पाँचों अंगुलियों के समान ही सभी पुलिस कर्मी एक जैसे ही कठोर और निर्दयी नही होते हैं, कुछेक में भी कोमल हृदय धड़कता है। ऐसे ही पुलिस कर्मियों के प्रति समर्पित है, मेरी नवीन कहानी “वास्तविक भूख”। अपने विचार से मुझे अवश्य ही अवगत करवाएंगे।
असिस्टंट सब-इंस्पेक्टर नारायण प्रसाद की ड्यूटी आज कई दिनों से बाज़ार की ओर जाने वाली मुख्य सड़क के नाके पर लगी हुई है। पहले वह एक साधारण कांस्टेबल के रूप में ही पुलिस में भर्ती हुआ था, पर अपने कर्मनिष्ठा के आधार पर प्रमोशन पाकर वह हेड कांस्टेबल और फिर अब सहायक सब-इंस्पेक्टर (ASI) के पद पर पहुँचा है। इसके पीछे उसकी कर्तव्यनिष्ठाता और कुछ हद तक उसके ऊपर के सब इंस्पेक्टर (SI) श्रीकांत बाबू का भी कुछ योगदान रहा है, जिन्होंने नारायण प्रसाद की योग्यता को निरंतर चमकाने का प्रयास किया है। कोरोना जनित लॉकडाउन में बाजार जा रहे लोगों को नियंत्रण करना, फिर ग्यारह बजते-बजते बाजार के बंद होते ही लोगों के आवागमन पर रोक लगाने से सम्बन्धित उसके कार्य थे। इसके लिए दो अन्य कांस्टेबल और चार सिविक भोलेंटियर्स भी उसके साथ ड्यूटी पर लगाये गए थे।
ज्येष्ठ की उमस भरी गर्मी और तपती सड़कों पर निरंतर ड्यूटी करना अपने आप में चुनौती भरा कार्य है। पूरा शरीर पसीने से सराबोर आस-पास कोई पेड़ की छाँव भी नहीं, लेकिन सहायक सब-इन्स्पेक्टर नारायण प्रसाद ने एक कांस्टेबल और दो सिविक वोलेंटियर्स के आधार पर अपने साथियों को दो दलों में बाँट दिया था। एक-एक घण्टे की बारी-बारी के आधार पर। बाकी के एक-एक घण्टे पास की बंद पड़ी एक दुकान के छज्जे की छाँव में सुस्ताएंगे।
लगभग साढ़े ग्यारह बजे का समय हुआ होगा, सड़कें लगभग सुनशान थी। कुछ दूरी पर इक्के-दुक्के लोग दिखाई पड़ रहे थे, जो पुलिस को देखते ही गायब हो जा रहे थे। तभी उसने देखा इस कटकटाती धूप में दस-बारह साल का एक लड़का काली पतली प्लास्टिक को अपने मुँह-नाक पर मास्क की तरह बाँधे, अपने एक हाथ में एक तेल का डिब्बा और दूसरे हाथ में एक साधारण-सी थैली लिये कुछ डरते हुए इधर ही चला आ रहा है। पुलिस दल को देखकर वह कुछ दूरी पर ही कुछ देर के लिए ठिठक गया, शायद सोचा होगा कि पुलिस दल वहाँ से चली जाएगी। पर ऐसा तो सम्भव ही न था। फिर क्या करे? वह डरते-डरते सड़क के एक किनारे को पकड़े कर धीरे-धीरे आने लगा। पास आया देख उसे एक सिविक वोलेंटियर्स ने रोका, तो साथ का कांस्टेबल ने उससे पूछा, – ‘अरे इधर सुन रे! तू इधर कहाँ जा रहा है?
