डॉ. विकास कुमार साव। किसी भी रचनाकार का व्यक्तित्व, लेखनी, रचनाएं देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण तब कर पाता है जब अपने व्यक्तिगत जीवनानुभवों को समष्टि से मिलाकर एकाकार कर देता है और समष्टि के सुख-दु:ख, हास-उल्लास, जीवन के विविध मनोभावों को पूरी संवेदना से ग्रहण करते हुए उसे अपना बना लेता है। बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें उनके जीवनकाल में मान-सम्मान मिलता है और उससे भी कम लोग होते हैं जिनको मरणोपरांत पूरी शिद्दत के साथ याद किया जाता है। अमृता प्रीतम उनमे से एक हैं। उनके लेखन की वह ताकत जो अपने जीवनानुभव, संघर्ष की प्रेरणा, जीवन दृष्टि, मानवीय संवेदना, सामाजिक यथार्थ के चित्रण तथा पाठकों से सीधा संवाद स्थापित करने के गुण में अविस्मरणीय है।
अमृता प्रीतम की जब भी अकादमी स्तर के बाहर बात होती है तो उनके लेखन से ज्यादा उनके और साहिर लुधियानवी के प्रेम संबंधों पर नजर होती है। यह सही है कि अमृता प्रीतम और साहिर लुधियानवी का प्रेम हर मायने में अनोखा था। लेकिन बाजारू पत्र- पत्रिकाएं, समाचार पत्रों में छपे लेखों से अफवाहों और मसालेदार खबरों के बहाने विवादों का बाजार गरम होता रहा और अमृता जी का व्यक्तित्व और लेखन लगातार नजर अंदाज होता रहा। अमृता प्रीतम की पहचान साहिर लुधियानवी के साथ प्रेम संबधों के कारण नहीं होना चाहिए, उनका अपना अलग व्यक्तित्व है, उनकी शख्सियत को उनकी रचनाओं के माध्यम से देखने की जरुरत है।
अमृता प्रीतम मूलतः पंजाबी भाषा की लेखिका हैं लेकिन उनकी रचनाएं इतनी प्रभावशाली और जीवन के नजदीक हैं कि देश-दुनिया के लगभग 34 भाषाओं में इनका अनुवाद हो चुका है। एक बात ध्यान रखनी होगी कि उन्होंने मूलतः पंजाबी में लिखते हुए भी हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, बल्गारियन सहित विभिन्न भाषाओं में अनुवाद तथा मौलिक लेखन भी किया है।
अमृता प्रीतम पंजाबी में एक कवयित्री के तौर पर ही ज्यादा चर्चित रही हैं। यही कारण है कि अमृता प्रीतम पर बात करते हुए उनकी कविताओं को केंद्र मे रखा जाता है। दूसरी बात उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ को उनके व्यक्तित्व के मूल्यांकन का आधार बनाया जाता है। ‘रसीदी टिकट’ की चर्चा मूलतः उनके बेबाकपन, साहस और किसी चीज को न छिपाने की हिम्मत के कारण होती है। उनके कोमल अंतर्मन और लेखन में बेबाकी को समझने के लिए उनकी कविताओं और आत्मकथाओं दोनों पर बात करनी जरुरी है।
उनके जीवन के सहयात्री, जिसे उन्होंने खुद समर्पण के सहयात्री कहा, इमरोज उनके जीवन का दस्तावेज का लेखा-जोखा ‘मेरी हमदम मेरी दोस्त, पुस्तक में रखते हुए उनके व्यक्तित्व के बारे में बताते हैं- “अमृता का व्यक्तित्व दो भागों में विभक्त है। दिन में वह निडर, खुदमुखत्यार और बेफिक्र है, पर रात होते ही उनका व्यक्तितव सिमट जाता है। वह एक सामान्य स्त्री की भांति कमजोर, डरपोक और मोहताज बन जाता है।” यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है लेकिन उनके जीवन संघर्ष, जीवनानुभव, अंतर्दृष्टि, लेखन में सामाजिक एंव व्यक्ति यथार्थ तथा नजरिए को समझने के लिए उनके उपन्यासों की ओर रुख करना जरुरी हो जाता है।
