#Hindi Sahitya : भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की जयंती पर विशेष…

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा : भारतीय संस्कृति के प्रति पूर्णतः निष्ठावान साहित्यिक सेवक, जो अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही दृष्टि से क्रांतिद्रष्टा और युग-प्रवर्तक कलाकार, आधुनिक हिन्‍दी खड़ी बोली गद्य-साहित्‍य के ‘जनक’ या ‘पितामह’ और माँ ‘भारत’ या ‘भारती’ के ‘इंदु’ (चन्द्र) ‘भारतेन्‍दु हरिश्चंद्र’ अपने साहित्यिक युग की समस्त चेतनाओं के मूल धुरी थे। अतः तत्कालीन साहित्यिक काल को ही ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है।

भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र जी का जन्‍म 9 सितम्‍बर 1850 ई. (भाद्र शुक्लपक्ष सप्तमी तिथि, वि० सं० 1907) को पौराणिक और देव नगरी काशी के साहित्यिक तथा वैभव सम्पन्न बाबू गोपालचन्‍द्र जी के घर-आँगन में हुआ था, जो स्वयं ‘गिरधरदास’ उपनाम से ब्रजभाषा में कविता लिखा करते थे। ऐसे साहित्यिक वातावरण जन्य खाद्य को प्राप्त कर भारतेन्‍दु जी ने मात्र पॉंच वर्ष की तुतलाती अल्‍पायु में ही पद रच कर सभी को अचम्भित कर दिया।

लै ब्योंडा ठाढ़े भये श्री अनिरुद्ध सुजान।
बानासुर की सैन को हनन लगे बलवान।I’
पर बाल्‍यावस्‍था में ही इन्हें माता-पिता का वियोग सहना पड़ा। इन्होंने घर पर और यात्रा-प्रवास काल में ही स्‍वाध्‍याय की प्रवृति से बंगला, अँग्रेजी, संस्‍कृत, फारसी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं का अध्ययन किया। इन्होने भारत के विभिन्न प्रान्तों का व्यापक भ्रमण किया और साथ में ही उन प्रान्तों के भाषा और साहित्य का भी अध्ययन किया, जो इनके प्रकृति-प्रेम और उसके निरीक्षण की पिपासा को शांत की। अमीरी राजसी ठाट-बाट में रहते हुए भी भारतेंदु जी स्वदेश, भाषा और साहित्य में अत्यधिक रूचि रखते थे। अपने इस अभिरूचि के लिए उन्होंने अपने तन-मन-धन सब कुछ अर्पित कर दिया।
‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति की मूल।
बिन निजभाषा उन्नति मिटै न हिय कौ सूल।I’

भारतेंदु जी साहित्य सेवा में स्वयं तो लगे रहे, इसके साथ ही हर प्रकार की सहायता करते हुए प्रतिभाशाली नव साहित्यकारों को भी साहित्य के लिए प्रोत्साहित करने लगे। बाद में संवत 1923 में चौखम्भा स्कूल स्थापित किये, जहाँ निःशुल्क शिक्षा के साथ ही निर्धन विद्यार्थियों को पुस्तकें, भोजन, वस्त्र आदि भी दिए जाते थे। आज वह सरकारी सहायता प्राप्त ‘हरिश्चंद्र हाई स्कूल’ के नाम से चल रहा है।

संवत 1925 में उन्होंने ‘कवि वचन सुधा’ नामक मासिक पत्रिका प्रारम्भ किया, जो एक वर्ष बाद ही पाक्षिक बन गया। संवत 1930 में ‘हरिश्चंद्र पत्रिका’ प्रकाशित किया। संवत 1950 ‘बाल बोधिनी’ पत्रिका भी चलाई, जो चार वर्षों तक चलती रही। संवत 1931में समाज सुधार की दृष्टि से ‘वैश्य हितैषी सभा’ नामक संस्था की स्थापना की।

