भाग कोरोना भाग रे
(लम्बी है, पर अतिरोचक हास्य-व्यंग्यात्मक)
चुकी ‘लॉकडाउन’ की लगातार भयावह स्थिति में कई दिनों से कोठरीनुमा घर के कोने में पड़े-पड़े शरीर कुछ अकड़-सा गया था। कैसे कहूँ, कि घरेलू कार्यों में महीनों से पिसते-पिसते बहुत कुछ ऊब और थक-सा गया था। श्रीमती जी को तो मानों, वर्षों पहले के वृहस्पतिवार के व्रत का सुफल प्राप्त हो गया हो। फिर तो दिन भर उलाहने, – ‘न स्कूल जाना है, न पढ़ाने। कोई काम भी ठीक से नहीं हो पाता। पता नहीं, बच्चों को कैसे पढ़ाते हैं? सिर्फ बिगाड़ते ही होंगे और क्या?’
आज मुझे एक बहुत बड़ा रहस्य समझ में आया कि मेरे कई ट्युशनिया-अध्यापक मित्रगण सूर्योदय के पहले ही घर से बाहर और रात्रि के दस बजे जूट मिल के भोंपू के बाद ही घर में प्रवेश क्यों करते हैं? पर क्या करूँ? कैसे समझाऊँ कि इस उम्र में इतने सारे काम मुझसे अब नहीं हो पाता है। कक्षा में तो बच्चों को संभालना होता है, उनकी माताओं को तो कदापि नहीं। सो वह तो अलग ही बात है।
एक दिन श्रीमती जी बड़े ही प्यार से मुझसे मुखतिब हुई। उनके वर्षों बाद बेवजह अतिशय प्रेम-प्रदर्शन से मैं घबरा गया। कभी-कभी चीनी की मिठास छुरी से भी घातक होती है। पर मदारी के समान चहरे पर से घबराहट की लकीरों को छुपाता हुआ पूछा, – ‘क्या बात है? इस मधुर मुस्कान के पीछे कोई विशेष बात है क्या?’
उन्होंने ने मुस्कुराते हुए कहा,- ‘अजी, लॉकडाउन खुलने के बाद भी मैं अब आपको स्कूल या ट्यूशन पढ़ाने न जाने दूँगी।‘ श्रीमती जी का यह निर्णयात्मक उवाच्य सुनकर मेरे अन्तः में बहुत दिनों से औंधा पड़ा प्रेम स्फूर्ति से जाग गया। श्रीमती के सम्बन्ध में अपने मन में अब तक के रखे ओछे विचारों के विरुद्ध मुझे स्वयं बहुत ग्लानि हुई और बहुत गुस्सा भी आया।
मन ही मन सोचा, – ‘एक ये हैं, जो मेरी सेहत के प्रति कितनी चिंतित रहती हैं, और दूसरा मैं हूँ कि जो इन्हें अबतक अपना उत्पीड़क ही मानते आया हूँ।’ – लेकिन ऐसी स्नेह भरी बातें बेचारा पति नामक जीव अक्सर कहीं बाहर ही किसी दूसरी स्त्री के सम्मुख ही अपनी पत्नी के श्रीमुख से सुनते हुए पाता है। घर में तो वह सारे एब का भण्डार ही होता है।
मेरी अबोधता को भाँपते ही वह तुरंत बोलीं, – ‘आप कामवाली बाई से भी कितना बेहतर काम करते हैं। घर के किसी भी कोने में जरा-सा भी कचरा नहीं रहने देते हैं। फर्श तो आइना ही बन गया है। बरतने तो ऐसे साफ़ करते हैं, कि सब के सब अब नये लग रहे हैं।‘
श्रीमती जी का यह प्रेम-उवाच्य को सुनकर तो मेरी दशा ‘काटो तो खून नहीं’ की हो गई। मन ही मन मैंने जी भर चीनियों को गरियाया। कहाँ से यह कोरोना वायरस को फैला कर हम जैसे टूटपुन्जिये मास्टरों को बिन दाम के ही घरेलू नौकर बना दिया है। सुबह से शाम तक लगे रहो। स्कूल या ट्यूशन पढ़ाने जाने का बहाना भी तो ऐसे लॉकडाउन में निरर्थक ही है। ऐसी परिस्थिति में मेरे एक मित्र निकल ही पड़े थे कि वह आज तक अपने पिछवाड़े पर पड़े पुलिसिया डंडे को स्मरण कर सहलाते रहते हैं। सुख-शांति से कहीं बैठ भी तो नहीं पाते हैं।