अमृता प्रीतम के उपन्यासों में उनके जीवन का दुख-दर्द, संघर्ष, विभाजन की त्रासदी, भोगे हुए यथार्थ, समकालीन साहित्यकारों से मिली तिक्ता का इतिहास है। उन्होंने अप्ने जीवन में अकेलापन और विभाजन की मार झेली थी, उसी जीवनानुभव ने उन्हें एक अंतर्दृष्टि दी जो उन्हें इस मुकाम पर ले आती है। उनेक जीवन की वेदना ने उन्हें जो यातना दी वही से वह द्रष्टा हो सकीं। उनेक साहित्य में एक साहित्यकार नहीं बल्कि उनका युग बोलता है। हम कह सकते हैं कि उनका लेखन छाती के दर्द की आग है और इस आग की परछाई नहीं है।
उनके लेखन में एक पीड़ा है, ऐसी पीड़ा जो पाठकों को भीतर तक छू जाती है। उनके कथा पात्रों का आत्मसंघर्ष करना, समाज की कुरीतियों के खिलाफ लड़ना, आत्मसम्मान की रक्षा के संघर्ष करना, परिस्थितियों से समझौता न करने की जिद्द आदि पाठकों को अंदर कहीं छू जाती है और मन को झकझोर देती है।
अमृता प्रीतम की डायरी, उनकी आत्मकथा तथा विभिन्न समय दिए गए साक्षात्कारों के अध्ययन और विश्लेषण के साथ-साथ ‘एक थी अनीता’ उर्फ ‘अनीता’. ‘दिल्ली की गलियाँ’, उर्फ ‘कामिनी’ ‘चक न० छत्ती’ उर्फ नागमणि उपन्यास की नायिकाओं क्रमशः अनीता, कामिनी, अलका के व्यक्तित्व, जीवन संघर्ष को सामने रख कर देखने से अमृता प्रीतम के जीवन और व्यक्तित्व को समझने में मदद मिल सकती है।
‘अनीता’ उपन्यास की की नायिका अनीता की जिंदगी अमृता प्रीतम की ही जिंदगी का हिस्सा है, हाँ उसमें थोड़ी सी कल्पना और फेंटेसी जरुर है। अनीता, रामपाल सचदेव, सागर, इकबाल जो उपन्यास के पात्र हैं वे अमृता प्रीतम के असल जिंदगी में क्रमशः अमृता जी खुद, उनेक पति प्रीतम सिंह क्वात्रा, साहिर लुधियानवी जिनसे वे बेइंतहा प्यार करती थी और इमरोज जो उनके जीवन के सहयात्री बने, के प्रतीक हैं। इस उपन्यास में वर्णित घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि भी अमृता जी के जीवन से जुड़ी हैं, जिनका उल्लेख उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’, ‘अक्षरों के साये’ (आत्मकथा), डायरी, साक्षात्कारों में बार-बार आया है।
अनीता जो अमृता जी का ही अक्स है वह सागर से ठीक वैसे और उतना ही प्रेम करती है जैसे अमृता जी साहिर लुधियानवी से करती थी। यद्यपि दोनों ने ही जीवन के एक मोड़ में क्रमशः इकबाल और इमरोज को सहयात्री के तौर पर चुना। अनीता और अमृता जी का क्रमशः सागर और साहिर से एकनिष्ठ प्रेम था, लेकिन जीवन की जरुरतों को अस्वीकार भी तो नहीं किया जा सकता है। दोनों ने ही क्रमशः इकबाल और इमरोज में सागर और साहिर को ढ़ूढ़ लिया। अनीता इकबाल की साथ जाने से पहले सागर के नाम एक पत्र लिखती है।
यद्यपि वह इस पत्र को कभी डालती नही हैं क्योंकि इससे सागर को दुख होगा। जिससे प्रेम किया हो उसे तकलीफ कैसे पहुँचाया जा सकता है। इस पत्र में वह लिखती है- “दुनिया के किसी भी आदमी के लिए यह समझना कठिन होगा कि मैं तुम्हें भी प्यार करती हूँ और इकबाल को भी प्यार करती हूँ। पर मुझे इसकी समझ यूँ आती है जैसे तुम्हारी मुहब्बत कोई आकाश जैसी वस्तु हो जिसके अस्तित्व को कोई नकार नहीं सकता, पर जिसके बसने के लिए ईंटों और मिट्टी का कोई घर बनाना पड़ता है।