पहले तो वह लड़का डर के कारण वहीँ किनारे पर ठिठका गया। फिर शायद पुलिसिया डंडे को सहने के अनुकूल अपने आप को तैयार कर उनके पास पहुँचा।
‘क्यों रे! यह तेरा मास्क है? और तू इस लॉकडाउन में इधर कहाँ जा रहा है?’ – उस कांस्टेबल ने कुछ जोर देते हुए पूछा।
‘कुछ तेल और सब्जी की जुगाड़ में।’ – डरते हुए उस लड़के ने कहा था।
‘बदमाश कहीं का! तुमको नहीं पता है कि लॉकडाउन में घर से निकलना नहीं है, लगाऊँ एक डंडा? बाहर मटरगस्ती करने के सारे अरमान ठिकाने आ जायेंगे, चल भाग यहाँ से।’ – कांस्टेबल ने उसकी उम्र को देखते हुए उसे डर दिखने के लिए धमकाया और फिर अपने डंडे को उठाया। उस लड़के के स्थान पर यदि कोई अन्य व्यस्क शख्स होता, तो शायद अब तक एक-दो डंडे उसके पिछवाड़े पर अब तक खिंच भी दिया होता, पर वह लड़का अपनी नजरें झुकाए वहीं पर खड़ा ही रहा शायद उसके लिए यह रोज की ही बात है।
कांस्टेबल ने फिर धमकाया, – ‘चल भाग यहाँ से, कैसे अकड कर खड़ा है। जरा-सा भी इसे डर-भय नहीं है।’
सहायक सब-इंस्पेक्टर नारायण प्रसाद बंद दुकान की छाँव से ही अपने साथी कांस्टेबल को उस हठी लड़के के साथ उलझे देखा तो अपने कांस्टेबल को उस लड़के के साथ ही अपने पास बुलाया। लड़का बिना डरे नारायण प्रसाद के पास पहुँचा,
‘क्यों जी, यह तुम्हारा मास्क है और इस लॉकडाउन में तुम इधर कहाँ जा रहे हो ?’ – नारायण प्रसाद ने पूछा।
‘साहब! मेरे घर में खाने का कुछ भी नहीं है, बाजार में जा रहे हैं, साहब।’
‘लेकिन अब सारा बाजार बंद हो चूका हैं, बाजार में तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा जाओ।’
‘साहब! बाजार बंद होने के बाद दुकानदार जो खराब सब्जियाँ फेंक देते हैं, उनमें से ही कुछ को छाँट कर घर ले जाता हूँ, उसी से हमारी सब्जी बनती है। राशन दुकान के पास जमीन पर गिरे चावल-गेंहू के दानों को बटोर लेता हूँ, उसे से हमारे भात-रोटी बनते हैं और तेल की दुकान के बाहर खड़ी गाड़ी पर रखे तेल के टिन के डिब्बों से रिस-रिस कर जो तेल गिरते रहते हैं, उसी को अपने इस डिब्बे में मैं छान कर घर ले जाता हूँ।’ – लड़का बड़ी अबोधता के साथ पर स्पष्ट रूप में उत्तर दिया।
‘लेकिन यह तुम्हारा मास्क है? यह प्लास्टिक की थैली? उसको हटाओ और यह लो नया मास्क इसे अपने मुँह-नाक पर लगाओ।’ – नारायण प्रसाद उसे अपने पास से एक नया मास्क देते हुए कहा। उसकी बातों में अब उसके प्रति कुछ सहानुभूति के भाव झलकने लगे थे। क्या करता इस पुलिस के आवरण के भीतर उसमें भी तो एक इंसानी दिल है। वह लड़का उस मास्क को अपने मुँह-नाक पर चढ़ा लिया। ‘अब अपने घर जाओ, घर पर ही रहना जाओ’ – नारायण प्रसाद ने उसे समझाते हुए कहा। लेकिन वह लड़का चुपचाप वही खड़ा रहा। ‘क्या बात है, तुम घर क्यों नहीं जाते हो?’ – इस बार नारायण प्रसाद कुछ तेज होकर बोला।