‘अनलॉक-1’ की खबर, मेरे लिए अदालत के बड़े जज साहब की ओर से बाइज्जत रिहा की खबर रही। मेरी बाँछें खिल गईं। बंद पंक्षी उड़ा। निकल पड़ा एक दफ्तर में जाने के बहाने। सुना था कि एक बस में 20 से अधिक यात्री न होंगे। पर बस स्टॉप पर पहुँचा, तो देखा वहाँ पर ‘वायु छानन श्वांस तन्त्र रक्षक वस्त्र पटिका’ नहीं समझे, अर्थात, ‘मास्क’ से अपने-अपने मुँह-नाक को छिपाए अनेक लोगों की लम्बी लाइन बनी हुई है।
मेरी भी वही दशा थी, पर अपनी दिखाई तोड़े ही पड़ती है, दूसरों की ही दिख जाती है। ऐसे में मुझे शायर स्वर्गीय साहिर लुधियानवी और गायक स्वर्गीय महेंद्र कपूर जी पर आज बड़ा ही गुस्सा आया, आखिर इतने दिनों तक क्यों सुनाते आयें, – ‘ना मुँह छुपा के जियो और ना सर झुका के जियो, गमों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो।’
पास के ही ‘ATM Center’ को देख कर सोचा, – ‘पैसे निकालने वालों की यह लाइन है। हमें क्या? बैंक में पैसे रहे, तब न ATM के लिए लाइन।‘ अतः मैं आगे बढ़ने लगा, कि खिसियाई बिल्ली के समान कई लोग एक साथ चिल्ला उठे, – ‘ओ भद्र मानुस! आगे कहाँ बढ़े चलें, लाइन में आइये।‘
मुझे पैसे नहीं निकलना है, आप ही निकालें। मुझे तो बस में चढ़ना है।’ – बड़े ही इत्मिनान के साथ मैंने कहा और अपनी चाल से आगे बढ़ने ही लगा।
‘यह पूरी लाइन ही बस में चढ़ने वाली है। लाइन में आइये।’ – एक साथ अचानक मुझ पर कई कठोर वाणियों का आक्रमण हुआ।
तीन बस गुजरने के बाद अब चौथी बस में चढ़ने वाला मैं ही सबसे पहला व्यक्ति, अति प्रसन्न था। उससे भी ज्यादा, जब मैंने चार किलोमीटर की मैराथन दौड़ में वर्षों पहले प्रथम आया था और नगर सभापति ने मुझे पुरस्कृत किया था। लगभग डेढ़ घण्टे बाद चौथी बस हिचकोले खाती धीरे-धीरे आती दिखाई दी।
बस तो सामने से बाल बिखरे, नाक बहते, एक आँख से काने और कुरूप कोढ़ी के समान थी, पर आज वह मुझे चित्र-पट की किसी नयी-नवेली तारिका से कम सुंदर न लग रही थी। इंतजार के मीठे फल की तरह मैंने उसे मन ही मन उसे चखा। मन प्रफुल्लित हुआ। एक-दो बार मुड़ कर अपने पीछे खड़े लोगों को ईर्ष्यावश देखा भी था, क्योंकि अब तो बस में मुझे ही सबसे पहले चढ़कर खाली सिट पर जा बैठना था।
बस आकर सामने खड़ी हो गई, – ‘पर यह क्या?’ बस पूरी तरह से खचाखच भर्ती थी। बस में बैठे और खड़े लोगों के चेहरे मुझे कोरोना के गोल-गोल कांटेदार धतूरे जैसे ही दिख पड़े। चढ़ूँ या न चढ़ूँ। इसी अधेड़बुन में ही मैं अभी तक खड़ा ही था।
‘अरे जल्दी चढ़ो, या आगे से हटो।’ – फिर पहले वाली बड़ी कर्कश आवाजें पीछे से आईं। उन आवाजों की तीव्रता ने मुझे न चाहते हुए जबरन उस बस की कोरोना वायरस सदृश भीड़ में घुसेढ़ ही दिया। बस में बैठे और खड़े सभी यात्री मुझ अभागे को घुर-घुर कर देखने लगे। हकीकत यह थी कि उनके चहरे और शरीर पर मंडराते चाइनीज अदृश्य कोरोना वायरस मुझे घुर-घुर कर देखने लगे थे।
