कोरोना काल में अपने आप को कर्तव्य की बलिवेदी पर अर्पण करने वाले वीर योद्धा की मार्मिक तथा प्रेरणादायक कहानी “कर्म पुजारी का महागमन” आप विद्वजनों के अवलोकानार्थ प्रस्तुत हैI
दिशाओं तुम भले ही फूल बरसाओ, पर आँसू तो हम बहायेंगेI
तुम साक्षी रहना उसके कर्म का, उसे देवता तो हम बनायेंगे II
अपने चिकित्सा कालेज के भव्य सभागार की अग्रीम पंक्ति के लगभग मध्य की सिट पर मैं बैठा हूँ, जहाँ से सब कुछ स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा हैI अन्य सीटों पर हमारे इस चिकित्सा कॉलेज के अन्य चिकित्सकगण और मेरे पीछे की पंक्ति की सीटों पर नर्स तथा सेवादार हैंI उसके बाद की सीटों पर अनगिनत प्रशिक्षु चिकित्सकगण मौजूद हैंI पर कभी अट्टहासों से सर्वदा गूंजित रहने वाले इस सभागार को आज एक गम्भीर सन्नाटा ने जबरन अपने आगोस में किये हुए हैI हमारे इस चिकित्सा कॉलेज के प्रबन्धन समिति के विशिष्ट सदस्यगण, मुख्य चिकित्सक प्रिंसिपल, राज्य के स्वास्थ्य मंत्री, चिकित्सा विभाग के सचिव आदि मंचासीन हैंI
उनके पीछे ही एक विराट चित्र-फलक है, जिस पर लिखा हुआ है, – “कर्तव्यपरायणता के अद्भुत व्यक्तित्व स्वर्गीय डॉo कृष्णकांत अग्निहोत्री” और उसके नीचे ही बड़े आकार में स्वर्गीय डॉo अग्निहोत्री सर का आकर्षक चित्रI गर्दन से लटकता ‘डॉक्टरी आला’, आँखों पर चश्मा और हरे रंग के मास्क से ढका हुआ मुस्कुराते हुए अर्ध चेहरा, ऐसा लगता है, मानो कि वह उस चित्र से बाहर निकल पड़ेंगेI जी, हाँ! विगत कल ही हम सबके चहेते इस चिकित्सा कॉलेज के संस्थापक और अवैतनिक सेवक डॉ. कृष्णकांत अग्निहोत्री सर का देहावसान हो गया हैI उनके ही स्मरण में आज की यह शोक-सभा का आयोजन किया गया हैI
आज से कोई पचीस-छबीस वर्ष पूर्व मैं इसी सभागार में अपने साथियों के साथ ही वैद्य-शपथ (डॉक्टर्स ओथ) को ग्रहण किया थाI डॉ. कृष्णकांत अग्निहोत्री सर ही मेरे प्रमुख गाइड रहे थेI मैं अपने आप को बड़ा सौभाग्यशाली मानता हूँ क्योंकि डाक्टरी पढ़ाई पूर्ण होते ही मुझे उनके सानिध्य में उनकी व्यवहार कुशलता, कार्यनिष्ठता आदि को काफी करीबी से देखने, परखने और आत्मसात करने का मौका मिला हैI अस्पताल ही उनका घर-आँगन और डॉक्टर्स, नर्सें, वार्ड बॉयज तथा अन्य कर्मचारीगण यही तो उनके पारिवारिक सदस्य थाI
सबके साथ उनका बहुत ही मधुर सम्बन्ध रहा थाI इसीलिए तो आज उनकी शोक-सभा में हम सभी उपस्थित हैंI लेकिन अभी भले ही मैं शारीरिक रूप से इस सभा में उपस्थित हूँ, पर मानसिक रूप से मैं दिवंगत डॉ. अग्निहोत्री सर के साथ ही जुड़ गया हूँI पचीस वर्ष पूर्व की बातें एक बार फिर मन-मस्तिष्क में पुनर्चित्रित हो गईंI मैं इसी चिकित्सा कालेज से अपनी डॉक्टरी-शिक्षा पूर्ण कर इसी में एक डॉक्टर के रूप में नियुक्त हो गयाI
