‘बरजत रहलन बाप-महतारी। नाच में तू मत रह भिखारी।।
चुपे भाग के नाच में जाई। बात बना के दाम कमाईं।।‘
श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता : ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ के नाम से विख्यात ‘भिखारी ठाकुर’ बिहार में नृत्य और नाट्य-विधा के सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध सूत्रधार कलाकार रहें हैं। विद्व जगत में यह केवल कल्पना की ही बात हो सकती है कि एक अनपढ़, अनगढ़ और गंवार, बिलकुल देहाती नाट्य-मंच पर कोई ऐसा धमाल भी करेगा, जिसको देखने के लिए अंधेरिया कुच–कुच रात में, नदी-नाला, नहर-पाइन, जंगल-झाड़ की भी लोग परवाह न करेंगे और नाच देखते-देखते उसमें इस कदर खो जायेंगे कि दो-चार कुँए या गडढे में अवश्य ही गिर ही जाया करेंगे।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर 1887 को बिहार के वर्तमान छपरा जिले के कुतुबपुर (दियारा) कोढ़ावापटी, रामपुर गाँव के निवासी दलसिंगार ठाकुर और शिवकली देवी के बहुत ही विपन्न आँगन में हुआ था। पारिवारिक विपन्नता के अनुरूप ही बाप ने उस बालक का नाम रखा था ‘भिखारी’। नाम के अनुरूप ही पारिवारिक अवस्था, जिसमें चल सम्पति के रूप में कैची-कंघी, नोहकटनी और पुराना पत्थर तथा अचल सम्पति के रूप में बरसात में पानी चूते और बाकी के समय आकाश के तारें झाँकते फूस के टूटे छप्पर वाली झोपड़ी और अल्प परिमाण में खेती की जमीन मात्र ही थी। होश सम्भालते ही ग्रामीण गीतों-गानों पर उस बालक के हाथ-पैर थिरकने लगे थे। आस-पास हो रहे नाच-नौटंकियों की ओर मन में अनायास ही खिंचाव भी होने लगी थी। पढ़ाई में मन ही कहाँ लगता था? पूरे साल भर में पूरा ‘ककहारा’ भी न सिख पाया। गरीब पिता ने अपने बिगड़ते ‘भिखारी’ को जीवन की पटरी पर लाने के लिए उसे होश सम्भालते ही पुश्तैनी औजार, यथा – कैची-कंघी-नरहनी आदि को पकड़ा दिया।
कुतुबपुर बा गाँव, ह भिखारी ठाकुर नाँव।
बाबू भईया सब केहू के परत बानी पाँव॥
जात के नाऊ गेयान है थोरा। लाज राखहूँ नन्द किसोरा॥
माथ मूड़त में लागे ना देरी। ढील गिरा के कइलीं ढेरी॥
जानत बानी नाच के काम। अब ना मिलिहें सीताराम॥
भिखारी के हाथ भले ही लोगों के हजामत बनाने के लिए उनके सिर पर घुमने तो लग गए, परन्तु आमद के नाम पर ‘ढेला’ भी नहीं, पर गालियाँ जरुर मिलती थीं। अतः कुछ बड़े होने पर पास के गाँव के लोगों की देखा-देखी जीविकोपार्जन के लिए गाँव की गलियों और पगडंडियों को छोड़ा और जा पहुँचा बंगाल के खड़गपुर में। किन्तु भिखारी का मन हजाम वाले काम न लगता था। जबरन ही इस काम में अपनी जवानी के पूर्वार्ध को खपाया। ‘मन-चिरई’ तो कहीं और ही उडती रही। उसे कोई नई मंजिल की तलाश थी। एक बार भिखारी पास के ही मेदिनीपुर पहुँचा और वहाँ बंगला भाषा में हो रही ‘रामलीला’ को देखा। बचपन से उसे जिस मंजिल की तलाश थी, वह तो उसे उस ‘रामलीला’ में दिखलाई दे दी। अब क्या था? पुश्तैनी कैची-कंघी-छूरा को हाथ जोड़ प्रणाम किया और प्रभु आशीर्वाद हेतु ‘पूरीधाम’ जा पहुँचा।