मेरी मास्टरी निरीहता को उन अनुभवी चाइनीज कोरोना वायरस को समझते देर न लगी। सब समझ गये कि यह सबसे निरीह नया बकरा है। इसको भी जबर किया जाए। और अदृश्य रूप से वे मुझ पर टूट पड़ें। मेरी ‘वायु छानन श्वांस तन्त्र रक्षक वस्त्र पटिका’ पर कुछ हलचल-सी होने लगी। पर मेरा मास्टरी ज्ञान काम आ गया था। उस ‘वायु छानन श्वांस तन्त्र रक्षक वस्त्र पटिका’ को मैंने काफी मजबूती से दम घोटू रूप में बाँध रखा था। हाथ को पूरा ढकें, भयानक गर्मी के बावजूद भी गर्दन को गर्दन-पट्टी से लपेटे, बिन जरुरत के ही पैर रक्षक मोजा-जूते पहने, मैं भी पूरी तैयारी से था। इन चीनियों और चीनी सामानों का कोई भरोसा नहीं, कब विश्वासघात कर बैठें। ‘चीनी-हिंदी भाई-भाई’ के नारे में अब कोई दम नहीं रहा।
‘मोदी’ अपने ही धूर्त हैं, उसकी बात में थोड़े ही आने वाले हैं। भारतवासी तो उनकी बातें समझ ही नहीं पाते हैं, भला चीनी लोग क्या ख़ाक समझेंगे। भीड़ की अकबकी में मेरी निरीहता को घुटन-सी होने लगी। न चाहते हुए भी मैं उस बस से थोड़ी दूर ही जाकर उतर गया। स्थिति की नजाकत को देखकर आगे जाने के बजाय, पीछे वापस लौट जाना ही बेहतर समझा। पर अबकी बार बस से नहीं, बल्कि अपनी दशंगुष्ठा युक्त चरण-गाड़ी से। किराया भी तो बचाना था। काम तो कुछ हुआ ही न था।
घर पहुँचते ही भीषण गर्मी में शीतल जल के स्थान पर श्रीमती जी की गरमागरम उलाहना, – ‘हो आये बाहर से। मन भर गया। जाइए तुरंत बाथरूम में I साबुन से अच्छी तरह से रगड़-रगड़ कर स्नान कीजिए। अपने सभी कपड़ों को धोइए।’ – उलाहने ही तो देने थे, फिर भीतर कमरे में चली गईं।
गऊ की तरह शांत मैं गर्दन झुकाए रहा। क्या करता? हिंसक बैल बनकर कई बार नतीजा भी भोग चूका हूँ। बड़े से बड़े खली जैसे-पहलवानों को भी अपने घर में इन्हीं परिस्थितियों से ही गुजरना पड़ता है I विश्व का ‘दादा’ कहलाने वाला अमेरिका के भी एक राष्ट्रपति अपनी पत्नी के भय से कई दिनों तक अपने घर न जाते थे I अब कहने के लिए भले ही कोई अपने आप को बबर शेर ही कह लेवे, कोई मना थोड़े ही कर सकता है I मन मार के बाथरूम में घुसा। कपड़ों के साथ अपने हाथ-पैर को अनावश्यक धो कर एकांत में रखे सोफे पर बैठ गया।
अचानक मेरे कान के पास कुछ फुसफुसाहट हुई। फुसफुसाहट भी विचित्र थी। बात कुछ पले नहीं पड़ रही थी। पहले तो कुछ घबराहट-सी हुई, पर धीरे-धीरे मेरी ढिठाई बढ़ती ही गई। फुसफुसाहटकारक भी कुछ परेशान था क्योंकि उसकी फुसफुसाहट का मेरे ऊपर कोई असर ही नहीं हो रहा था। उस अदृश्य फुसफुसाहटकारक से मैंने कहा, – ‘मेरी मातृभाषा हिन्दी है। हिन्दी में बात करो और कुछ ऊँची आवाज में। हम मास्टरों को धीमी आवाज सुनाई नहीं देती है। धीमी आवाज में बातें करना, हमें शोभा भी नहीं देती है।‘
मेरे जैसा देश-प्रेमी आपको कहीं और न मिलेगा। भारतीय राजभाषा ‘हिन्दी’ के अतिरिक्त और कुछ न सिखा, न कभी बोला और न कुछ समझा ही। भले ही चतुर्दिक बेइज्जत हुआ हूँ। मेरे जैसे ही स्थिति निरीह बेचारी ‘हिन्दी’ की है, जो पूर्ण सक्षम होने पर भी भारत की राष्ट्रभाषा बनने से सर्वदा वंचित ही रही है। अब इसी उपेक्षित ‘हिन्दी’ में उसकी फुसफुसाहट होने लगी और पहले से कुछ ऊँची आवाज में। मैंने कहा, – ‘अब ठीक है, बोलो आगे।’
‘मैं कोरोना वायरस का लोकल हेड हूँ, चीन के वुहान से आया हूँ। ‘- फुसफुसाहट हुई।