‘साहब! मेरे घर में सचमुच खाने के लिए कुछ भी नहीं है, कल से ही मेरे घर में कुछ भी खाना नहीं बना है, हम सभी भूखे हैं साहब।’ – कहते-कहते उस लड़के का गला भर आया।
नारायण प्रसाद जब पुलिस में कांस्टेबल के रूप में भर्ती हुआ था, तब उसमें नया-नया पुलिसिया नया था। उस समय वह बहुत ही अडियल और क्रूरता के साथ लोगों से व्यवहार किया करता था। जैसे नदी-नाले में बाढ़ के पानी कुछ दिनों के लिए अक्सर अपनी सीमाएँ भूलकर उफान भरते बहने लगते हैं, पर बाद में वे भी स्थिर और मंथर गति को ही अपनाते हैं। पर शायद कुछ तो नियमित कार्य अभ्यस्तता के कारण और कुछ पदोन्नति के कारण उसके कार्य-व्यवहार में बहुत भारी परिवर्तन हो गया। अड़ियलता और क्रूरता के स्थान को अब कुछ सौम्यता ने हथिया ली है। भले ही वह पुलिस डिपार्टमेंट में है, पर वह भी एक इन्सान ही तो है। वह भी एक पारिवारिक व्यक्ति ही तो है, उसके भी बाल-बच्चे हैं। उस लड़के की बातें सुनकर उसके हृदय में पितृत्व भाव जाग गए, उसने उस लड़के से बहुत ही नरमी से पूछा, – ‘बेटा! तुम्हारे माँ-पिताजी क्या करते हैं? तुम्हारे घर में और कौन-कौन हैं?’
‘मेरे पिताजी नहीं हैं। कुछ महीने पहले ही काम करते हुए एक बिल्डिंग से गिर कर मर गए। माँ पास के दो घरों में काम करने जाती थी, पर
उनलोगों ने भी कोरोना के कारण माँ को काम पर आने से मना कर दिया है। एक छोटी बहन है, बस और कोई नहीं है।’ – इतना कुछ बताकर उसने अपनी नजरें फिर धरती में गड़ा दी।
‘कहाँ पर रहते हो?’ – भावुकतावश नारायण प्रसाद ने उससे पूछा।
‘ओ पीछे वाली रोड है न, उसी में थोड़ी दूर पर एक बस-स्टॉप है, उसी के पीछे दर्मा और प्लास्टिक से घेर कर बनाए हुए घर में हम सभी रहते हैं।’
‘घर में जब कल से ही खाना नहीं बना है, तब तो तुम कल से ही कुछ खाए भी नहीं होगे। तुम्हें तो बहुत भूख लगी होगी?’
‘जी साहब! मैं ही नहीं, मेरी माँ और मेरी छोटी बहन भी कल से कुछ भी नहीं खाई हैं। पहले तो कोई पार्टी वाले या फिर कोई समाज सेवी लोग कुछ खाना दे जाते थे, उसी में हम तीनों खा लेते थे। पर कल से कोई भी खाना देने आया ही नहीं है।’ – उस लड़के की बोली में करुणा भाव झलक रहे थे। बार-बार उसका गला अवरूद्ध हो जा रहा था।
तब सहायक सब-इन्स्पेक्टर नारायण प्रसाद ने कुछ सोचते हुए अपने उस कांस्टेबल को बुलाया और लगभग शिकायत भरे लफ्जों में उसे समझाते हुए कहा, – ‘अरे कभी-कभी तुमलोग अपने अक्ल को भी दौड़ाया करो। पुलिस केवल रोब दिखाने और डंडे भांजने के लिए ही नहीं होती है, बल्कि जरुरत के अनुसार लोगों की सेवा करना भी पुलिस का ही काम होता है।
