“जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।”
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा : सांस्कृतिक तत्वों से समन्वित कर हिंदी साहित्य के नवजागरण को राष्ट्रीय काव्यधारा में परिणत कर उसमें भारतीय सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीयता का उद्गायन करके उसे एक व्यापक परिपार्श्व, उच्च क्षितिज और उच्चादर्श की भूमि प्रदान कर हिंदी साहित्य को वर्तमान बुलंदियों तक पहुँचाने में जिस साधक कवि ने सर्वाधिक बल, प्रचार और प्रसार किया, वह हैं, महान राष्ट्रकवि ‘मैथिलीशरण गुप्त’I आज उनकी 135 वीं पावन जयंती तिथि पर हम उन्हें हार्दिक सादर नमन करते हैंI
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म मध्य प्रदेश के चिरगाँव (झाँसी) में 3 अगस्त 1886 को हुआ था। पिता रामचरण और माता काशी देवी की ये तीसरी संतान थे। इनके पिता रामचन्द्र गुप्त एक निष्ठावान रामभक्त थे और ‘कनकलता’ उपनाम से भक्ति-भाव की कविता लिखा करते थेI वे महाराजा ओरछा द्वारा सम्मानित व्यक्तियों में से एक थे। अपने पिता से ही प्रेरित होकर मैथिलीशरण भी अपनी तरुणाई में ही ब्रज भाषा में कविता सृजन करने लगे थे।
बाद में साहित्यिक युग-प्रवर्तक आचार्य पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की सानिध्यता में ही मैथिलीशरण की काव्य-प्रतिभा का समुचित विकास हुआI मैथिलीशरण गुप्त आचार्य पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपना काव्य-गुरु मानते थेI फिर उनकी प्रेरणा से ही इन्होने अपनी कविताओं में खड़ी बोली को अपना कर उसे एक नवीन काव्य-भाषा के रूप में निर्मित कियाI फलतः कविताओं में खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का मूल श्रेय राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को ही जाता हैI
अतः अपनी ‘साकेत’ कृति के आरम्भ में ही गुरु वन्दना स्वरूप आचार्य ‘द्विवेदी जी’ की के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करते हुए कहा है – “करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद, महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसादI”
मैथिलीशरण गुप्त मूलतः बहिर्मुख काव्य-सर्जक थेI गुप्त जी की रचनाओं में राष्ट्रप्रेम, एकता, प्रेम-सौहार्द्र और त्याग के विविध स्वरूप सर्वत्र ही दिखाई देते हैं। ‘रंग में भंग’ इनकी प्रथम प्रकाशित मौलिक रचना है, जिसमें कवि ने बूंदी और चितौड़ नरेशों के माध्यम से बताया है कि व्यर्थ की मान-अपमान की भावनाएँ निज और राष्ट्र के विनाश के कारण बनकर सर्वप्रगति के मार्ग को बाधित कर देती हैI
फिर ‘जयद्रथ वध’ इनकी दूसरी खंड काव्य-कृति है, जिसमें वीर और करुणा रस का संचयन हैI
‘साकेत’ कविवर ‘गुप्त’ जी की सर्वाधिक सफल कृति है, जिसमें कवि ने अपने काव्य-गुरु आचार्य पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से रामकथा की ‘उर्मिला’ और ‘कैकयी’ जैसे उपेक्षित पात्रों को काव्यमय उद्धार किया हैI
इसमें वास्तव में कवि और उनके पात्रों की अंतरात्मा काव्य सलिला के रूप में प्रवाहित होने लगी हैंI
‘युग-युग तक सुनता रहे जीव यह मेरा, धिक्कार! उसे था महा स्वार्थ ने घेराI’ ‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई, जिस जननी ने जना है भारत-सा भाईI’
इसी तरह से ‘यशोधरा’ एक चम्पूकाव्य होते हुए भी भाव-प्रवणता, रागात्मकता और शिल्प-विधान के साथ ही वात्सल्य, करुण और शांत रस के उचित परिपाक के आधार पर ‘साकेत’ के सामान ही एक प्रसिद्ध रचना हैI इसमें गौतम बुद्ध की पत्नी ‘यशोधरा’ के विरह-दुःख से संवलित काव्य-गाथा है।
‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी! आँचल में दूध और आँखों में है पानीI’ ‘साकेत’ के ही समकक्ष ही ‘जय भारत’ ‘गुप्त’ जी की एक विशालकाय महाकाव्य है, जिसका सृजनाधार ‘महाभारत कथा’ हैI इसके 47 खंड हैंI सांस्कृतिक दृष्टि से इस महाकाव्य का विशेष महत्व हैI यही कृति ने साहित्य के क्षेत्र में प्रथम बार मैथिलीशरण गुप्त जी को एक प्रतिष्ठित कवि के रूप में मान्यता प्रदान करवाईI
इसी काव्य-कृति में उल्लेखित राष्ट्रीयता से भाव-विभोर होकर ही सन् 1916 में ही महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्र-पुरुष ने इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से विभूषित कर दियाI जिसे भारत के स्वतंत्र होने के बाद प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने इनकी राष्ट्रीय चेतना से समन्वित काव्य-कृतियों के आधार पर सरकारी तौर पर “राष्ट्रकवि” के मानक पद को उन्हें प्रदान कियाI
इसके बाद तो फिर काव्य-कृतियों की एक-एक कर अम्बार-सी लग गईI
“मनुज-मानस में तरंगित बहु विचारस्रोत, एक आश्रय, राम के पुण्याचरण का पोत।
नमो नारायण, नमो नर-प्रवर पौरुष-केतु, नमो भारति देवि, वन्दे व्यास, जय के हेतु!”
मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपने साहित्य-सृजन के 59 वर्षों में हिंदी को लगभग 74 विविध रचनाएँ दी, जिनमें दो महाकाव्य,17 गीतिकाव्य, 20 खंड काव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य शामिल हैं। जिनमें रंग में भंग, साकेत, जयद्रथ-वध, भारत-भारती, पंचवटी, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्घ्य, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत,
पत्रावली, स्वदेश संगीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल, जय भारत, झंकार, पृथ्वीपुत्र, मेघनाद वध, राजा-प्रजा, वन वैभव, विकट भट, विरहिणी व्रजांगना, वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री, हिडिम्बा, हिन्दू, मेघनाथ वध, वीरांगना, स्वप्न वासवदत्ता, रत्नावली आदि विशेष उल्लेखनीय हैंI
वर्णन-वैविध्य, विषय-वैविध आदि रहते हुए भी वे सभी काव्य-कृतियाँ कवि की सामाजिक, राष्ट्रीय, सांस्कृतिक भावनाओं को ही मानवीय धरातल पर पुनर्स्थापित करती हैंI मैथिलीशरण गुप्त जी अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहेI वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थेI परन्तु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शो में उनका विश्वास नहीं थाI वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थेI
उन्होंने भारत के इतिहास और राष्ट्रीयता के गौरव का बखान तो किया है, लेकिन साथ ही साथ समाज में फैली तमाम कुरीतियों पर प्रहार किया हैI समाज में पतित-दलितों से वे प्रेम भाव रखते थेI सब प्रकार की प्रतिगामी जात-पात, छुआछूत सम्बन्धित विचाधारा के विरोधी थेI उपेक्षितों को वे यथोचित स्थान दिलाने के वे समर्थक थे।
“तुम हो सहोदर सुरसरि के, चरित जिसके हैI”
मैथिलीशरण गुप्त जी को कला और साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाले के लिए 1952 में राज्यसभा सदस्यता दी गई और 1954 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गयाI इसके अतिरिक्त उन्हें ‘हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार’, साकेत पर इन्हें ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ तथा ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से भी अलंकृत किया गयाI काशी विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट्. की उपाधि प्रदान कीI
अंतिम दिनों में मैथिलीशरण गुप्त जी कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे थे, लेकिन वे अपने साहित्य-कर्म से कभी विमुख न हुएI इस प्रकार कर्ममय जीवन व्यतीत करते हुए 12 दिसंबर, 1964 को चिरगांव में ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का देहावसान हो गयाI हिंदी साहित्य ने अपने एक महान साहित्यकार को खो दियाI परन्तु गुप्त जी अपनी बेमिसाल रचनाओं के माध्यम से आज भी हम साहित्य-प्रेमियों के दिलों में अमरत्व को प्राप्त किये हुए हैं
मैथिलीशरण गुप्त ने काव्य को सोद्देश्य रचना और साधना स्वीकार किया हैI इसी राष्ट्रीय-हित-साधना की सोद्देश्यता में वे आजीवन अग्रसर रहेंI हलाकि वे तो स्वयं साधना कर रहे थे, पर वास्तव में उनकी साधना से ही हिन्दी अपने साहित्य-भंडार अपने आप को समृद्ध कर रहा था, जिससे हिन्दी साहित्य-प्रेमी अपने मार्ग को प्रशस्त कर सकेंI