यहाँ का परिवेश और लोग मेरे लिए अनजान न थेI अतः मेरे मन में कोई असमंजस की स्थिति न थीI इस चिकित्सा कॉलेज में एक डॉक्टर के रूप में मैं प्रथम बार अपने मार्गदर्शक डॉ. कृष्णकांत अग्निहोत्री सर के चेम्बर में प्रवेश किया थाI
‘आओ सत्येन्द्र कुमार! I am sorry. I mean. Welcome डॉ. सत्येन्द्र कुमार! Now you are known by your surname ‘Doctor’. I feel very proud to get you in this medical collage as a young Doctor.’ – डॉ. अग्निहोत्री सर ने अपनी कुर्सी से खड़े होकर मुझे स्वागत करते हुए कहा थाI ‘Sit down my young fellow.’ – उन्होंने हाथ से बैठने का इशारा किया थाI तब मैं सकुचाते हुए उनके सामने की कुर्सी पर बैठ कर उनका शुक्रिया अदा किया थाI
‘My young fellow डॉ. सत्येन्द्र कुमार! मुझे बहुत प्रसन्नता है कि तुमने हमारे चिकित्सा कॉलेज को अपने कर्म-स्थल के रूप में चयनित किया हैI मैं तुम्हें अपना सहायक के रूप में नियुक्त करता हूँI अब तुम मेरे साथ ही रह कर चिकित्सा के क्षेत्र में मुझे मदद करते हुए तुम कुछ विशेष अनुभव को हासिल करोगेI’
‘Thank you, Sir. मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरे वजह से आपको कभी कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगाI’ – उस दिन भी मैं अपने आप को एक डॉक्टर नहीं, बल्कि एक आज्ञाकारी छात्र की भाँति ही उन्हें विश्वास दिलाया थाI ‘आज तुम्हें मेरे सामने एक प्रतिज्ञा लेनी पड़ेगी, फिर उससे रति भर भी नहीं टालना होगा। क्या तुम्हें मंजूर है, डॉ. सत्येन्द्र कुमार?’
‘Yes Sir, मुझे आपकी हर आज्ञा सिरोधार्य है।’
‘O.K. तो तुम इस कागज में लिखी बातों को पढ़ते हुए मेरे समक्ष अपने कार्य के प्रति शपथ लोI’- और उन्होंने एक कागज मेरी ओर बढ़ा दियाI मैंने उसे आदर सहित अपने हाथों में ग्रहण किया और फिर उनके समक्ष ही खड़े होकर अपने दाहिने हाथ को आगे बढ़ाकर उसे पढ़ना शुरू किया, – ‘मैं डॉ. सत्येन्द्र कुमार, सारे देवी-देवताओं, पवित्र अग्नि और आप जैसे विद्वजन को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अहंकार-रहित एकाग्र मन से अपनी योग्यता और परख-शक्ति के अनुसार रोगी की सेहत के लिए मुझसे जो बन पड़ेगा, उसके अनुरूप निरंतर सेवा करूँगाI
मैं अपने जीवन अथवा अपनी रोज़ी-रोटी की परवाह किये बिना सर्वदा रोगियों के हित-कार्य को ही करने का हर संभव प्रयास करूँगाI…………………… मैं किसी भी परिस्थिति में इस शपथ के विरुद्ध न जाऊँगाI यदि मैंने जान-बुझ कर कभी इस शपथ का निरादर किया तो नियमतः मैं दण्ड का भागी बनूँगा।” – तत्पश्चात आगे बढ़ा और झुक कर उनके पैरों को स्पर्श किया थाI
