कुण्डलियाँ
फ़सलें बो कर द्वेष की, रहे रक्त से सींच
खालें ओढ़ किसान की, बैठे चहुँ दिसि नीच
बैठे चहुँ दिसि नीच, खींचते देश गर्त में
खुलें पर्त दर पर्त, इरादे नयी शर्त में
खड़ा शीश पर युद्ध, कमर अब हम भी कस लें
करनी हैं बर्बाद, समूल सियासी फसलें
वामी अमृत नाभि में, कर-पद मुगल फणीश।
अंग पुनः कटि कटि उगें, मरे नहीं दस-शीश।।
मरे नहीं दस-शीश, न बाहर है पर वश से
इकत्तीसवाँ तीर, बनो निकलो तरकश से
तीस काट दें सीस-बाहु मारें खल कामी
एक सुखाए जाय, नाभि का अमृत वामी
डीपी सिंह