‘बिल्कुल गलत। तब तुम फिर हिन्दी में बातें कैसे कर रहे हो?’ – मैंने तुरंत आपत्ति जताई।
उसने कहा, – ‘भारत भेजने के पूर्व छोटी-छोटी आँखों वाले नाक चिपटे हमारे चीनी आकाओं ने हमें भारत की राजभाषा ‘हिन्दी’ सिखा दी है। तुम्हें यह जान कर बड़ा ही ताजुब होगा कि हम भारत की सभी प्रांतीय भाषाओं को भी जानते हैं, क्योंकि सभी प्रान्तों में घुस कर हमें काम करना है।’
मैंने उनकी हँसी उड़ाते हुए कहा, – ‘चाइनीज कोरोना और मेरे पास। हा.. हा.. हा। कोरोना! तुमलोग क्या समझे? मैं कोई लखपति या करोड़पति हूँ। कोरोना! तुम सबसे बड़ी भारी भूल हुई है। तुमलोग भी मेरे बाहरी ठाट-बाट से धोखे खा गये। मेरी स्थिति ‘ऊपर से ठाट-बाट और अन्दर से मोकामा घाट’ की है। ठाट-बाट में रहना मेरी मजबूरी है। मैं प्राइवेटिया मास्टर हूँ। घर का कोना-कोना छान मारोगे, तो भी तुमलोगों को एक फूटी कौड़ी भी न मिलेगी। यहाँ तुम सब की कोई सेवा भी न हो पायेगी। तुम सब तो मेरे यहाँ भूखे ही मर जावोगे। मेरे ऊपर भी अतिथि-हत्या का भीषण पाप लग जायेगा। जाओ, जाओ कहीं कोई अमीर द्वार ढूँढ लो।‘
‘ऐसा भी निरादर तो न करो। हजारों मील दूर से बड़ी आस लेकर हमलोग आये हैं। तुम भारतीय लोगों के लिए हम तो ‘अतिथिदेवो भवः’ ही तो हैं। अतः हमें भी अपने देवताओं के सामान ही कुछ आदर-सत्कार करो। तुम भारतीय लोग तो अपने अतिथियों की रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर देते हो, और एक तुम हो कि ……। ‘- उसने मुझ पर जाल डालने की कोशिश करते हुए कहा।
‘अतिथिदेवो भवः’ और ‘विश्व बंधुत्व’ जैसे महामंत्र सम्पूर्ण विश्व को देवों की इस पावन भूमि भारतवर्ष से ही प्राप्त हुए हैं। पर तुम चीनियों के लिए वह भाव प्रदर्शन कदापि उचित नहीं है। तुम चीनियों पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। विश्वासघात के प्रबल उदहारण हो तुम सब। तुम सब अपने चीनी उत्पादनों की भांति ही एकदम नकली हो।” – मैं भी कुछ आवेश में आ गया था।
उसने भी कहना शुरू कर दिया, – ‘बड़ा तुम्हें आपने आप पर अहंकार है, न। सच्चाई सुन पावोगे, तो सुनो। आज तुम भारतीयों का जीवन मेरी जन्मभूमि चीन के बिना पंगु-सा ही है। बताओ न, चौबीसों घण्टें हमारे चीनी उत्पादनों से ही तुम सब जुड़े रहते हो। सुबह के चाय पीने के उपक्रम से लेकर तुम्हारा घर-दफ्तर, आवागमन-संचार साधन, तेल-फुलैल, दवा-दारु सब तो मेरे चीन देश पर ही आधारित है। यहाँ तक कि तुम्हारे धर्म और देवी-देवताओं की पूजा-पाठ की सामग्रियाँ भी मेरी जन्मभूमि चीन से ही तो आती है। तुम्हारे यहाँ के जन्मते बच्चें भी हमारा प्यारा देश चीन के बने ‘हग्गिस’ पहनते हैं और चीन के ही बने ‘निपल चुसनी’ को चूसते हैं और फिर हमारे चीनी खिलोनों के बिना वे खेलते ही नहीं हैं।’
उसकी बातों में कडुवा सत्य तो था ही। लेकिन हम भारतीय भी किसी से कम थोड़े ही हैं। मैंने भी तितकी लगाई, – ‘लेकिन तुम चीनियों तो विश्व समाज में धूर्त बनिया बन गये हो। तुम्हें अपने व्यापार के अतिरिक्त और कुछ भी न सूझता है। तुम तो किट-पतंगों तक को भक्ष जाते हो। ऐसे में तुमसे मानवता की क्या उम्मीद की जा सकती है?’