इकबाल की मुहब्बत उस घर की तरह जिसकी दीवारों से मुझे आश्रय की आवश्यकता है। एक घर की आवश्यकता को कोई भी इंकार नहीं कर सकता और इस बात को भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि आकाश सर्वव्यापी होता है, घर के बाहर भी और घर के अंदर भी।” अनीता का यह पत्र सागर के लिए होते हुए भी वास्तव में यह पत्र अमृता जी की तरफ से साहिर लुधियावनी के लिए था, जिससे उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं।
‘दिल्ली की गलियाँ’ उर्फ ‘कामिनी’ उपन्यास की नायिका कामिनी भी अमृता प्रीतम के व्यक्तितव का ही एक हिस्सा है। वह अपने जीवन में स्वतंत्रता चाहती है, नीजि जिंदगी में दखलअंदाजी से उसे काफी चिढ़ है। लेकिन उसके समकालीन साहित्यकारों ने उन्हें तरह-तरह से बदनाम करने की कोशिश की लेकिन उनके झूठ का सिक्का कहीं चल नहीं सका। अमृता प्रीतम इस संदर्भ में कहती हैं- “मेरे समकालीन बहुत से हैं, जो मुझे जितना दुख दे सकते हैं, देते हैं। मुझे हैरानी भी हुई, तकलीफ भी हुई। इस सब कुछ से उदासीन होने में बहुत समय लग गया।”
इसी उपन्यास में अमृता प्रीतम ने देश की हालत, शिक्षा व्यवस्था, परिवार में टूट, नैतिक पतन जैसे गम्भीर प्रश्नों को भी उठाती हैं। देश कोआजादी मिले कुछ ही वर्ष हुए कि देश में लालफीताशाही, भ्रष्टाचार बढ़ने लगा है। कामिनी से एक सरदार जी जो आजादी की लड़ाई में आजाद हिंद फौज का हिस्सा था, देश की हालत और व्यवस्था के बारे में कहता है। वह बताता है कि कैसे आजादी की लड़ाई के समय उन्हें देश का भविष्य कहा जाता था और आज आजादी के बाद उनेक हाथ क्या लगा- सिर्फ नारे। वही आगे एक बच्चा अंधे भिखारी की कटोरी से रोटी चोरी करते पकड़ा जाता है तो वह कामिनी को बताता है कि कैसे उसकी सौतेली माँ उसे खाना नहीं देती, पिता पढ़ाई का खर्च नहीं देता।
कामिनी उस बच्चे को खाने के लिए पाँच रूपयें देती है। वह बच्चा एक रूपये का खाना खा कर बाकी के चार रूपये कामिनी को लौटा देता है। कामिनी इस पूरे घटनाक्रम के बारे मे सोचते हुए ऐसे सामाजिक प्रश्न उठाती है कि जिनके उत्तर आज भी हमारे लिए मुश्किल ही नहीं बल्कि बिना समाधान के रह जाते हैं- “पाँच मिनट पहले कामिनी को ख्याल आया कि वह बच्चे को किसी बालक सुधार स्कूल का पता लिख कर दे दे और अगर उसका बाप उसे वहाँ छोड़ना मान जाए, तो वहाँ वह दाखिल हो जाए।
पर साथ ही ख्याल आया था कि उस स्कूल में सिर्फ वे बच्चे दाखिल लिए जाते थे, जिनके माँ-बाप नहीं होते। इसलिए इस बच्चे को वहाँ दाखिला नहीं मिल सकता था। पर कामिनी को लगा कि वास्तव में इस बच्चे को किसी ‘सुधार-स्कूल’ में दाखिल होने की जरुरत नहीं थी- इसकी जरुरत तो उसके माँ-बाप को थी। पर किसी माँ-बाप के लिए कोई सुधार-स्कूल नहीं बना था।”
अमृता जी ने देश के युवाओं के बीच बढ़ रहे नैतिक पतन पर चिंता जाहिर की है। जिस तरह बेरोजगारी के साथ-साथ देश में लालफीताशाही, नौकरशाही, भ्रष्ट तंत्र बढ़ रहा है, युवाओं में घुटन, कुंठा, बैचेनी, स्वार्थ भी बढ़ता जा रहा है। अमृता जी कहती हैं- युवा वर्ग के सामने आज जिंदगी नहीं है। वह जहाँ जाते हैं, वहाँ की रिश्वतखोरी, लालफीताशाही में ढ़ल जाना चाहते हैं। डरते है कि अगर उसमें ढ़ले नहीं तो शायद टूट जाएंगे। जब वे पाते है कि समाज में कोई आदर्श नही है, तो उनके अपने आदर्श भी चकनाचूर हो जाते हैं। वैसे भी जब तक बड़ों में आदर्श न हो, यानी माँ-बाप में न हो, गुरुओं में न हो, सियासत के नेताओं में न हो, पूरे माहौल में न हो, तो बच्चों में कैसे आ जाएंगे?”