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‘Sir, बेड संख्या 15 के रोगी को लगातार खाँसी और उसे साँस लेने में तकलीफ हो रही है, उसके सीने में भी दर्द की भी शिकायत हैI मैं उसे ‘इनहेलर’ के साथ एंटीबायोटिक की दवाइयाँ दे रहा हूँI फिर भी उसे कोई विशेष फायदा नहीं हो रहा हैI’ – मैंने वार्ड में रोगियों को देख कर वापस चम्बर में लौट कर डॉo अग्निहोत्री सर से कहाI
‘संभव है, कि वह पेशेंट अधिक सिगरेट का सेवन करता रहा होI वह बहुत ही प्रदूषित स्थान पर रह रहा होI उस रोगी की छाती के एक्स-रे, सीटी स्कैन और ब्रोंकोस्कोपी करवा कर देखा जायI हमें उसे दमा-अस्थमा का संदेह हैI इसके लिए दवा के साथ ही किसी प्रदुषणमुक्त वातावरण बहुत ही अच्छा होता हैI’ – उन्होंने बहुत ही शांति और सरलता से बताया, जैसा कि वह हमें अक्सर ट्रेनिंग पीरियड में बताया करते थेI
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पिछले माह की ही तो बात हैI अस्पताल में कोरोनाजनित मरीजों की बढ़ती संख्या को देखते हुए हम सभी डॉक्टर्स को उन्होंने अपने बड़े से चेम्बर में बुलाकर कहा, – ‘मेरे डॉक्टर साथियों, हमारे हॉस्पिटल में भी कोरोना जनित मरीजों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही हैI ऐसे में आप सभी अपनी सुरक्षा में जरा भी कोताही नहीं बरतेंगेI बिना सुरक्षा किट पहने आप कोई भी वार्ड में न जायेंगेI हॉस्पिटल के सभी डिपार्टमेंटस को इसके लिए जरुरी निर्देश दिए गए हैंI आप सुरक्षित रहेंगे, तभी आप रोगियों की इलाज कर सकते हैंI’- फिर तो भयानक युद्ध शुरू हो गया कोरोना के खिलाफI
अस्पताल का पूरा डिपार्टमेंट ही कोरोना के खिलाफ एकजुट होकर इस जंग में शामिल हो गयाI कोरोनाजनित मरीजों की संख्या भी दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही थीI हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था, कि उसका सही इलाज क्या किया जाय? लाचारी में कुछ परम्परागत दवाइयों के आधार पर ही हम सभी कोरोनाजनित मरीजों की इलाज करते रहेंI कई सप्ताह तक किसी ने कोई छुट्टी तक न लियाI हम रात-दिन निरंतर काम में लगे रहें थेI
कोई भी स्टाफ अपने घर-परिवार से मिलने तक न गया थाI दिन-प्रतिदिन कोरोना मरीजों को तड़पते और मरते देख हम सभी भी लगभग हताश हो चले थेI एक दिन मैंने देखा कि डॉo कृष्णकांत अग्निहोत्री सर अपने चेम्बर में एकांत बैठे हुए हैं I मुझे देखते ही उन्होंने अपनी गम्भीरता को तोड़ते हुए मुझसे पूछा, -‘कहो सत्येन्द्र कैसे हो?’ – उनकी आवाज में आज मुझे भारीपन और कम्पन्न महसूस हुआI मैंने उन्हें इस रूप में कभी न देखा थाI
‘क्या बात है, सर जी? कोई विशेष परेशानीI शायद व्यक्त करने से आपका जी हल्का हो जायेगाI’ – मैंने आदर सहित सहानुभूतियुक्त कहाI ‘सत्येन्द्र! अस्पताल में निरंतर हो रही मौतों और उनके बिलखते परिजन को देख-देख कर मैं टूट चूका हूँI अस्पताल में आवश्यक सामग्री तक उपलब्ध नहीं हैI ऊपर से आदेश है कि फिलहाल उपलब्ध साधनों में ही काम चलावेंI समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूँ?’ – अपनी मानसिक पीड़ा को उन्होंने व्यक्त कियाI