‘अरे, जब इतनी बात समझ ही गए हो, तो कुछ आगे की बातें भी तो सुन लो।’ – और फिर वह कहना शुरू किया, – ‘यही तो हमारे देश की नीति है, पहले तो दूसरों को परावलम्बी बना दो, फिर जब वह अपने अस्तित्व को भूल जाए, तो एक जोरदार लंगड़ी लगा दो। वह तुरंत ही ढेर हो जायेगा। मानवता, धर्म, नीति ये सब तो कायरों के तकिया-बिस्तर हैं, जिन पर निश्चिन्त निढाल बनकर पड़े रहना तुम भारतीयों की नियति बन गई है।
इसी नीति को भाँप कर हमारा देश चीन ने तुमलोगों को पूर्णरुपेण परावलम्बी बना दिया है। अब पड़े रहो, भाग्य के भरोसे। अब हम आ गए हैं और अब एक-एक करके हम तुम सबको मारेंगे। तुम लोग तो इतनी-सी भी बातें नहीं समझ पाए, कि जब मेरा जन्म ही हो रहा था, उसी समय मेरे देश चीन के आकाओं ने तुम्हारे जैसे सभी देशों से ‘मास्क’, सेनिटाइजर आदि सब कुछ गर्दे के भाव में खरीद लिया। उस समय तो तुम लोग बड़े खुश हो रहे थे, कि हमारा विदेशी ट्रेड बढ़ रहा है। अब देखो, वही ‘मास्क’ और ‘सेनिटाइजर’ को तुम्हें ऊँची दामों में हमारा देश बेच रहा है और तुमलोग लेने के लिए मजबूर भी हो।’ – शायद कहत-कहते उसकी साँसे फूलने लगी थीं, वह रुका।
हम भी कहाँ चुप बैठने वाले थे, आखिर मास्टर हूँ, लेक्चर के प्लेटफ़ॉर्म पर भला हमें कौन हरा सकता है? हम सुनने वाले कम, बोलने वाले ही ज्यादा होते हैं। हम एक से बढ़कर एक वक्ता हुआ करते हैं। हम तो सोये हुए श्रोताओं को भी जगा-जगा कर अपनी बातें जबरन सुनवाते हैं। इसको कहाँ पता है कि लेक्चर देने में हम इतने प्रवीण हैं कि सभा में कोई दर्शक न भी रहे, फिर भी हम अपनी बातें पूरी किये बिना माइक नहीं छोड़ते हैं। भले ही मंच पर जूतें-चप्पलें या फिर सड़े हुए अंडे-टमाटर ही क्यों न पड़ने लगें। हाँ, ख्याल आया।
एक जगह पर तो एक मास्टर वक्ता अपने साथ अपने परिचित एक जूते वाले दूकानदार को भी संग ले गए थे। उसे पूर्ण भरोसा दिलाये थे कि उसे मुफ्त में ही सौ जोड़े जूतें अवश्य प्राप्त हो जायेंगे। दूकानदार भी बड़ा ही खुश था, क्योंकि उसे आशातीत एक सौ नौ जोड़ें जूतें मुफ्त में मिल गए थे।
सो खैर, मैंने भी कहना शुरू किया, – ‘अरे कोरोना, जा। और जाकर अपने देश के नाक चिपटे अपने आकाओं से कहना, हम भारतीय बड़े ही जोगाडू प्रवृति के होते हैं। अब तुम ही बताओ, अब तक तुमलोग हमारे देश के कई शहरों और उसकी विभिन्न गलियों-मुहल्लों से होकर आये हो न। क्या तुम सब ने गौर नहीं किया कि कितने ऐसे लोग हैं, जो तेरे आगमन पर बाजारू नये ‘मास्क’ खरीदे हैं? बहुत कम। सबने घर के पुराने कपड़ों के ही ‘मास्क’ बना लिए हैं।
रास्ते में तुमने देखा नहीं, रंग-बिरंगे ‘मास्क’ सब पुराने चिथड़ों के ही तो बने हैं। तुम्हें क्या पता कि एक पैजामा हमारे यहाँ कितने दिनों, महीनों और वर्षों तक, बल्कि कितनी पीढ़ियों तक चलता है। पहले बाप पहनता है, रंग ‘डिस्क्लर’ हो गया, तो उसे बेटा पहनता है, कहीं-कहीं फट गया, तो उसको काट-छांट कर उसका छोटा भाई पहनता है, जब वह भी पहनते-पहनते उब जाता है और चिथड़ा-चिथड़ा हो जावे, तो फिर बुतरू लोग (शिशु) के गड़तर बनता है और फिर जब बुतरू के पेशाब से वह सड़-गल जाए, तो फिर वह घर में पोछा लगाने के काम आता है। कुछ समझे?’
