डॉ. लोक सेतिया : समझ का फेर है अन्यथा विधाता के निर्णय में होती कभी नहीं इक पल की देर है माना साफ नज़र आता अंधेर ही अंधेर है सरकार क्या कमाल है सब कुछ बेहाल बदहाल है किस्मत की बात नहीं बिन बादल हुई बरसात नहीं अंधे के हाथ लगी बटेर है।
वक़्त वक़्त की बात है दिन अंधेरे हैं जगमगाती रात है दिल्ली राजधानी है अजब करामात है सेवक महल में रहता मालिक को मिला फुटपाथ है। राजा है जिसकी नहीं रानी है उसकी रोज़ नई कोई कहानी है बिल्ली मौसी शेर की खो गई नानी है बस इतनी सी परेशानी है।
शेर और बुढ़िया की सुनी कभी कहानी है बात समझने की है आपको समझानी है शेर से सभी डरते थे इंसान उसका शिकार कर लेता था उसने ईश्वर से इंसान की भाषा समझने का वरदान हासिल कर लिया और इंसान की बात सुनकर निडर होकर गांव बस्ती जाने लगा।
इक झौंपड़ी से इक बुढ़िया की आवाज़ आती सुनाई देती है बड़बड़ाती है मेरा गधा धोबी वापस देने नहीं आया ज़मींदार के घर मिट्टी पहुंचानी है रात होने को है। मैं ज़मींदार से नहीं डरती मेरे सामने शेर भी आये तो नहीं डरती सुनकर शेर हैरान हो जाता है।
बुढ़िया को शेर दिखाई देता है अंधेरे में समझती है मेरा गधा है। शेर दहाड़ता है तो बुढ़िया कहती है शेर समझने लगा खुद को मैं तुझको तेरी औकात बताती हूं और उसके कान पकड़ उस पर मिट्टी लदवाती है और ज़मींदार के घर गिरवाती है। शेर की पीठ टूट जाती है और भाग जाता है।
इस नीति कथा की शिक्षा है की भीतर से डर कर आधी लड़ाई पहले ही हार जाते है, यही हालत सरकार जनता को लेकर है और पति पत्नी को लेकर भी।