श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : भूख और चुनाव

श्रीराम पुकार शर्मा

“अरे सुन रे! क्या नाम है रे तेरा?” – इस बार की ‘ग्राम पंचायत’ की चुनाव में गाँव की ओर से ‘पार्षद’ हेतु खड़ी प्रार्थी ‘आरती मान’ के पतिदेव सूर्यमान ने कुछ रोबदार शब्दों में पूछा। इसके पूर्व विगत कई वर्षों से स्वयं सूर्यमान ही ग्राम पंचायत की चुनाव में अपने गाँव से ‘पार्षद’ के प्रार्थी के रूप में खड़ा हुआ करते थे और वही विजयेता भी रहा करते थे। गाँव भर में उनकी जाति के ही लोगों की संख्या अधिक है।

पंचायत चुनाव जैसे पावन पर्व पर ही तो गाँव भर के बूढ़े-बुजुर्गों में माता-पिता की छवि, हमउम्र के लोगों में भाई की छवि और उनकी पत्नी में बहन की छवि स्पष्ट गोचर होने लगती है। ऐसे अवसरों पर जनता- जनार्दन की शिकायतों को और उनकी असहनीय कडुवी बातों को सादर सिर नवाकर ध्यानपूर्वक सिर्फ सुनने की क्रिया प्रार्थी के लिए सोने पर सुहागा का काम करती है। फिर यही तो प्रार्थी के भविष्य की दिशा को निर्धारित भी करता है।

ऐसे ही समय में जाति-बिरादरी का भी अनायास स्मरण हो जाया करता ही है। परदेश में बसे जाति-बिरादरी के लोगों को भी साग्रह बुलाया जाता है। उनमें अपनी ही जाति के प्रार्थी को जिताने की बातें वशीकरण महामंत्र जैसी कार्य करती है। सूर्यमान कई बार इस वशीकरण महामंत्र का सफल प्रयोग कर चूके हैं। नतीजन वे कई बार बहुत ही मार्जित मतों से विजयी रहा करते थे।

लेकिन इस बार की चुनाव में इस गाँव को महिला प्रार्थी के लिए संरक्षित कर दिया, पर सरकारी सुख-सुविधाओं युक्त प्राप्त मधुरम् स्वाद से कैसे मुँह मोड़ लेवें। गाँव भर के लिए अब तक सरकारी सुविधाओं की निर्मल धारा आखिर उनके ही द्वार से तो बहती रही है, वह धारा किसी और के द्वार से बहने लगे, यह कैसे स्वीकार हो? जन-सेवा की अटूट तथाकथित चाहत में इस बार उन्होंने अपनी धर्मपत्नी ‘आरती देवी’ को ही ग्रामवासियों के समक्ष प्रार्थी के रूप में खड़ा कर दिया।

लेकिन यह सर्वविदित है कि कागजों और झंडों पर आरती देवी का नाम भले ही हो, पर मूल प्रार्थी तो स्वयं सूर्यमान ही हैं। आरती देवी भला राजनीति की बातें क्या जानेंगी, निशाना तो वे ही साधेंगे। “पोखन, यही मेरा नाम है, मालिक। और इसका नाम करीमन है।” – अपने रिक्शे में पार्टी के झंडों को बाँधते हुए अधेड़ उम्र के पोखन ने सादर उत्तर दिया।

दोनों ही अब तक के समस्त सरकारी सुख-सुविधाओं से वंचित सर्वहारा पारिवारिक वर्ग से सम्बन्धित सदस्य हैं। अपनी अपनी थोड़ी-सी खेती की जमीन को विगत वर्ष बैंक के पास गिरवी रख कर ही दोनों एक-एक रिक्शा खरीदे, फिर अपने खून-पसीने से बने तेल-ग्रीस को उसमें डाल कर अपने परिजन के जिम्मेवारियों की बोझ को उसके हैंडल पर रख, अपने अरमानों के पैरों से पैडल मारने लगे। फिर पेट की धधकती उफान इससे प्राप्त धन-रस के कुछ छीटें से क्षीण होने लगीं।

“ठीक है, तुम दोनों पूरे गली-मोहल्ले में घूम-घूम कर ‘आरती देवी’ के पक्ष में प्रचार करना, गाँव का कोई गली-मुहल्ला छूटने न पाए, समझे… शाम को अपनी मजूरी ले जाना।” – सूर्यमान की रोबदार आदेशात्मक आवाज गूंजी। “हमलोग नए थोड़े ही हैं मालिक, कि आपको समझाना पड़ेगा, आप निश्चिन्त रहिये गाँव का कोई भी गली-मुहल्ला बाकी न रहेगा। हर गली और हर घर में ‘आरती देवी’ की पर्ची भी हम पहुँचा देवेंगे।”