भगवान जगन्नाथ स्वामी का आशीर्वाद को सिरोधार्य कर अपने गाँव लौट कर भिखारी ठाकुर ने 1917 में अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक ‘नाटक नृत्य मण्डली’ बनायी और ग्रामीण अंचल में नौटंकी और रामलीला खेलने लगे। भिखारी ठाकुर की रंगमंचीय यात्रा की शुरुआत शादी-विवाह के अवसर पर आयोजित नाच-नौटंकी से हुई थी। जिसमें उन्होंने ‘बिरहा-बहार’ नामक नाटक जो अब ‘बिदेसिया’ नाम से जाना जाता है, किया था। भिखारी के मधुर कंठ और विशेष ‘लौंडा’ नृत्य शैली ने लोगों को बहुत आकर्षित किये, जो नृत्य-शैली पहले बिहार में ‘नटुआ नाच’ के नाम से प्रसिद्ध थी, जिसमें एक पुरुष महिला जैसी वेशभूषा धारण कर महिला की भंगिमाओं में ही नृत्य करता है। और अब तो गाँव का उपेक्षित भिखारी आस-पास के गाँव में सबके प्रिय पात्र बन गए। लोगों के सम्मान को भी प्राप्त करने लगे। अब तो भिखारी ठाकुर की नाट्य मंडली की पूछ दूर-दूर तक होने लगी।
गवना कराइ सैंया घर बइठवले से,
अपने लोभइले परदेस रे बिदेसिया।।
चढ़ली जवनियाँ बैरन भइली हमरी रे,
के मोरा हरिहें कलेस रे बिदेसिया।।
दिनवाँ बितेला सइयाँ वटिया जोहत तोरा,
रतिया बितेला जागि-जागि रे बिदेसिया।।
कबीर के समान ही ‘पढ़े हुए की अपेक्षा गढ़े हुए अधिक’ भिखारी ठाकुर के व्यक्तित्व में एक साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार, अभिनेता आदि की बहुमुखी प्रतिभाएँ समाहित थीं। चुकी उनकी भाषा भोजपुरी थी, अतः उन्होंने अपनी मातृभाषा भोजपुरी को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। समाज में जब वे नाट्य-मंच से कुछ कहने के लायक बने, तो उन्होने अपने नाटको, गीतों व नृत्यों के माध्यम से तत्कालीन भोजपुरी समाज की समस्याओं और कुरीतियों यथा, – बाल-विवाह, दहेज़-प्रथा, बेरोजगारी, रोजगार के लिए पलायन, नशाखोरी आदि पर प्रहार तथा उसके निदान को सहज तरीके से मंच पर प्रस्तुत करने लगे। इसके साथ ही उन्होने नाटक, गीत एवं पुस्तकें लिखना भी आरम्भ कर दिया।
ढर-ढर ढरकत बा लोर मोर हो बाबूजी…
केइ अइसन जादू कइल, पागल तोहार मति भइल;
नेटी काटि के बेटी भसिअवलऽ हो बाबूजी।
रोपेया गिनाई लिहलऽ, पगहा धराई दिहलऽ;
चेरिया के छेरिया बनवलऽ हो बाबूजी।
भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी भाषा में बिदेशिया, भाई-बिरोध, बेटी-बियोग, बेटी-बेचवा, कलयुग प्रेम, गबर घिचोर, गंगा स्नान (असनान), बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, कलियुग-प्रेम, राधेश्याम-बहार, बिरहा-बहार, बुढ़शाला के बयाँ, चौवर्ण पदवी, नाइ-बहार, शंका समाधान, नक़ल भांड और नेटुआ आदि कई नाटक, सामाजिक-धार्मिक प्रसंग गाथा और गीतों की रचना की है। इसके अतिरिक्त उन्होंने शिव विवाह, भजन कीर्तन, रामलीला गान, कृष्ण, माता भक्ति, आरती जैसे धार्मिक भावनाओं से सम्बन्धित कई पुस्तकों की भी रचना की है। उनकी भाषा बहुत सरल थी, जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया। इनमें उनका नृत्य-नाटिका ‘बिदेसिया’ बहुत प्रसिद्ध हुआ। फिर तो उनकी यह नृत्य तथा नाटक मंडली असम, बंगाल, नेपाल आदि के कई शहरों में सिनेमाघर के समानांतर टिकट पर अपनी नाट्य-कला दिखाने लगी। लोगों की भीड़ भी जुटने लगी, क्योंकि भिखारी के नाच-नाटक में उन्हें अपनी माटी की भाषा-संस्कृति की सुगंध और अपनापन के भाव मिलने लगे थे।