‘अरे बाप रे! एक कपड़े की इतनी बेइज्जती।’ आश्चर्य से वह भर उठा।
मैं फिर गरजा, – ‘और सुन जिस सेनिटाइजर की बातें तुम कर रहे हो, सुनोगे तो, तुम अपने ही पसीने में बह जावोगे। हम सभी ने तो गाय के मूत और गोबर से ही सेनिटाइजर बना डाले हैं। जिसके दुर्गन्ध से तुम सभी ही नहीं, बल्कि तुम्हारे पूरे के पूरे खानदान ही, चाहे वह अभी भी वुहान में ही क्यों न पड़ा हो, सब के सब दम तोड़ देंगे। उसकी गुणवता देखना चाहते हो, तो ठीक हैं, तुम ही बताओ, कितने भारतीयों को तुम अब तक ग्रस कर पाए हो, एक प्रतिशत भी नहीं।
वह भी किसको, जो पहले से ही कब्र में अपने पाँव लटकाए बैठे हैं। यहाँ के एक-एक जन्मते लौंडें भी तुमको लात मार-मार कर दूर कर दिए हैं। और सुन, जिस बात को तुम चीनी आज सोचते-समझते हो, उसे हमारे पुरखों ने बहुत पहले ही समझ लिया था। अगर फाह-यान, ह्वेन-त्सांग, ईत्-शिंग, तारानाथ जैसे चीनी विद्वान भारतीय ज्ञान-पोथी को यहाँ से न ले गए होते, तो आज भी तुम्हारे आकागण किसी अंधेर कन्दराओं में ही पड़े होते।
हमारे पुरखों ने बहुत पहले ही घास-फूस, पेड़-पौधों से ही ऐसे-ऐसे काढ़े बना गए हैं, कि तुम अपने पुरखों सहित सारे वायरस भी आ जाओ, तो भी तुमलोग हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकते हो। हमने तो विश्व को अपने अमूल्य आयुर्वेदिक ज्ञान को देकर ही तुम्हारे जैसे कितने वायरसों की गति को बाँध कर सीमित कर दिए हैं।’
अब लगता है कि कोरोना को भारत में आने का पछतावा होने लगा था। वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया। शायद वह समझ गया कि वह कितने पानी में है। अब धीरे-धीरे लाचारी में कहने लगा, – ‘छोटे-छोटे और काले-काले गोलकी जैसी आँखों वाले, नाक चिपटे हमारे आकाओं ने बहुत बड़ी गलती की, जैसे यहाँ से ‘मास्क’, ‘सेनिटाईजार’ आदि वस्तुओं को अपने यहाँ पर मंगवा लिया था, उसी तरह से पहले ही यहाँ से सभी फटे-पुराने चिथड़ों, तुलसी, अदरख, हल्दी, गोलमिर्च, गिलोय, चिरैता, गोमूत्र, गो-गोबर आदि सब कुछ को अपना पेटेंट कर लेना चाहिए था।
चीन मंगवा लेना चाहिए था। तब मेरे जैसे वायरसों को पैदा किया होते और यहाँ भारत भेजे होते। अमेरिका और इटली जैसे देशों को तो हमने कुछ समझा ही नहीं, पर यहाँ पर आकर हमें अपनी औकात समझ में आ गई। सुबह-सुबह खाली मैदान में, पेड़ों के नीचे, घर के बरामदे में, जहाँ देखों वहीं कोई न कोई अपने पेट को पिचका-पिचका कर ‘कपाल भारती’ और अपने नाकों को दबा-दबा कर ‘फुईं-फाईं’ करते हुए ‘अनुलोम-विलोम’ और न जाने क्या-क्या करते रहते हैं। समझ में ही नहीं आता है। उनतक तो पहुँचने में ही हमें डर लगता है।‘, – अपनी लाचारी को उसने ईमानदारीपूर्वक व्यक्त किया।
उन अदृश्य मौजूद दुष्ट वायरसों की दयनीय स्थिति को देखकर स्वभावगत मुझे कुछ पीड़ा होने लगी। परन्तु गलवान घाटी की घटना ने मेरे तेवर को और चढ़ा दिए। मैंने सख्त और आदेशात्मक स्वर में कहा, – ‘अब तुम जा सकते हो।’