अमृता प्रीतम के उपन्यासों में कई ऐसे पात्र हैं जो सामाजिक जीवन में स्त्री उत्पीड़न का अक्स दिखाते हैं। ‘नागमणि’ की अलका, ‘नीना’ उर्फ ‘घोषला’ की नीना, ‘कैली’ उर्फ ‘रग का पत्ता’ की कैली, ‘कम्मी’ उर्फ ‘बंद दरवाजा’ की की कम्मी जैसे पात्रों के द्वारा अमृता जी ने स्त्री जीवन के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया है। स्त्री जीवन की पीड़ा, उसके शोषण, दमन और उसके विरुद्ध स्त्री चेतना के संदर्भ में उनका उपन्यास ‘उनके हस्ताक्षर’ मील का पत्थर है। इस उपन्यास में सात स्त्री पात्रों तथा हवा और जिंदगी के माध्यम से पूरी दुनिया के, विशेषकर भारत की स्त्रियों के दुख-दर्द की केवल कहानी ही नहीं बल्कि उसके कारणों का भी बारीकी के साथ विश्लेषण किया गया है। स्त्री की जिंदगी उसकी खुद की नहीं है, वह तो सामाजिक, धार्मिक, नैतिक बंदिशों के बीच केवल एक गुलाम है। अमृता प्रीतम ‘उनके हस्ताक्षर’ उपन्यास में हवा और जिंदगी के बीच वार्तालाप में दिखाती है- ”यह परंपरा के दीवारें हैं – कुल की परंपरा, समाज की परंपरा, धर्म की परंपरा।’’
क्या बातें करती हो हवा! यह बीसवीं सदी है। जिंदगी ने जरा तीखी आवाज में कहा। हवा उसी तरह सहज थी, शांत थी, कहने लगी- सदिया तो घर के बाहर से निकल जाती है प्रिय।’’
एक स्त्री मां, बेटी, बहन, बहू कई विभिन्न भूमिकाओं में होते हुए भी जिंदगी का असली अर्थ नहीं जानती। वह यह नहीं जानती कि वह पूरे परिवार, समाज, देश- दुनिया को जिंदगी दे रही है। लेकिन वास्तव में जिंदगी क्या है? आजादी क्या है, उसे नहीं पता? उसे यह नहीं पता कि परिवार, समाज के बाहर भी उसका अपना अस्तित्व है। उसके अपने सपने हैं। उसे तो बस इस परिवार, कुल मर्यादा, समाज की थोथी नैतिकता के पाटों के बीच पिसते जाना है। उसे जीवन में आत्मसम्मान, प्रेम, सुख नाम की चीज नहीं मिली और जब जिंदगी उसे सौगात देना चाहती है तो वह कतराने लगती है। अंत में जिंदगी को एक ऐसी स्त्री मिल जाती है जो ना केवल उसे पहचानती है बल्कि उसका स्वागत भी करती है- ”हवा ने जिंदगी की ओर हाथ किया और दहलीज में खड़ी औरत से पूछने लगी- जानती हो यह कौन है?
औरत मुस्कुरा दी, कहने लगी- ”सदियों से जानती हूं।” हवा कुछ हैरान हुई, कहने लगी – कोई पहचानता नहीं इसे फिर तुम कैसे पहचानती हो?’’