छव गज के सारी पेन्हलू, अँचरा कइलू छोट।
आधा पेट के झुला सिया के, भइलू मेंही से मोट॥
भिखारी ठाकुर को ‘भोजपुरी भाषा और संस्कृति का बड़ा झंडा वाहक’ माना जाता है। उनमें आम आदमी के दुःख-दर्द को समझने की अपूर्व क्षमता थी। अपने कार्यों में उन्होंने हमेशा एक समानता और समतावादी सामाजिक दृष्टि की ही पहल की है और उसे ही लोगों को समझाने की कोशिश भी की है। यद्यपि उनके नाटक-नृत्य प्रवास के दौरान ही गाँव और ग्रामीण समाज के चारों ओर विकसित हुए है, फलतः उनमें ग्रामीण संस्कृति और मधुरता का भरपूर स्वादरस रहा है। तभी तो कोलकाता, आसनसोल, सिलीगुड़ी, पटना, धनबाद, राँची, राउलकेला, भिलाई, नागपुर, सूरत, मुंबई, बनारस, लखनऊ और अन्य सैकड़ों छोटे-बड़े शहरों में अपने घर परिवार से दूर अपनी आजीविका की खोज में जा बसे प्रवासी बिहारी मजदूर-श्रमिक भिखारी ठाकुर को अपने गाँव-समाज का संदेशक और बटोही माना और उन्हें अपने हृदय से अपनाया। यहाँ तक कि उनके लिए देश की सीमाएँ भी संकुचित हो गईं और उन्होंने अपनी नाटक-मंडली के साथ मॉरीशस, केन्या, सिंगापुर, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, युगांडा, म्यांमार, मैडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका, फिजी, त्रिनिडाड और अन्य कई जगहों पर जा बसे प्रवासी बिहारियों के लिए उनके घर-आँगन के ‘सन्देश वाहक’ बनकर उनके सामने जा उपस्थित हुए।
लागी गइल बा बिदेसी में सुरतिया। घर में रोअत बिया ब्याही औरतिया॥
बाहर में खात बाड़न चाउर बासमतिया। आज ले ना भेजलन लिखकर पतिया॥
हमरा के जनलन ककरी के भतिया। का जाने जे का करीहन सांझा कर रतिया॥
कहत ‘भिखारी’ नाई मानऽ मोर बतिया। राम नाम कहऽ ना त कवन होइहन गतिया।
भिखारी ठाकुर ने बिहार के नृत्य-विधा के ढांचागत स्वरूप में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया, बल्कि उन्होंने गीत-संगीत, नृत्य-कॉमिक और नाटक के अंत दिए जाने वाले सन्देश को पूर्व की भाँति ही रखा। पूर्व के नृत्य-नाटक मुख्यतः लोककथाओं पर आधारित होते थे, परंतु भिखारी ठाकुर ने सामाजिक विषयों पर तत्कालीन समय के अनुरूप नाटक रचे। इसके साथ ही उन्होंने अपने नाटकों में भोजपुरी समाज में प्रचलित लोक गीत, नृत्य की विधाओं को भी शामिल किया। नाटकों के चरित्र, समाजी, लबार, सूत्रधार, संगीत, नृत्य आदि को भी सुदृढ़ किया। स्वयं की अपनी धुन और अपना ताल विकसित किया। गम्भीर तथ्यों को भी अपने भाव में समेटे सरल देहाती भोजपुरी भाषा का श्रवण तो भिखारी ठाकुर ही करवा सकते हैं –
