शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जी की जयंती पर विशेष…

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जी की जयंती पर विशेष…

श्रीराम पुकार शर्मा

प्रस्तुति: श्रीराम पुकार शर्मा

“आवारा मसीहा” शरतचंद्र : बंगाल सहित भारत की धरती पर राजा राममोहन राय द्वारा विधवा नारी-हन्ता ‘सती प्रथा’ के जो विरोधात्मक सामाजिक आन्दोलन प्रारम्भ हुआ था, उसके प्रतिफलन में भारतीय समाज में नारी को शिक्षा और सामाजिक महत्व प्राप्त होने लगे थेI इसका प्रत्यक्ष असर भारतीय साहित्य में भी दिखने लगे थेI अब नारी-मुक्ति सम्बन्धित स्त्री-शिक्षा, नारी स्वाधीनता, उनके सामाजिक-आर्थिक अधिकारों से जुड़े विभिन्न प्रश्नों को लेकर नयी प्रगतिशील विचारधारा लेखकों का एक विशेष साहित्यिक वर्ग तैयार हो रहा था, उसी के अग्रदूत प्रतिनिधि लेखक थे – “आवारा मसीहा” अर्थात ‘शरतचंद्र चट्टोपाध्याय’, जो अपनी लेखनी के माध्यम से औरतों को परम्परागत सतीत्व नैतिकता का पाठ पढ़ाने के बजाय, उन्हें वर्तमान परिस्थिति में अपने जीवन सम्बन्धित स्वयं निर्णय लेने के लिए प्रेरित कर रहे थे।

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 15 सितम्बर, 1876, को ग्राम – देवानन्दपुर, जिला – हुगली (पश्चिम बंगाल) में अपने माता पिता की नौवीं संतान के रूप में हुआ था। उनका बाल्यकाल देवानान्दपुर में, जबकि कैशोर्य भागलपुर में ननिहाल में बिता थाI उनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा देवानान्दपुर में जबकि प्रवर्तित शिक्षा का बहुत कुछ कुछ अंश भागलपुर में सम्पन्न हुई थीI शरतचन्द्र स्वभाव से बहुत नटखट, पर कुशाग्र बुद्धि के बालक थेI बचपन में अपने समवयस्क मामाओं और बाल सखाओं के साथ मिलकर बहुत शरारत किया करते थे, जिसके हृदयग्राही वर्णन चित्र उनकी रचनाओं में उनके विविध पात्रों की विविध क्रिया-कलापों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैंI

सन् 1893 के आस-पास सोलह वर्ष की अवस्था से ही शरतचन्द्र में उनकी साहित्य-साधना का सूत्रपात हो गया थाI इसी तरुणाई में ही उन्होंने “बासा” (घर) नाम से एक लघु उपन्यास लिख डाला, जो दुर्भाग्यवश प्रकाशित न हो पायाI सन् 1900 में शरतचन्द्र घर से नाराज होकर सन्यासी वेश धारण कर घर-त्यागी भी बन गए थे, पर पिता की मृत्यु की खबर उन्हें घर वापस लाईI पिता का श्राद्ध-कर्म किया और फिर कलकत्ता में अपने मामा लालमोहन गंगोपाध्याय के पास पहुँच गये, जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के विख्यात वकील थे।

यहीं पर रह कर उन्होंने कई हिंदी पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद का कार्य भी किया, जिसके लिए उन्हें प्रतिमाह तीस रूपये मिलते थेI बाद में 1903 से लेकर 1916 तक के तेरह वर्ष का समय उन्होंने रंगून (वर्तमान यांगून) सहित कई पूर्वी प्रान्तों में नौकरी करते हुए बिताया, परन्तु इस प्रवास और नौकरी काल में भी उनकी साहित्यिक गतिविधियाँ ही जारी ही रहींI इसी समय शरतचंद्र की अनुपस्थिति में सन् 1913 में कलकत्ता से प्रकाशित ‘यमुना’ पत्रिका के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल ने उनकी धारावाहिक रचना ‘बोडो दीदी’ का औपन्यासिक स्वरूप प्रकाशित करवाया, जो शरतचंद्र की प्रथम मुद्रित पुस्तक थी।

इसकी तीन हजार से अधिक प्रतियाँ मात्र तीन महीने में ही बिक गईंI यह ‘बोडो दीदी’ उपन्यास ने शरतचंद्र को बंगला साहित्यकारों में प्रतिष्ठित कर दियाI सन् 1916 में शरतचन्द्र रंगून की अपनी नौकरी को त्याग कर हावड़ा के ‘बाजे शिवपुर’ में आकर बस गए और अपना प्रसिद्ध उपन्यास ‘श्रीकांत’ को पूरा कियेI फिर तो ‘देवदास’, ‘चरित्रहीन’, ‘पल्ली समाज’, ‘दत्ता’ आदि उपन्यास प्रकाशित हुएI

