“कलम, आज उनकी जय बोल”
हिंदी साहित्य के क्षेत्र में बहुत कम ही ऐसे कवि या लेखक हैं, जिनमें एक ओर भूषण जैसा वीर रस की कविताई की झंकार सुनाई देती हो, तो दूसरी ओर मैथिलीशरण गुप्त जैसे शांत और करुणा रस की कविताई का दिव्य दर्शन होI जो सत्ता के अत्यंत करीब हो और जनता में भी लोकप्रिय हो, जो जनकवि भी हो और साथ ही राष्ट्रकवि भी होI माँ भारती के आशीर्वाद से राष्ट्रीयता के गम्भीर उद्घोष करने के साथ ही साथ साधारण जन के लिए आँसू बहाने वाले एक ऐसे ही कवि रहे हैं, वह हैं, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी।
ओजस्वी राष्ट्रभक्ति और करुणा की भावना से ओतप्रोत सरस्वती वरदपुत्र कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म 23 सितंबर 1908 ई. में सिमरिया, वर्तमान में ज़िला बेगुसराय, (बिहार) में एक साधारण किसान रवि सिंह तथा उनकी पत्नी मनरूपा देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। रामधारी को किशोरावस्था से ही पितृ वियोग सहन करना पड़ा था। परिणामत: रामधारी के जीवन का पूर्वार्द्ध पितृविहीन मातृ-प्रेम की छत्र-छाया में, देहात में दूर-दूर तक चतुर्दिक फैले शस्य-श्यामल खेतों में, बांसों के झुरमुटों में, आमों के बगीचों में, गंगा के किनारे दूर तक फैले धरती के रोयेंदार कांसों में, पक्षियों के मधुर कलरवों आदि के बीच बिता। प्रकृति की यह मधुर सुषमा रुपी विराट शक्ति स्वरूपा रामधारी के तन-मन में कैशोर्य से केवल बस ही नहीं गयी, बल्कि उनके भावी जीवन में आने वाली कठोर आघातों को सहने के अनुकूल बना दी, जिससे कालांतर में ‘दिनकर’ की अति प्रखर, ओजस्वी और विद्रोह वाणी बन कर साहित्य में गूँज सकीI
स्वतंत्र गर्व उनका जिन पर संकट की घात न चलती है,
तूफानों में जिनकी मशाल कुछ और तेज हो जलती है।
बाद में निकटवर्ती ‘बोरो’ ग्राम में तत्कालीन सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोले गए ‘राष्ट्रीय मिडिल स्कूल’ का वातावरण रामधारी के मन-मस्तिष्क में राष्ट्रीयता की अजस्र भावना को उत्पन्न कर कर दिया। फिर ‘मैट्रिक’ की परीक्षा में राज्य भर सर्वाधिक अंक की प्राप्ति से “भूदेव” पुरस्कार को प्राप्त करने वाले इस प्रतिभाशाली बालक के मन-मस्तिष्क में तत्कालीन बिहार के देहातों की पीड़ित दशा के अनगिनत चित्र ऐसे अक्षुण्ण आसन लगाकर बैठे गए, कि वे कालांतर में ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’ और ‘द्वंद्वगीत’ के प्रखर शब्दों के रूप में कागजों पर उतर आये।
‘जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है, भारत अपने घर में ही हार गया है।‘
‘दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खली करो कि जनता आती है I’
तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासन के तमाम बाधाओं को पार करते हुए अपनी योग्यता के बल पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासन के विशेष पद तक जा पहुचे थे लेकिन उनकी कलम से उत्पन्न राष्ट्रीयता की प्रखर गूँज से अग्रेज़ प्रशासकों को यह समझते देर न लगी कि वे ‘भारत-प्रेमी’ एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र व्यवस्था का एक प्रमुख अंग बना बैठे हैंI फिर क्या था? दिनकर’ जी के विरोध में फ़ाइल तैयार होने लगीं, बात-बात पर उच्च दरबार में उन्हें तलब किया जाने लगा, चेतावनियाँ भी मिलने लगीं और फिर चार वर्षों के अन्तराल में ही बाईस बार उनका तबादला किया गया।
पर ‘दिनकर’ जी की लेखनी अब प्रशासन के आदेश के अनुचर न थी, बल्कि वह तो अब तक अनगिनत पीड़ित भारतीयों की प्रखर शस्त्र बन चुकी थी, जो अपनी वाणी-रुपी चोटों से अंग्रेजों के मर्म को निरंतर भेदती रहींI वह तो स्वदेशी रंग में इतनी रंग गयी थी कि अब भला उस पर अंग्रेजी प्रशासनिक रंग कैसे चढ़ सकता था? अंग्रेजों के कठोर कुचक्र आघातों के आगे वह न झुकी, न मंथर ही हुई, बल्कि वह और अधिक प्रखर होकर हुंकार भरने लगी-
‘घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता हैI’
स्वतन्त्रता पूर्व के विद्रोही कवि देश की स्वतंत्रता के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाज और देश की उन्नति के लिए लोगों में नवजीवन को स्थापित करने के उद्देश्य से भारतीय पौराणिक पात्रों को अपने व्यक्तव्य का आधार बनायाI वीरता और पुरुषार्थ से परिपूर्ण ‘परशुराम’, ‘राम’, ‘लक्ष्मण’ और ‘कर्ण’ जैसे पराक्रमी पात्र इनकी रचनाओं में मुखरित होने लगे –
