कोई उपाय नहीं था उसके पास।
जब उनसे मिलकर बाहर निकला तो उस डॉक्टर की स्वागत कक्ष की सहायिका ने पूछा आप क्या सोच रहे हैं। उस ने जवाब दिया अब तो मुझे ख़ुदकुशी करनी ही है जब उन्होंने ही मुझे जीने का कोई मकसद नहीं बतलाया जो सभी को मरने से रोकते हैं। उस महिला ने कहा क्या आप ख़ुदकुशी करने जाने से पहले मेरे साथ एक कप कॉफी पीने चल सकते हैं। और उसके बाद उस डॉक्टर की सहयोगी ने उस से दोस्ती कर ली और कहा कितनी अजीब बात है मुझे ज़िंदगी में पहली बार कोई अच्छा सच्चा दोस्त मिला है मगर आज ही उसको ख़ुदकुशी भी करनी है।
और शायद जीवन भर मुझे ऐसा दोस्त मिलेगा भी नहीं। तब उसने कहा कि मुझे जब आप जैसी दोस्त मिल गई है तो आपके लिए मुझे ज़िंदा रहना ही होगा ख़ुदकुशी करने का कारण ही यही था कोई मुझे समझने वाला दोस्त नहीं मिला था। आपकी जानकारी के लिए उस डॉक्टर ने अपने उस काम को उसी महिला के नाम समर्पित कर दिया था। संजीवनी नाम से भारत में उसकी शाखा है दिल्ली में जिस का सहयोगी मैं भी रहा हूं कुछ समय तक दिल्ली में रहते हुए।
  अब जो सच्ची घटना आपको बताने जा रहा हूं सोचते ही बदन में कंपकपी होने लगती है। बहुत साल पहले अख़बार में खबर पढ़ी इक पति-पत्नी ने साथ साथ ख़ुदकुशी कर ली। चौंकाने की बात थी दोनों डॉक्टर थे और ख़ुदकुशी करने का कारण आर्थिक दुर्दशा इतनी खराब थी कि उनके घर में अनाज का इक दाना नहीं था कोई सामान बचा नहीं था बेचने को। अस्पताल और रहने को घर दोनों किराये के थे और जीवन यापन को आमदनी नहीं थी।
जाने क्या सोचकर मैंने उस शहर में अपने इक साथी डॉक्टर को फोन किया और पूछा था क्या आपको पता है ऐसा क्यों हुआ। उन्होंने बताया कि डॉक्टर इक अमीर बाप का इकलौता बेटा था मगर उसने पिता की मर्ज़ी के खिलाफ डॉक्टर लड़की से शादी कर ली जिसे प्यार करता था। और पिता ने उसको कुछ भी देने से साफ इनकार कर दिया था।
ख़ुदकुशी से पहले अपने घर गया था बताया था उसे अपनी नहीं अपनी पत्नी की जान की खातिर आपसे मदद चाहिए अपनी जगह छोटी सी बनाने को ताकि किराये से निजात मिल जाये तो थोड़ी आमदनी में भी दोनों ज़िंदा रह लेंगें वर्ना ख़ुदकुशी की नौबत आ गई है। मगर पिता से निराश होकर उसने अपनी पत्नी के साथ जीने मरने की कसम निभाई थी। जी नहीं सकते तो मर तो सकते हैं। मुझे उस घटना पर लिखी अपनी ग़ज़ल बहुत पसंद है शायद आपको भी अच्छी लगे।

ग़ज़ल – डॉ लोक सेतिया “तनहा”

ख़ुदकुशी आज कर गया कोई
ज़िंदगी तुझ से डर गया कोई।
तेज़ झोंकों में रेत के घर सा
ग़म का मारा बिखर गया कोई।

न मिला कोई दर तो मज़बूरन
मौत के द्वार पर गया कोई।

खूब उजाड़ा ज़माने भर ने मगर
फिर से खुद ही संवर गया कोई।
ये ज़माना बड़ा ही ज़ालिम है
उसपे इल्ज़ाम धर गया कोई।
और गहराई शाम ए तन्हाई
मुझको तनहा यूँ कर गया कोई।
है कोई अपनी कब्र खुद ही “लोक”
जीते जी कब से मर गया कोई।

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