अब तक शरतचंद्र ‘नोबल पुरुस्कार से सम्मानित विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर और लब्ध प्रतिष्ठित बंगला साहित्यकार बंकिमचन्द्र चटर्जी के भी स्नेह-भाजन बन चुके थेI देखते ही देखते बहुत ही कम समय में ही उनके पचीसों उपन्यास, पचासों कहानियाँ, दर्जनों नाटक और निबंध प्रकाशित हो गएI अपने नाम के अनुरूप ही ‘शरद’ का शीतल ‘चन्द्र’ बन अपनी साहित्यिक ‘चन्द्रिमा’ से भारतीय गद्य साहित्य को एक नई दिशा प्रशस्त करने लगेI

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का मानना है कि – “सतीत्व ही नारीत्व नहीं हो सकता है। वह तो प्रेम, त्याग, ममता, स्नेह का प्रतीक हैI उसे भी स्वतंत्र वातावरण में अपने मन के अनुकूल जीने का हक़ हैI औरतों को हमने केवल औरत बनाकर ही रखा है, मनुष्य बनने ही नहीं दिया, उसका प्रायश्चित स्वराज्य के पहले देश को करना ही चाहिए।”

उनकी विशद साहित्यिक रचनाओं को देख-पढ़ कर मन में संदेह उत्पन्न होता है कि क्या यह वही शरत है, जिसे समाज के तानों को सुनना पड़ा, गरीबी में जीना पड़ा, अपनी पूरी ज़िन्दगी समस्याओं से जूझना पड़ा, जिसने बेपरवाही और निश्चिंतता से तंबाकू पीते हुए साधू बनकर, सन्यासियों के साथ घूमते महीनों गुज़ार दिए? मगर हाँ! उन सारी परिस्थितियों से लड़कर, जूझकर उसने अपनी कलम को गतिमान रखा और सदियों से शोषित नारी तथा विकास से कोसों दूर नीचे तबके के शोषित जनों को मुक्ति का मार्ग दिखलाया।

विश्वास तो नहीं होता है, पर वास्तविकता तो यही है कि यह वही शरत हैI इनका सम्पूर्ण साहित्य ही नारी के उत्थान से पतन और पतन से उत्थान की करुण गाथाओं से परिपूर्ण है। इनके साहित्य में नारी के नीचतम और महानतम दोनों रूपों के एक साथ दर्शन होते हैं, जिसे देख कर पाठक वर्ग कुछ समय के लिए सन्न रह जाते हैं। उनके इसी दुस्साहसिक कार्य के लिए उन्हें कुछ तथाकथित सभ्य समाज से रोष का पात्र भी बनना पड़ा था I शायद यही वजह रही कि हिन्दी साहित्य के विशिष्ठ रचनाकार विष्णु प्रभाकर ने उन्हें ‘आवारा मसीहा’ की संज्ञा दी हैI

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की प्रमुख रचनाएँ –
उपन्यास – बड़ दीदी, बिराजबौ, परिणीता, बैकुंठेर उइल, चन्द्रनाथ, पोंडित मोशाई, देवदास, चरित्रहीन, श्रीकांत, गृहदाह, बामुनेर मेये, देना पाओना, पथेर दाबी, शेष प्रोशनों, बिप्रदास, शुभदा, शेषेर पोरिचय आदि हैं I
नाटक – षोड़शी, रमा, बिराज बौ, बिजया आदिI
कहानी संग्रह – रामेर सुमति, बिन्दुर छेले, पोथ निर्देश, मेज दिदि, आंधारे आलो, बिलासी, मामलार फल, हरिलखी, आभागीर स्बर्ग, अनुराधा, काशीनाथ, छबी आदिI
निबंध – नारीर मूल्य, तरुनेर बिद्रोह, स्बदेश ओ साहित्यो, स्बराज्य साधनाय नारी, शिखार बिरोध, अभिनन्दन, भविष्यत बंग साहित्य, गुरु-शिष्य संवाद, साहित्य ओ नीति, भारतीय उच्च संगीत आदिI

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए समयानुसार ‘जगतारिणी गोल्ड मैडल (कलकाता विश्वविध्यालय), मानद डी. लिट्. (ढाका विश्वविद्यालय), कुंतोलिन पुरस्कार आदि से सम्मानित भी किया गया थाI शरतचंद्र ही एकमात्र बंगला साहित्यकार हैं, जिनकी सभी रचनाएँ हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में अनुदित हुई हैं और वे आज भी बड़ी ही चाव से पढ़ी जाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरलता और लोकप्रियता के मामले में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, बंकिम चंद्र चटर्जी और ठाकुर रवीन्द्रनाथ से भी आगे निकल गए हैं।

नारी को मुक्ति का मार्ग दिखाने वाला “आवारा मसीहा” शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने 16 जनवरी 1938 को कलकत्ता में 62 वर्ष की अवस्था में सर्वदा के लिए अपनी आँखें बंद कर लीI बचपन से ही स्वभाव से मस्त, फक्कड़ ‘आवारा’, परन्तु पीड़ित नारी के प्रति संवेदशील ‘मसीहा’ अर्थात ‘आवारा मसीहा’ के नाम से विख्यात बंगला साहित्य के शिरोमणि ‘शरतचंद्र चट्टोपाध्याय’ को उनकी गौरवशाली 145 वीं जयंती पर हम उन्हें नमन करते हैं।

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