रजनी मूंधड़ा की कविता “दुर्गा पूजा मत करो”

“दुर्गा पूजा मत करो”

ये आह्वान
ये शंख ध्वनि
पुष्पांजलि
मंत्र, पूजा,
अर्चन, वंदन,
ये निराहार,
अखंड दीप
अभिनंदन।
ये ढाक-ताल
धूना आरती
हे! भारती
हे! भारती
ये मेरी जय जयकार से
धरती अंबर मत भरो
हे! मानव
तुम दुर्गा पूजा मत करो।
हे! मानव
तुम दुर्गा पूजा मत करो।।

सृष्टि में गुंजित
ये चीत्कार
ये क्रंदन
अंतस की वेदना
संवेदना
नित्य प्रतिदिन
हृदय को भेदना
आत्मा को रेतना
मेरे प्रतिरूप की अवहेलना
सम्मान से मेरे खेलना
चेतना, अचेतना
क्षत-विक्षत
तार-तार
मेरे स्वरूप का
नित तिरस्कार
फिर यह
कैसा नमस्कार?
फिर यह
कैसा नमस्कार?
हे! भारती
हे! भारती
ये तृष्णा फल
मंगल कामनाओं की
द्वारे पे मेरे मत धरो
हे! मानव
तुम दुर्गा पूजा मत करो
हे! मानव
तुम दुर्गा पूजा मत करो।।

मेरा रूप कराल
काली का
तेरे विनाश की
निश्चित तालिका
घोर रूपा, महा ज्वाला
चंडिका, रक्त-रंजीता
स्वरूपा को तुम मत जगाओ
सृष्टि में प्रलय का
तूफ़ान मत मचाओ
हो सके समय रहते
स्वयं को तुम बचाओ।
मेरे हर प्रतिरूप में
मैं वरदायी
फलदायी, सुखदायी
कहे वेद पुराण
श्री राम, कृष्ण-कन्हाई
सम्मान तुम मेरे
हर, स्वरूप का करो
अन्यथा मेरा नाम भी
मुख से सुमिरन मत करो
चेता रही हूँ मैं
आधारभूता जगतस्वमेका
सर्वस्वरूपे सर्वेश
सर्वशक्ति समन्विते
शक्तिभूते सनातनी
सर्व दानव घातिनी
हे! भारती
हे! भारती
महिषासुरी, दुर्गम, भुजाओं से
मेरी आराधना मत करो
हे! मानव
तुम दुर्गा पूजा मत करो
हे! मानव
तुम दुर्गा पूजा मत करो।।

©रजनी मूंधड़ा

कवित्री एवं लेखिका

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