‘जी सर’ – कह कर वह कांस्टेबल कुछ सकुचाते हुए पास में ही खड़ा हो गया।
‘तुम मेरे बैग से मेरा टिफिन कैरियर लेकर आओ।’ – आदेशात्मक स्वर सुनाई दिया।
‘जी सर, अभी लाता हूँ’ – और पास में खड़ी नारायण प्रसाद की बाइक के बक्से से उसका टिफिन कैरियर निकला और लाकर उसे थमा दिया। नारायण प्रसाद उसे खोलकर उसमें से एक डिब्बे को निकला, जिसमें कुछ रोटियाँ और सब्जियाँ थीं। उसे उस लड़के को थमाते हुए कहा, – ‘लो तुम इसे खाओ’
उस लड़के ने उस डिब्बे को अपने हाथों में ले तो लिया, पर खाने का उपक्रम नहीं कर रहा था। नारायण प्रसाद को कुछ आश्चर्य हुआ, उसने पूछा, – ‘तुम खाते क्यों नहीं हो? जबकि दो दिनों से तुम भूखे हो।’
लड़के ने कुछ सकुचाते हुए बोला, – ‘साहब! इसको हम अभी नहीं खायेंगे, इसको हम घर ले जाकर अपनी माँ और छोटी बहन के साथ खायेंगे, वे भी तो कल से ही भूखे हैं।’
सहायक सब-इन्स्पेक्टर नारायण प्रसाद तो यहाँ तक सोच भी नहीं पाया था। इतनी छोटी-सी उम्र में ही इतनी बड़ी समझदारी और जिम्मेवारी की भावना! अपने परिजनों के लिए ऐसी त्याग की भावना! उसका मन द्रवित हो गया। उसने उसे दुलारते हुए कहा, – ‘बेटे! तुम फिलहाल इसे खा लो, मैं उनके लिए भी और इंतजाम करता हूँ।’
पर वह लड़का उसे नहीं ही खाया। नारायण प्रसाद से अब न रहा गया। कुछ सोच कर उसने अपने जेब से अपना पर्स निकला और उसमें से कुछ रुपये तथा अपनी बाइक की चाबी को निकाला और उसे अपने सहायक एक वोलेंटियर को देते हुए कहा, – ‘तुम जाओ और बाजार में जो अन्नपूर्णा होटल है न, वहाँ से पूरे तीन प्लेट भोजन पार्सल बंधवा कर जल्दी से ले आओ, कुछ पूछे तो मेरा नाम बता देना कि मैंने कहा है।’
कुछ समय के उपरांत ही वह भोलेंटियर एक सफेद पालीथीन की बड़ी थैली में अलग-अलग पैकेटों में तीन प्लेट भोजन सामग्री लटकाए बाइक से लौटा और बाइक को किनारे खड़ी कर भोजन सामग्री को अपने सहायक सब-इन्स्पेक्टर नारायण प्रसाद को थमा दिया। नारायण प्रसाद ने भोजन के उस बड़े बैग को उस लड़के के हवाले किया और एक बार फिर उसे कुछ देर पहले दिए गए टिफिन के भोजन को खाने का आग्रह किया, परन्तु व्यर्थ! वह न माना बल्कि इस बार तो उस लड़के ने कुछ प्रसन्नता से कहा, – ‘इसको भी हम सब साथ ही खायेंगे’ – और वह उस टिफ़िन को भी उसी पालीथीन के बड़े बैग में रख लिया।
वह जाने को उद्धत हुआ तब कुछ सोचकर नारायण प्रसाद ने उससे कहा, – ‘ठहरो, मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुँचा देता हूँ’ और फिर अपने सहायक कांस्टेबलों और वोलेंटियर्स को आवश्य निर्देश देते हुए अपनी बाइक पर सवार होकर उसे स्टार्ट किया, बाइक पर अपने पीछे उस लड़के को भोजन सामग्री के बड़े पालीथीन बैग के साथ बैठा लिया और फट-फट करती हुई बाइक वहाँ से चल पड़ी। उस पर सवार वह लड़का बहुत ही प्रसन्न था। बाइक उस लड़के द्वारा बताये मार्ग से होती हुई ठीक एक बस स्टॉप के पास में रुकी।