‘विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीतिII’
राष्ट्रीय ओज के इस अमर गायक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की लेखिनी ने सोयी हुई भारतीय पौरूष को ऐसे ललकारा कि ‘कुरूक्षेत्र’ के युद्ध के समान ही स्वतंत्रता संग्राम में धर्म (आजादी) की स्थापना करने की दिशा में भारतीय महारथी प्रवृत्त होने लगे। ‘युद्ध एवं शांति’ की दिशा में भी कवि ने मौलिक चिन्तन को काव्यात्मक स्वरूप में प्रस्तुत किया है और समयानुसार जनमानस को दिशा-निर्देशित किया है-
‘जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे, ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जब तक पद पायेंगे I’
‘वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है, मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता हैI’
जब देश स्वाधीन हुआ तो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ‘बिहार विश्वविद्यालय’ में हिन्दी के प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त हुएI सन् 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो वे राज्यसभा के निर्विरोध सदस्य चुने गए। दिनकर जी 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहें, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना विशेष हिन्दी सलाहकार बना लिया।
दिनकर जी के प्रथम तीन काव्य-संग्रह प्रमुख हैं– ‘रेणुका’ (1935 ई.), ‘हुंकार’ (1938 ई.) और ‘रसवन्ती’ (1939 ई.) उनके आरम्भिक आत्म मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इसके बाद के ‘द्वन्द्वगीत (1940)’, ‘कुरुक्षेत्र (1946)’, ‘सामधेनी (1947)’ में अर्थात देश की आज़ादी की सम्भावना और उसकी तैयारी से सम्बन्धित विचारों का संवहन और गहन चिंतन है, तो उसके के उपरांत अर्थात देश की आजादी के बाद की रचनाओं में यथा ‘रश्मिरथी’ (1952), ‘दिल्ली’ (1954), ‘चक्रवाल’ (1956), ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ (1963), ‘रश्मिलोक’ (1974) आदि में कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी जनता के दायित्वों को वहन करने वाले एक जनकवि के रूप में दिखने लगते हैं I
‘सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो।
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरोI’
ऐसे ही समय में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का व्यक्तिपरक और सौन्दर्यान्वेषी कवि-मन ‘उर्वशी’ (1961) और सामाजिक चेतना ‘हारे को हरिनाम (1971) से परस्पर संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है I
परन्तु ऐसे में भी कवि राष्ट्रीय चेतना से विमुख हुए नहीं हैं, बल्कि आजादी के पूर्व के अपने प्रखर स्वरूप को पुनः अपनाए हुए ही जन की वाणी में कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी अपने राजकर्ताओं को भी ललकारने से भी नहीं चुकते हैं और उनसे भी पूछ रहे होते हैं —
‘अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर मेंI’
और इसकी एक ओजस्वी मिसाल 70 के दशक में ‘संपूर्ण क्रांति’ के दौर में दिखाई पड़ती हैI दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने हजारों लोगों के समक्ष ‘दिनकर’ जी की पंक्ति ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का उद्घोष करके तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया थाI फिर तो उसके बाद से ही ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आ रही है’ सामूहिक शब्दावली सरकार के खिलाफ जनता की विद्रोही वाणी ही बन गई हैंI
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी वास्तविक अर्थ में ‘दिनकर’ अर्थात ‘सूर्य’ ही थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के दिव्य प्रकाश से भारतीय जनता को और समाज को समय-समय पर नवीन वातावरण सहित निर्मित किया हैI ‘दिनकर’ जी जनकवि थे, इसीलिए उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ भी कहा गयाI “पद्म भूषण” से सम्मानित दिनकर को वर्ष 1972 में ‘ज्ञानपीठ’ से भी सम्मानित किया गयाI
24 अप्रैल, 1974 को हिंदी साहित्य का यह प्रखर ‘दिनकर’ इस जीवन को पूर्णता को प्रदान करते हुए अनजान पीड़ितों को दुःख से त्राण दिलाने के लिए पुनः एक प्रखर स्वरूप को धारण करने हेतु सदा के लिए अस्त हो गया।