‘कैसे जाऊँ? बिना किसी को संक्रमित किये। हम सब का भी कोटा होता है। स्वयं को नष्ट होने के पहले कम से कम 20-22 को संक्रमित करना ही होता है, नहीं तो हमारा CEO आमेजन की गहरी और अंधियारी घाटियों में जानवरों को संक्रमित करने के लिए हमें ट्रांसफर कर भेज देगा। तुम तो मास्टर हो, बहुत कुछ जानते हो।
बताओ तो, आमेजन घाटी में जाकर वहाँ के जानवरों को हम क्या संक्रमित करेंगे, बल्कि वे ही हमें संक्रमित करके हमारे अस्तित्व को ही नष्ट कर देंगे कि नहीं।’ – बेचारा गिड़गिड़ाते हुए स्वर में कहा।
परन्तु मैंने भी अपने मन को देश-भक्ति की मजबूत जंजीर में बाँध रखा था। ताकि जरा भी न बहकें। इस समय देश की रक्षा की बात थी, जहाँ भावुकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। मैं कोई नेता थोड़े ही हूँ कि उनके अभिनय और उनकी बातों में आ जाऊँ। ऐसी ही भावुकता के कारण तो आज हमारे देश की यह दशा हुई है। जो चाहता है, वही गिड़गिड़ा कर यहाँ शरण पा जाता है। फिर अकड़ कर जम जाता है।
वास्तविक निवासियों से कहीं ज्यादा प्रमाण-पत्र उनके पास हो जाते हैं I फिर तो नेतागण भी उनके ही पक्ष में धरना देने लगते हैं। अब नेपाल की ही अकड़न को देख लीजिये। नमकहराम कहीं का! आज चीन ने केवल इशारे-इशारे में एक आँख क्या मार दी, वह अपने पुरखों की मान-इज्जत को ही धो डाला। वर्षों के पालक-पोषक अपने अभिभावक भारत को ही भूल गया और भारत के सम्मुख ही अकड़ गया। अकड़ ले! अकड़ ले! इन नकबैठे और घुच-घुचाआइ आँखों वाले चीनियों के चरित्र से तुम परिचित नहीं हो।
वह तो भारत के सम्मुख अपना घुटना टेकेगा ही। यह भारत अब 1962 वाला नहीं है, जब युद्ध के मैदान में भी सेना को अपने दुश्मनों पर गोली चलाने के लिए दिल्ली में बैठी सरकार से परमिशन लेने की जरुरत पड़ती थी। आज यह 2020 का आत्मनिर्भर भारत है और आज उसकी जांबाज सेनाएँ हैं, जो ‘No application, only action’ के सिद्धांत पर वार करती है।
कोरोना फिर गिड़गिड़ाने के स्वर में बोला, – ‘मैंने तो सोचा था, कि तुम तो टूटपुन्जिये एक गरीब प्राइवेट मास्टर हो, तुम्हें तो अवश्य संक्रमित कर ही दूँगा। पर पता नहीं, दिन भर कितने बार गर्म-पानी का गरारा करते हो, कितने बार गर्म पानी पीते हो, कितने बार तुलसी-हल्दी-अदरख-गोलमिर्च-गिलोय-चिरैता और न जाने क्या-क्या का घोल, गर्म नीबू-पानी पीते रहते हो, च्वनप्राश खाते रहते हो, घर में ढुकते ही सीधे बाथरूम में ढुकते हो। अपने कपड़ों को सर्फ-साबुन में घंटों भर गोते रहते हो। हर आध घंटे पर साबुन से हाथ-चहरे को धोते हो। यहाँ तक कि हरी साग-सब्जी और फलों को भी नमक मिले गर्म पानी में डुबोये रहते हो।
अब तुम ही बताओ, तुम लोग मेरे जैसे वायरस के खिलाप कितना बड़ा आन्दोलन खड़ा कर रखे हो। इतना बड़ा आन्दोलन अगर 20 वीं सदी के पहले ही कर देते तो गोरी-नर्म चमड़ी वाले अंग्रेज तुम्हारे देश से ‘त्राहिमाम-त्राहिमाम’ करते हुए कब के भाग खड़े होते। 1947 का थोड़े ही इंतजार करते। कम से कम एक-आध को तो संक्रमित करने का मौका दे दो। अपने न सही आस-पडोस या फिर तुम अपने दफ्तर से ही सही, पर किसी को भी संक्रमित तो करने दो।’