औरत सहज मन थी, कहने लगी- “जिसके ख्यालों में सदियां गुजार दी, उसे पहचानूंगी नहीं।’’
यह उल्का है, अमृता प्रीतम का अंतर्मन जो लगातार जिंदगी, आजादी, आत्म- सम्मान के लिए सामंती पितृसत्तात्मक सत्ता के विरुद्ध लड़ रहा है।
अमृता प्रीतम के बहुचर्चित उपन्यास ‘पिंजर’ पर थोड़ी चर्चा करना चाहूंगा। अक्सर इस उपन्यास की चर्चा सांप्रदायिकता और भारत पाकिस्तान विभाजन के संदर्भ में की जाती है। कुछ हद तक तो यह सही है लेकिन इस उपन्यास की केंद्रीय विषय वस्तु मेरे विचार से स्त्री के पुरुष मानसिकता और सामंती सोच की है। जहां स्त्री केवल एक उपभोग की वस्तु है, संपत्ति है। इस उपन्यास का आरंभ देश विभाजन के लगभग 12 वर्ष पूर्व सन् 1935 ई. में होता है। वहां सांप्रदायिकता की मनोवृत्ति तो है लेकिन उपन्यास की कथावस्तु जिस पूरो के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है उसका अपहरण केवल सांप्रदायिकता के कारण नहीं बल्कि पुश्तैनी दुश्मनी के कारण होता है।
पूरो जैसी स्त्री की यह गाथा कोई नई गाथा नहीं है बल्कि सदियों पुरानी है इसलिए यह लोक कथा है जिसका उल्लेख अमृता प्रीतम ‘पिंजर’ उपन्यास में करती है – “शेर तो सिर्फ फाड़कर खा जाता है, कहते हैं कि अगर किसी रीछ को कोई औरत अकेली मिल जाए तो वह उसे मारता नहीं उठा कर ले जाता है। अपनी गुफा में ले जाकर उसको अपनी स्त्री बना लेता है।” रशीद पूरो की जिंदगी में एक पुरुष की तरह आता है और उसका अपहरण कर ले कर चला जाता है। स्त्री की हत्या एक दर्द भरी घटना है इसमें उसकी हत्या निर्ममता के साथ एक ही बार होती है लेकिन कोई स्त्री को उठाकर ले जाता है उसके सम्मान की हत्या होती है तो यह दर्द की जगह दर्दनाक बन जाती है और उसे तिल- तिल कर बार-बार मरना पड़ता है।
स्त्री के दर्द के दूसरे प्रसंग जैसे एक बच्ची कम्मो, नवविवाहिता तारों, पगली आदि भी पिंजर में मौजूद है। पगली के प्रसंग में सामंती समाज व्यवस्था पुरुष प्रधान समाज बलात्कार पीड़ित पगली को गांव से बाहर कर साबित करता है कि वह न्याय करना नहीं जानता बल्कि अत्याचारी तथा दोषी को बचाने के लिए पूरी व्यवस्था की ताकत को झोंक देता है।
स्त्री उत्पीड़न की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट कर देना उचित है कि उनके उपन्यासों में स्त्री ही केंद्रीय पात्र रहे हैं। लेकिन उनके साथ कोई न कोई पुरुष अवश्य उसके कंधे से कंधा मिलाता है, सहयोग करता है। उनका लेखन स्त्रीवादी लेखिकाओं की तरह एक पक्षीय नहीं बल्कि सामाजिक यथार्थ को उजागर करता है। वे अपने लेखन के बारे में कहती है कि उनका लेखन समाज की काली जुबानों, साजिशों, घर की कोठरियों, बाजारों के चौबारों, जंग के मैदानों, मंदिरों में बलि दिए जा रहे इंसानों आदि खोए हुए दास्तानों की गवाही देती है। उनके शब्दों में– “मैं अपने खून के एक- एक कतरे से एक एक अक्षर गढ़ती रही और वही मेरा एक एक अक्षर इस दुनिया की सूली पर चढ़ता रहा। मैंने इस जन्म की लाज रख ली- आंख में आंसू नहीं आने दिया।”