‘लेकिन सर! आप और हम सभी तो अपने जी-जान से लगे हुए हैंI आखिर मरीज भी तो अपने जीवन के आखरी पलों में ही हमारे पास पहुँच रहे हैंI ऐसी परिस्थिति में हम-आप इससे अधिक और कर भी क्या सकते हैं? आप व्यथित न होवें, सरI’ – मैंने उनके प्रति पूर्ण सहानुभूति प्रगट करते हुए कहाI इस भयावह परिस्थिति में मैं तो प्रति पल उनके साथ ही रहा हूँ और उनकी हालत का पूर्ण भिज्ञ भी रहा हूँI
‘सत्येन्द्र! मेरे अधिकांश साथी डॉक्टर्स कोरोना मरीजों की देखभाल में स्वयं संक्रमित हुए हैं, पर उन्होंने अपनी जान की परवाह न कर निरंतर अपनी सेवा प्रदान कर रहे हैंI पर अफ़सोस! मैं अपने कुछ साथी डॉक्टर्स को भी बचा पाने में असमर्थ रहा हूँI सत्येन्द्र! तुम एक काम करोI तुम कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर चले जाओI अभी अस्पताल की हालत ठीक नहीं हैI मैंने बहुतों को खो दिया है, पर तुम्हें खोना नहीं चाहता हूँI तुम मेरे कुछ भी न होकर भी मेरे सब कुछ होI’ – उन्होंने बहुत ही व्यथित मन से कहाI मैं जानता हूँ कि मेरे प्रति उनका स्नेह-भाव उनसे जबरन ही यह सब कहलवा रहा हैI
‘आप यह कैसी बातें कह रहे हैं I सर! यही तो हम सब की परीक्षा की घड़ी हैI
अपने कर्तव्यों के पालन का समय हैI सर! शायद आप भूल रहे हैंI आप ने ही तो मुझे इसी चेम्बर में डॉक्टरी सेवा की शपथ दिलाई थीI भला मैं उससे कैसे मुख मोड़ सकता हूँ? नहीं सर! मेरे लिए यह कदापि सम्भव नहीं है I’ – मैं उनकी कर्तव्यनिष्ठता और त्याग के सामने अपने आप को सर्वदा पंगु-सा ही महसूस करता रहा हूँI डॉ. अग्निहोत्री सर रोगियों की देख भाल में अक्सर इतने तन्मय हो जाया करते हैं कि वह लगातार कई दिनों तक अपने घर तक न जाते हैंI इसके लिए उनके परिजन अक्सर उनसे नाराज ही रहते हैं पर, उन्होंने अपने दायित्व और कर्तव्य के समक्ष अपने परिवार की परवाह न कीI
टेबल पर रखे टेलीफोन की घंटी बज उठी I हमारी बातों का क्रम टूट गयाI टेलीफोन पर इधर से अग्निहोत्री सर की – ‘हाँ ….. हूँ…… आक्सीजन लेवल बढ़ाओ ……. मैं आता हूँ’ – की संक्षिप्त बातें सुनाई दींI उनके चहरे पर बढ़ते तनाव को देखते ही मैं समझ गया कि कोई बहुत ही इमरजेंसी केस है I अपनी कुर्सी से उठते ही उन्होंने अपने कुछ सामान लिये और मुझसे कहे, – ‘सत्येन्द्र! जल्दी चलो, कोरोना वार्ड के तीन मरीजों की हालत बहुत ही खराब हैI’ – मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दियाI वार्ड में तीनों मरीज बहुत बेचैन दिखाई दिए। हमने तुरंत ही डॉक्टरी उपकरणों की सहायता से उनके प्राण-रक्षक उपाय कियेI लेकिन उनमें से एक तो आक्सीजन भी नहीं ले पा रहा थाI थोड़ी देर में ही शांत हो गयाI वार्ड बॉयज संकेत पाकर डॉक्टरी उपकरणों को मरीज से अलग कियेI उसे चारों ओर से पर्दे से ढक दिएI अन्य दो को आक्सीजन सपोर्ट पर रखा गयाI