‘तो तुमने क्या मुझे नेपाली प्रधान मंत्री समझा रखा है? वह तो जिस थाली में खाता है, उसी में छेद करता है।’ – मुझसे भी रहा ही न गया। अब इसको भगाना जरुरी था। नहीं तो, पहले खड़ा होने दीजिए, फिर बैठने दीजिए, फिर पसरने दीजिए और फिर मुझसे ही कहेगा, तुम कौन हो? मेरे घर में क्या कर रहे हो? – शहरों में यह पाठ अक्सर पढ़ने को मिल ही जाता है।
उसने आखरी कोशिश की, – ‘तो कम से कम एक ग्लास पानी ही पिला दो।’
‘खाली गर्म पानी पियोगे या तुलसी-हल्दी-अदरख-गोलमिर्च-गिलोय-चिरैता, नीबू-पानी का गर्म घोल लायें।’ उठते हुए मैंने कहा।
‘तब से किससे बातें कर रहे हो?’ – भीतर के कमरे से मेरी श्रीमती की गम्भीर और मोटी दहशत भरी आवाज आई।
‘यह किसकी आवाज है?’ – उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
‘मेरी श्रीमती जी की, जिनसे मैं अक्सर काँपते रहता हूँ। मिलोगे? पर यह पहले ही बता देता हूँ कि पास में झाड़ू या चप्पल रहने पर मैं बिल्कुल भीगी ‘बिल्ली बन कर चुप-चाप खड़ा ही रहता हूँ। हिला कि अनगिनत पड़ने लगते हैं, झाड़ू या चप्पल, कह नहीं सकता।’ – मैंने उसे ललकारते हुए कहा।
‘तब तो मैं अपने साथियों के चलता हूँ। जब तुमने भूख-प्यास से हमारी हालत अधमरा-सी कर दी है, तो न जाने वह क्या करेंगी? चीन लौट पाने के योग्य भी न रहेंगे। हम जाते है।’ – भयातुर वह बोला।
‘जितनी जल्दी हो सकता है, भाग जाओ। पीछे मुड़ कर फिर से इस ओर न देखना। और सुन, अब किसी भी मास्टर से पंजा भी मत लेना।
यहाँ के मास्टरों में जिद्दी कौटिल्य की क्रोध शक्ति निहित होती है, जो चाहे तो गाय चराने वाले एक साधारण बालक को ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ बना सकते हैं और अगर उन्हें जरा-सा छेड़ दोगे, तो फिर वे तुम्हारे देश चीन को भी धनानंद के जैसे ही जड़ समेत उखाड़ फेंकने में कोई कसर न छोड़ेंगे I’ – मैंने उसे लगभग धमकाते और डाँटते हुए कहा। फिर वह दल-बदल के साथ ऐसा भागा, ऐसा भागा, कि चीन के वुहान में ही जाकर दम लिया होगा।
अब जाकर मैं चैन से कुर्सी पर पसर गया। मन कर रहा था कि एक प्याली चाय मिल जाती, तो मन कुछ हल्का हो जाता। पर इसके लिए तो मुझे ही आगे बढ़कर पहल करनी पडती। इसी अधेड़बुन में एक-दो ही शांति की अब तक सांसें ले पाया होगा कि कड़कती गम्भीर और मोटी-सी वह आवाज आई, – ‘बैठे ही रहेंगे या फिर चाय-पानी पूछेंगे भी।’
ठीक तरह से साँस लिए बिना ही मैं न्यूटन की गति के तीसरे नियम अर्थात ‘प्रत्येक क्रिया के बदले प्रतिक्रिया’ के अनुसार रसोईघर में त्वरित गति से जो घुसा कि अब तक वहीं हूँ। पता नहीं लोगों के मन से कोरोना का डर कब तक जायेगा। कोरोना का डर तो मेरे मन से अब कुछ-कुछ निकल चूका है, पर एक भयानक घरेलू डर अब भी मन में बैठा हुआ है। कहीं आप भी तो उस डर से ग्रसित नहीं हैं?