जहां तक अमृता प्रीतम और स्त्रीवाद का सवाल है इमरोज इस बारे में लिखते हैं -“मौजूदा समय में या उससे पहले के दौर में स्त्रीवादी साहित्य या अन्य वादों में वह शामिल नहीं होती थी। वह वादी नहीं थी, न किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ी थी। वह इन सब से स्वतंत्र होकर रहना व लिखना चाहती थी। जहां तक उसके साहित्य का सवाल है मेरी नजर में वह खूबसूरत और पसंदीदा है। अगर वह अच्छी नहीं लिखती, तो पसंद क्यों की जाती है? लोगों ने उनके लेखन को पसंद किया तभी वह लोकप्रिय लेखिका बनी।’’
यही कारण है कि अमृता प्रीतम के उपन्यासों के पुरुष पात्र भी स्त्री पात्रों के समान ही जिंदगी से संघर्ष, सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध डटकर मुकाबला करते नजर आते हैं। ‘पिंजर’ का रशीद, ‘आक के पत्ते’ का कथावाचक, ‘तेरहवाँ सूरज’ और ‘उनचास दिन’ का संजय, करीम ‘कोरे कागज’ का पंकज, निधि महाराज, ‘कैली’ का बख्शा, दीपक, ‘नीना’ का तेज, ‘डॉ देव’ का डॉ देवराज जैसे बहुत से पात्र हैं जो स्त्री के समान सामाजिक जीवन सहित आत्मसंघर्ष करते हुए नजर आते हैं।
जहाँ तक एक लेखक के संघर्ष और उसकी अंतर्दृष्टि का सवाल है, संजय अमृता प्रीतम का प्रतिनिधि पात्र है। संजय का संघर्ष खुद अमृता जी का ही है। संजय के माध्यम से लेखकीय समस्या, प्रकाशक की तिक्कड़म, एवार्ड़ पाने के लिए किए जाने वाले भ्रष्टाचार आदि का यथार्थ चित्रण ‘तेरहवाँ सूरज’ और ‘उनचास दिन’ उपन्यास में मौजूद है।
आज हम साम्प्रदायिकता से लेकर नैतिकता के पतन, भ्रष्टाचार, स्त्री उत्पीड़न, बेरोजगारी, शोषण, रोटी की समस्या, नौकरशाही, निराशा, लूट-खसोट, ईर्ष्या, स्वार्थ, घृणा, हत्या, मानवीय रिश्तों, परिवार के टूटने, अविश्वास के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे समय में अमृता प्रीतम की प्रासांगिकता और भी बढ़ जाती है। उन्होंने 16 मार्च 1985 में एक सम्मेलन में ‘आज के हालात’ पर विचार रखते हुए कहा- “मैं सोचती हूँ, आज हमारे देश के जो हालात हैं, उस अंधेरे में, फिरकापरस्ती के अंधेरे में, हमें अपनी-अपनी आत्मा की आग से अपने-अपने चिराग रोशन करना होगा… कि इन चिरागों से:
हमें चिंतन की रोशनी दिखाई दे!
मोहब्बत की रोशनी दिखाई दे!
इंसानियत की रोशनी दिखाई दे!”
अमृता प्रीतम उस मंजर को देखकर तड़पा उठती है जब कोई रोटी के लिए खून-पसीना एक करता है और कोई उसे ठग लेता है। ‘जलावतन’ उपन्यास के इन पंक्तियों में उस संवेदना को महसूस किया जा सकता है- “खून शायद इंसान की जिंदगी की एकमात्र सच्चाई है। किसी भी इंसान ने जो अपनी सही जीवनी लिखनी हो तो, उसको चाहिए कि खाली कागजों पर खून छिड़क दे-
खून से भींगे वरकों में साफ पढ़ा जा सकता है कि यह खून रोटी की फिकर में किस तरह सूखता रहा था। यह खून-पसीने की शकल में किस तरह सहमता रहा था और यह खून जंग की मैदान में किस तरह बहता रहा था… और या नसों में बेकार घूमता रहा था…”
अमृता जी ने अपने साहित्य में बार-बार इंसान की तड़पती आत्मा, उसके दुख-वेदना आदि को जगह दी है। वे बार-बार दुआ करती हैं कि इंसान की इंसानियत लौट आए। उनकी चिंतन में इंसान के जरुरी, महत्वपूर्ण मसलों को संवेदना के धरातल पर जगह मिली है। ‘समाज कल्याण’ की तरफ से स्पोंसर्ड एक रेडियों प्रोग्राम के दौरान उन्होंने कहा भी है- “यह रोटी, हिफाजत, इलम और रोजगार हम कितने बच्चों को दे सकते हैं? यह हमे खुद सोचना होगा।”