अगले ही दिन मुझे पता चला कि डॉ. अग्निहोत्री सर को भी साँस लेने में परेशानी हो रही हैI सही बात तो यह है कि वह स्वयं भी कोरोना पॉजिटिव हो गए थे, फिर भी आवश्यक व्यवस्था कर वह अस्पताल के मरीजों की सेवा में तल्लीन थेI चुकी हम सभी अस्पताल के स्टाफ कोरोना जनित दूरियाँ और आवश्यक व्यवस्था से परिपूर्ण ही रहा करते थेI मैं उनके पास पहुँचा, तो देखा आक्सीजन मास्क अपने नाक-मुँह पर लगाये वह अपने कार्य में लगे हुए हैंI मैंने आग्रह पूर्वक कहा, – ‘सर! आप कुछ दिनों के लिए आराम कर लेतेI मरीजों की देखभाल के लिए आखिर हम सभी डॉक्टर्स तो हैं हीI’
‘सत्येन्द्र! यही तो मुझसे नहीं हो सकता हैI मैं चाहता हूँ कि जीवन के आखरी पल तक मैं अपने कर्तव्य से च्युत न होऊँI मरीजों की सेवा से बढ़कर भला डॉक्टरों का कोई औचित्य ही क्या है? मेरे लिए तुम सब ज्यादा चिंतित न होI चलो, वार्ड की ओर चलते हैंI’ – और वह आगे बढ़े गयेI मैं भी उनके पीछे हो लियाI
‘संदीप जी! आज आप कैसा महसूस कर रहे हैंI’ – संदीप नामक मरीज के नाक-और मुँह पर आक्सीजन मास्क लगा हुआ थाI उसने इशारे से ही अपनी कुशलता को व्यक्त कियाI उन्होंने फिर कहा, – ‘एक-दो दिन और अपने पास आपको रखता हूँ, सब ठीक रहा तो आपको उसके अगले दिन रिलीज कर दूँगा। अपने परिवार से दूर अस्पताल में आप थक से गए हैंI’
डॉ. अग्निहोत्री सर की आवाज आक्सीजन मास्क के कारण भारी-भारी और बंधी हुई व्यक्त हो रही थीI मरीज संदीप ने अपने दोनों हाथों को जोड़ दियाI आगे बढ़ते हुए दूसरे मरीज के पास पहुँचे, – ‘बनवारी जी! आज तो आप बहुत ठीक लग रहें हैंI वाह! बहुत ही अच्छाI इस निराशा के वातावरण को दूर भगाने के लिए चलिए आज हम सभी एक साथ गाना गाते हैंI क्या आप सभी मेरे साथ गायेंगे?’ – पूरे वार्ड भर में ही आवाज गूँजी, – ‘यस सरI’
फिर किसी बालक की तरह ही उमंग से परिपूर्ण कुछ थिरकते हुए डॉ. अग्निहोत्री सर गाना प्रारम्भ किये, – ‘हम होंगे कामयाब……….. हम चलेंगे साथ-साथ…… हम होंगे कामयाब एक दिनI’ – फिर तो उनके साथ मैं भी और उस वार्ड के अन्य स्टाफों के साथ ही साथ धीरे-धीरे लगभग सभी मरीज हमारे साथ गाने लगेI कुछेक तो थिरकने भी लगेI उन सबके जीवन के विशेष अंग बने मौत की छाया और निराशा, प्रसन्नता की इस प्रबल शक्ति के सम्मुख क्षीण नजर आयीं और कहीं दूर जाकर छुप गईंI मैंने मन ही मन डॉo अग्निहोत्री सर के इस चमत्कारी औषधि को नमन कियाI