वह लड़का बाइक से उतर कर उस बस स्टॉप के पीछे दर्मा और प्लास्टिक से घेर कर बनी एक झोपड़ी में प्रवेश कर गया। सहायक सब-इन्स्पेक्टर नारायण प्रसाद को पहले तो एक बच्ची की मचलती हुई सुरीली आवाज सुनाई दी, – ‘भईया आ गए, भइया आ गए।’ उसके बाद ही किसी अधेड़ स्त्री की भी दुर्बल आवाज सुनाई दी, – ‘बेटा, इतने सारे सामान तुम कहाँ से लाये हो?’ तब उस लड़के की आवाज सुनाई दी, – ‘माँ! यह सब एक पुलिस वाले साहब ने दिए है।
देख उन्होंने पहले अपने खाने में से मुझे खाने के लिए यह दिया, पर तुम दोनों को भूखे छोड़कर मैं अकेले कैसे खाना खा लेता, माँ? इसीलिए इसे भी मैं लेते आया है….. ले गुड्डी, तू खा ले… नहीं भईया, माँ खाएगी, कल से वह कुछ भी नहीं खाई है… ले माँ! पहले तू ही खा ले….. नहीं बेटी,….. तू बहुत भूखी है, तू ही खा ले।….. माँ! अब हम सब साथ बैठ कर खाना खायेंगे, ढेर सारा खाना है।’ -आखरी आवाज उसी लड़के की थी, जिसमें प्रसन्नता के लय सम्मिलित थे।
उस परिवार की परस्पर बातें सुन कर सहायक सब-इन्स्पेक्टर नारायण प्रसाद का हृदय भीतर ही भीतर क्रुन्दन कर उठा, फिर उसने अपने आप को सम्भालते हुए उस लड़के को आवाज दी और उसे झोपड़ी से निकलते देख उसने कहा, – ‘सुनो, कल तुम सबेरे पास के थाने में चले आना, कोई पूछे तो बता देना कि ASI नारायण प्रसाद ने बुलाया है। मैं तुमलोगों के लिए कुछ और राशन की व्यवस्था कर दूँगा।’ – फिर उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही वह वहाँ से चल गया, क्योंकि पुलिसिया कठोर हृदय में भी उस परिवार की कारुणिक बातें सुन पाने की हिम्मत उसमें न अब और बच गई थी।
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शाम को सहायक सब,-इन्स्पेक्टर नारायण प्रसाद दिन भर की अपनी ड्यूटी पूरी करके अपने घर पर लौटा। आते ही एक अजीब थकान के कारण सोफे पर बैठते ही पस्त गया। अभी भी उसके कानों में उस अभावग्रस्त परिवार की कारुणिक बातें ही रह-रह कर गूँज रही थी। उसकी पत्नी आकर कब पानी और बिस्कुट रख गई, उसे पता भी नहीं चला।
उसकी छः-सात साल की बेटी ‘पा-पा’ – ‘पा-पा’ कहकर उसे झकझोरने लगी, तब जाकर उसकी चेतना जागी, साथ में लाये मिठाई के पैकेट को उसे थमाते हुए उसने कहा, – ‘ले जाओ, सभी मिल-जुल कर खा लेना।’ – आज उसकी वाणी में कुछ विचित्र दर्द छुपे हुए थे, जो उसकी भोली-भली बेटी न जान सकी।
उस बेटी के अलावे उसका एक लड़का भी है, जो लगभग दस साल का है और वह पाँचवीं कक्षा में पढ़ता है। दोनों में लगभग हर किसी बात को लेकर ‘तू-तू, मैं-मैं’ होते ही रहता है। उसी के अनुरूप थोड़ी ही देरी में घर में शोर शुरू हो गया। दोनों में मिठाई बँटवारे को लेकर हंगामा शुरू हो गया।