अमृता प्रीतम के उपन्यास में आजादी के बाद युवाओं के स्वप्न भंग, बेरोजगारी से उत्पना हताशा, उससे पैदा हुई घृणा, निराशा को भी उभारा गया है। वास्तव में हर युवा पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से विरासत में कुछ प्राप्त करता है, लेकिन आजादी की लड़ाई के बाद युवा पीढ़ी को अपनी पुरानी पीढ़ी से भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, ईर्ष्या, स्वार्थ, घृणा, हत्या की मनोवृत्ति विरासत में मिली जो आज अपने चरम पर पहुँच गई है। मानवीय रिश्तों के टूटने-बिखरने से लेकर आपसी सहयोग, प्रेमभाव, भाई-चारे की जगह स्वकेंद्रिअत मानसिकता को बढ़ावा मिला। इस तरह मानवता को गहरी ठेस लगी।
अमृता प्रीतम हमेशा से इंसानी रिश्तों और इसके जज्बातों की कद्र की है। उन्होंने 1947 के साथ-साथ 1984 का सिख-हिंदू दंगा भी देखा था जो आजाद भारत के इतिहास के स्याह पन्नों में दर्ज है। इस दौर में उन्होंने नकारात्मक शक्तियों से अधिक सकारात्मक शक्तियों के कार्यों की सराहना की। वे कहती हैं- “इंसानियत के ये खूबसूरत पहलू भी मैंने देखे हुए हैं।
यह भी 1947 जैसा ही एक दौर था कि 1984 में अपने ही लोगों ने आग लगाई और यह भी हुआ कि अपने ही लोगों ने अपनी जान पर खेलकर दूसरों की जान बचाई। पर मेरी सबसे बड़ी उम्मीद थी कि हिंदुस्तान को आजादी मिल जाएगी, तब हमारी सामूहिक चेतना बड़ी पॉजीटिव हो जाएगी। लेकिन आजादी के बाद जो मौके सामने आएं उन्होंने मौकापरस्ती को जन्म दिया।
अमृता प्रीतम का लेखन देश की स्वतंत्रता के साथ-साथ व्यक्ति स्वतंत्रता की भी वकालत करती है। ‘और फूल मुरझा गए’ नामक एक लेख में उन्होंने स्वतंत्रता क्या है और इसके मायने क्या है? पर विचार करते हुए बहुत ही बारीकी से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं जिनके उत्तर की तलाश है। इन अनुत्तरित प्रश्नों के पीछे के कारणों का उल्लेख करते हुए वे लिखती हैं- “हम सब जानते है कि स्वतंत्रता की आत्मा ने हमसे जितने भी सवाल किए पूछे, हमने किसी का जवाब नहीं दिया। हम जल्दी से कुछ भोग लेना चाहते थे। जिसको जितना मौका मिला, किसी भी अधिकार से या किसी भी पदवी से, उसने उतना ही ज्यादा भोग लेना चाहा और जिसको नहीं मिला, उसने किसी भी तरह अधिकार को, सत्ता को माँग लेना चाहा, छीन लेना चाहा, लूट लेना चाहा… और आज – हम सभी मूर्छित अवस्था में जी रहे हैं…”
अमृता जी का लेखन वास्तव में उनके ही समय का नहीं बल्कि आज के समय का भी सच है। वे सिर्फ सामाजिक यथार्थ का चित्रण करके या नकारात्मकता को ही उजागर करके रूक नहीं जाती बल्कि वे हम सबसे अपील करती हैं समस्त बुराइयों को उखाड़ फेकने की। वे अपील करती हैं धर्म, जाति, समुदाय, हर तरह के भेद-भाव से ऊपर उठकर इंसानी रिश्तों को मजबूत करने की। उनकी अपील है-
“ये खून – जो इंसान के हाथों से बहते जा रहे
ये जो जख्म – जो इंसान के हाथों पर लगते जा रहे
ये वही प्यारे हाथ हैं – जो फूल को बो सकते हैं।
X X X
इस कलम में –
अमन की स्याही भरो! दस्तखत करो!
यह अमन का अहदनामा
आओ दुनिया वालो। दस्तखत करो।”
डॉ. विकास कुमार साव
प्राध्यापक, सेंट कैथेड्रल मिशन कॉलेज, कोलकाता