हम वार्ड से बाहर निकलने वाले ही थे कि देखा एक मरीज अपने बेड पर ही पड़ा-पड़ा जोर-जोर से हाँफने लगाI मैं उसके पास पहुँचाI उसे साँस लेने में तकलीफ हो रही हैI मैंने पास में लगे आक्सीजन भल्व को चेक किया, उसमें आक्सीजन प्रवाह न था I डॉo अग्निहोत्री सर भी पहुँचेI उन्होंने भी चेक कियाI प्रतिपल उस मरीज की हालत बिगड़ी जा रही हैI अस्पताल में आक्सीजन की कमी जो हो गई हैI
अचानक डॉ. अग्निहोत्री सर ने अपने मुँह से आक्सीजन मास्क तथा अपने कंधे से लटके छोटे से आक्सीजन डिब्बा को अपने से अलग किया और उस मरीज के नाक-मुँह पर लगा दियाI मैंने उन्हें रोकना चाहाI पर वह अपने अन्तः विचार पर अडिग रहे, – ‘आक्सीजन सपोर्ट पा कर यह सरवाइभ कर जायेगाI मैं अभी ठीक हूंI’
कुछ ही समय में शायद उस मरीज को पर्याप्त आक्सीजन मिलीI उसकी हालत में सुधार होने लगीI लेकिन इसके विपरीत, मैंने देखा कि डॉ. अग्निहोत्री सर की दशा खराब होती जा रही हैI अब उनकी साँसें तेज होकर चलने लगी हैI
उनकी लम्बी-लम्बी साँसों की आवाजें सुनाई देने लगींI आस-पास नजर दौड़ाई और आक्सीजन की व्यवस्था हेतु मैं वार्ड के बाहर जाने ही लगा कि डॉ. अग्निहोत्री सर मेरी मंशा को जान कर मेरी बाँह को पकड़ ली और हाँफते-हाँफते कहा, – ‘सत्येन्द्र!…… तुम…… कहीं….. मत…… जाओ I अस्पताल में…… आक्सीजन की …. कमी हैI’ – उनकी आवाज रुकने लगीI मैं बेचैन हो उठा,
‘पर … पर … सर … I’ – मैं बेचैनी में हकलाते हुए कुछ कहना चाहाI
‘मुझे ….. मुझे …… संतुष्टि है कि …… कि …….मैंने ….. अपने जीवन …… के अंश को ….. दान कर … एक मरीज को ……. नवजीवन ….. प्रदान किया हैI’ – वह प्रतिपल निर्बल और सुस्त होने लगेI मैंने उन्हें सहारा देते हुए पास की कुर्सी पर बैठायाI वह और जोर-जोर से साँसें लेने लगेI
धौकनी प्रबल हो गईI तब तक एक वार्ड बॉय भागता हुआ एक स्ट्रेचेर ले कर आयाI फ़ौरन वार्ड बॉय और नर्सों की सहायता से उस पर उन्हें लिटाकर इमरजेंसी वार्ड की ओर लेकर हम सभी भागने लगेI इमरजेंसी वार्ड में पहुँचते ही जीवन रक्षक सारे उपक्रम किये गए, पर शायद कुछ देर हो गईI फिर वह हो गया, जो नहीं होना चाहिए थाI हजारों के जीवन रक्षक, स्वयं जीवन से हार गयाI उनके चहरे पर अभी भी प्रसन्नता और संतुष्टि की झलक साफ़ दिख रही हैI उन्होंने उस मरीज की ओर बढ़ती मृत्यु की घात के आगे स्वयं अपने आप को आगे कर दियाI मैं तो सन्न ही रह गयाI मैं अपने आप को सब कुछ लुटा हुआ पायाI
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कुछ कोलाहल को सुनकर मेरी स्मरणयुक्त चिंतन तन्द्रा भंग हुईI सभा में उपस्थित सभी लोग खड़े हो रहे हैं, स्व. डॉ. कृष्णकांत अग्निहोत्री सर की दिवंगत आत्मा की शांति हेतु दो मिनट के मौन-मूक धारण कर प्रार्थना के लिएI मैं भी अपनी दुर्बलता को सहेजते हुए धीरे-धीरे उठ खड़ा हुआ हूँI (कोरोना जनित रोगियों की सेवा में अपने आप को उत्सर्ग करने वाले चिकित्सकों के स्मरण में समर्पित।)