“अब देखल जाय कि गाय वास्ते गौशाला खुल गइल। गरीब वास्ते धर्मशाला खुल गइल। गँवार वास्ते पाठशाला खुल गइल। बड़ा अच्छा भइल। अब बूढ़ खातिर ‘बुढ़शाला’ खुल जाइत न, बहुत अच्छा रहल हा; काहेकि बूढ़ के बड़ा तकलीफ बीतत बा-काहे से जे जवान छवड़ा जब तक औरत लोग के डरे उनके बात सुने ले। बूढ़ का खइला के कुछ फिकिर ना रहे। यदि बूढ़ एक दफे से दूसरा दफे पुछलन – ‘बहु खाय के भइल।’ त ई सुनि के पतोह कहत बाड़ी – ‘आह बाबा आह बाबा! हाड़ी दलदला गइल।’ तब तक ले बेटा आ गइलन। पुछतारन – ‘का भइल हा रे।’ पतोह कहत बाड़ी – ‘जे का भइल हा। कइ एक दफे पुछलन खायेक भइल। खाये के होई, त हमहीं खाइब कि बाबूसाहेब खइहन।’ बेटा खिसिया के -‘आरे आदमी हवन कि कुत्ता।’ बाप-‘हम कुत्ता कइसे हुईं, भूख नु लागल बा।’
बेटा कहता – ‘अरे भूख के नाती! सोझा से चल जो, नात मार मूकन के पीठ गुल-गुल कर देबि।’ बाप दोबर धोती ओढ़ि के आँगना से दुअरा पर सूत के रोअत बाड़न, बेटा का कान्हा पर अलवान झूलत बा। बाप धोती का तरे लोर पोंछत बाड़न। केहू से कहत नइखन, काहेकि ई बात कहब, त छबड़ा जान जाईं, तब घर में रहल दुर्लभ हो जाई। लरिका कहत बाड़न स कि बाबा एगो कथा कहऽ। बाबा का कथा लउकत बा कि, बाबा का ऊ दिन लउकत बा, जेह दिन एही लड़िका खातिर महाजन के दुआर अगोरले रहलन। अगर महाजन (एक) रुपया देलन, त पन्द्रह आना के खरची वो एक आना के मिठाई ले अइलन कि बबुआ बड़ होइहन, त हमरा के सुख दीहन। से बबुआ के अब ई बोली सुनि के मन में गुनि-गुनि के रोअत बाड़न, ई केहू कहे कि हिन्दू वास्ते, चाहे मुसलमान वास्ते से बात ना ह।”
भिखारी ठाकुर और उनके नृत्य-मण्डली की प्रसिद्धी इतनी बढ़ गई थी कि उनके नाच के सामने लोग सिनेमा देखना तक पसंद नहीं करते थे। उनकी एक झलक पाने के लिए लोग कोसों पैदल चल कर रात-रात भर नाच देखते थे। अनेक राजघरानों सहित ज़मींदार भी उन्हें ससम्मान बुलाते थे। अपने समय में भिखारी ठाकुर नाच विधा के ‘स्टार कलाकार’ बन गए थे। अंग्रेज़ों ने उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि दी, तो हिंदी के साहित्यकारों ने उन्हें ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ और ‘अनगढ़ हीरा’ जैसे उपनाम से विभूषित किये। देहाती कथानक, लोकहित, अभिनय, प्रदर्शन आदि सर्वोतोंमुखी प्रतिभावान के प्रस्तोता और जन्म-जन्मान्तर नौटंकी करने की इच्छा रखने वाले भिखारी ठाकुर 10 जुलाई 1971 को चौरासी वर्ष की आयु अपनी आखरी सांस ली।
‘बिहार राज्य भाषा परिषद्’ ने भिखारी ठाकुर की सभी रचनाओं का संकलन ‘भिखारी ठाकुर रचनावली’ के नाम से प्रकाशित किया है। बिहार सरकार ने उन्हें ‘बिहार रत्न’ से सम्मानित की। राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को ‘भोजपुरी का अनपढ़ हीरा’ नाम से अभिव्यक्त किया है। जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा सहित बिहार के कई विश्वविद्यालयों में भिखारी ठाकुर की रचनाओं को उनके पाठ्यक्रम में शामिल कर उन्हें सम्मानित किया है।