पत्नी कमरे में आई, नारायण प्रसाद की मनोदशा को समझने की कोई कोशिश न कर गर्म लोहे पर पानी की कुछ अनावश्य छीटें ही डाल दी, – ‘कुछ भी सामान लेकर आते हो, तो उसे अपने हाथों उन दोनों में बाँटने से क्या तुम्हारी शान में कोई कमी हो जाती है? घर का जंजाल तो सम्भलता ही नहीं, जाते हैं शहर भर के जंजाल को सम्भालने। कहलाने के लिए ही तो हैं पुलिसवाले, भगवान ने भी दुनिया के सारे दुःख मेरे ही माथे पर लाद दिए हैं।’ – भुनभुनाती हुई वह कमरे से बाहर चली गई।
एक तो दिन भर धूप में ड्यूटी और फिर उस गरीब परिवार सदस्यों की त्याग भरी परस्पर बातों को सुनकर नारायण प्रसाद का मन योंही आज कुछ उखड़ा-उखड़ा था। ऐसे में घर की अशांति से उसका मन और भी ज्यादा विचलित हो गया। ऐसी बातें तो घर में अक्सर ही होती रहती थी। अक्सर दोनों बच्चों को प्यार से कुछ डांट-डपट दिया करता था, पर आज की अनचाही उन तमाम बातें मिलकर उसके मन को काफी उतेजित कर दी। दोनों बच्चों को डाँटने के उद्देश्य से ही दनदनाते हुआ भीतर कमरे में प्रवेश किया। उस कमरे में उसके द्वारा लाई गई मिठाइयों को जहाँ-तहाँ फर्श पर फेंका-फेंकी की घटना को देखा, अब तो अचानक उसका क्रोध सातवें आसमान पर जा चढ़ा।
दिमाग में तो इस समय उस अभावग्रस्त परिवार के छोटे से लेकर बड़े सभी सदस्यों द्वारा एक-दूसरे के लिए त्याग की तत्परता की बातें तरंगित हो रही थी और यहाँ है कि मुँह खोले बिना ही मिलते जाते भोजन-पदार्थों की फेंका-फेंकी शुरू हो जाती है। अतः दोनों बच्चों को पकड़ कर उसने एक-एक झापड़ खिंच दिया दोनों बच्चें रोने लगे। क्रोध में उसने चिल्लाया, – ‘चुप करो घर में भी जरा-सी शांति नहीं कितना भी, कुछ भी खाने-पीने का सामान लाया जाय, पर इनके मन में संतुष्टि का नाम ही नहीं है।
उन सब की फेंका-फेंकी शुरू हो जाती है। तुमलोग को क्या पता है कि भूख और दुःख किसे कहते हैं? उनसे जा कर पूछो, जिनको दो-दो दिनों से भोजन तक नसीब नहीं होते हैं। रुखी-सुखी रोटी के लिए खाली पैर भरी तपती दुपहरिया में इधर-उधर भटकते फिरते रहते हैं। यहाँ सारी वस्तुएँ सरलता से मिल जाती है, तो सब के सब नवाबजादा बने हुए हैं।’ – अतिशय क्रोध के कारण उसकी आवाज लटपटाने लगी थी।
बाहरी कमरा में आकर सोफे पर बैठ तो गया, परन्तु उसका चेहरा अभी भी क्रोध से तमतमाए लाल दिख रहा था। साँसें तेज-तेज चल रही थी। उधर कमरे के भीतर से भी दोनों बच्चों के रोने की आवाजें आ ही रही थी, पर उसके मन में आज कहीं कोई ग्लानि की भावना न थी, क्योंकि आज ही तो उसे वास्तविक भूख से परिचय हुआ था।