भारतेंदु हरिश्चन्द्र का सम्बन्ध उस समय के महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साथ रहा है। इनके लिए धन का कोई विशेष महत्व नहीं था। दान देने और किसी की सहायता करने के पीछे इनके द्वारा धन को पानी की तरह बहाते देखकर ही एक बार काशी नरेश ने इन्हें कहा, – ‘बबुआ! घर को देख कर काम किया करो।’ इस पर भारतेन्दु ने उनसे कहा, – ‘हजूर! यह धन मेरे बहुत से बुजुर्गों को खा गया है, अब मैं इसको खा डालूँगा।’ और सचमुच अपने स्वर्गवास काल तक भारतेंदु जी ने अपने सारे धन को ही खा डाला।

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी स्वभाव से अति उदार व्यक्ति थे। दीन-दुखियों की सहायता, देश-सेवा और साहित्‍य-सेवा में उन्‍होंने अपने धन का खूब सदुपयोग किया, दूसरों के विचार में खूब लुटाया। उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य और हिन्दू जाति के उत्थान के लिए को अपने युग-प्रवर्तक व्यक्तित्व से नई दिशा, नये परिप्रेक्ष्य और नये आयाम अनवरत 35 वर्षों तक प्रदान करते रहे।

कार्य की तत्परता और कम से कम समय में उसे पूर्णता प्रदान कर लेने की लालसा के साथ ही अति उदार प्रवृति के कारण अग्रीम जीवन में उनकी आर्थिक दशा बहुत ही शोचनीय हो गयी तथा वे ऋणग्रस्‍त भी हो गये थे, जो उनके शरीर को भी असमय क्षीण करने लगा था और फिर संवत 1940 में उन्हें क्षय रोग ने धर दबोचा।

भारतीय साहित्य गगन पर उदित दिव्य भास्कर भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने संचित दिव्य साहित्यिक किरणों से हिन्दी साहित्य को जगमग कर मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में संवत 1941 (6 जनवरी, सन् 1885) में इस असार भौतिक संसार को त्याग कर माँ भारती के स्वर्गीय अंक में चिर निद्रा में लीन हो गए।

भारतेंदु का स्वभाव विनोद प्रिय था। लोगों से हँसी-मजाक करने के लिए वह बहुत ही प्रसिद्द्ध थे। होली के दिन उनका सारा दिन ऐसे ही हास्य-विनोद में बिताता था। अपने इसी हास्य-विनोद और सरल स्वभाव के कारण लोग इनकी प्रिय वस्तुओं को ठग कर ले जाया करते थे। पर वे हँसकर टाल दिया करते थे। वे अपने बारे में लिखा है –
सीधन सों सीधे, महाँ बाँके हम बाँकेन सों,
‘हरीचंद’ नगद दामाद अभिमानी के।’

भारतेन्दु हरिश्चंद्र किसी भ्रान्तिवश राजभक्ति और देशभक्ति दोनों को कुछ समय तक एक ही मानते रहे थे, पर बाद में शुद्ध देशभक्ति की भावना परिपक्व होकर राजभक्ति से बिल्कुल ही विमुख हो गई।

तभी तो एक विस्मय-विमुधता का विचार उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में परिलक्षित होते हैं –

अंग्रेज-राज सुख-साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चली जात, यहै अति ख्वारी।I’

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने देश के सर्वांगीन विकास और देशवासियों के ‘हिय के सूल’ को मिटाने के लिए अपनी मातृभाषा की उन्नति और विकास के लिए तन, मन और धन से उनसे जो कुछ भी सम्भव था, उन्होंने उसे किया। अपनी भाषा में ही साहित्य की रचना आवश्यक है, यही उनका स्पष्ट विचार था। उनका कहना है-
‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटात न हिय के सूल।I’

भारतेन्‍दु हरिश्चन्द्र जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्‍यकार थे, उन्‍होंने अनेक विधाओं में साहित्‍य सृजन कर अपनी शताधिक रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। काव्‍य-सृजन में भारतेन्‍दु जी ने ब्रजभाषा का प्रयोग किया, तो गद्य-लेखन में खड़ी बोली भाषा को व्‍यवस्थित, परिष्‍कृत और परिमार्जित कर उसे अपनाया। भाषा में प्रवाह, प्रभाव तथा ओज लाने हेतु उन्‍होंने लोकोक्तियॉं एवं मुहावरों का भलीभॉंति प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है।

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