शहजादा ने अपने कार्य के प्रति विश्वास जताते हुए कहा। फिर रिक्शे के ‘हैंडल’ को एक ओर मोड़ कर उसे घुमाया और हैंडल पर बँधे ‘माइक’ को ‘टेस्ट’ करने लगा, – “हेलो… हेलो… माइक… टेस्टिंग। वन.. टू… थ्री………… हेलो। हाँ अब ठीक है। मुहल्ले भर के सभी माताओं और बहनों, सभी चाचाओं और भाइयों, सभी दादा और दादियों, भूल न जाना, आप का चुनाव चिह्न ‘घर’ है। आप सभी ‘घर’ चुनाव चिह्न पर मुहर लगा कर अपने घर की बहु ‘आरती देवी’ को भारी मतों से विजयी बनावें और अपने-अपने घर-परिवार को सुरक्षित रखें। याद रखेंगे आपका चुनाव चिह्न ‘घर’ है।

सभी माताओ और बहनों ………. ।”
बारी-बारी से कभी पोखन और कभी करीमन की आवाज माइक पर गाँव की विभिन्न गलियों और मुहल्लों में गूँजने लगी। गाँव के छोटे-छोटे बच्चें भी उनके रिक्शे के पीछे-पीछे उनकी ही आवाज की नकल करते हुए चिल्लाते हुए उनके पीछे-पीछे चलने लगे, जैसे कि कोई मदारी का खेल हो रहा हो।

“क्यों रे करीमन! आज तुमलोग किसकी ओर से प्रचार कर रहे हो, सूर्यमान की ओर से क्या?” – ब्राह्मण टोली के शिवशरण दूबे जी अपने पोते की बाँह को पकड़े कुछ किनारे होते हुए पूछे। “बाबा! देखते नहीं हो, आज आरती देवी का प्रचार कर रहे हैं।” – पोखन रिक्शे पर से ही माइक के ‘माउथ स्पीच’ को थोड़ा अलग करके उत्तर दिया। जबकि पोखन बहुत ही धीरे-धीरे रिक्शा को चलाये जा रहा था।

“तब का है? तुम दोनों के दसो अंगुलियाँ तो आज घी में ही है। ठाट से खाओ-पियो ऊपर से पैसा अलग से।” – थोड़ी-सी मुस्कराहट के साथ दूबे जी बोले और अपने पोते के साथ पास की एक पतली गली में प्रवेश कर गए, पर उनका पोता पीछे मुड़ कर बार-बार झण्डों से सजे रिक्शा और उसके पीछे कूदते-फांदते अन्य बच्चों को देख रहा था।

“अरे पोखन! कल तो तुमलोग कलावन्ती कहार के लिए प्रचार कर रहे थे और आज आरती देवी का, यह कौन-सी बात हुई? आखिर तुमलोग किसके पक्ष के हो?” – गाँव के ही एक बुजुर्ग निजाम अंसारी अपने हाथ की करनी को रोक कर पूछ बैठे, जो बाँस के बने एक ऊँचे चाल पर खड़े होकर सुरेन बाबू के घर के बाहर की टूटी-फूटी दीवार को सीमेंट-बालू से पलस्तर कर रहे थे।

उसके नीचे ही एक रेजा एक बड़े कड़ाही में सना हुआ सीमेंट-बालू को लेकर खड़ा पोखन और करीमन को निहार रहा था। सुरेन बाबू को यह सब बहुत ही बुरा लग रहा था क्योंकि उनकी बात-चित से उनके कार्य में अवरोध पैदा हो रहा है I जबकि शाम होते ही निजाम अंसारी और उस रेजा को दिनभर की पूरी मजूरी देना पड़ेगा पर व्यक्त करने का यह कोई उचित समय भी तो न था, शाम को ही देखा जायेगा।

“का करें निजाम चाचा, हम तो मजूर हैं। मजूर हमेशा से मजूरी के पक्ष में ही तो रहता है, जो दो पैसे देगा, उसी के पक्ष का बन कर उसकी ओर से प्रचार करेंगे। हमको क्या पड़ा है चुनाव-उनाव से, हमको तो अपने पेट भरने से मतलब है। ई बात भी सही है कि ई चुनाव के बहाने कुछ दिन अच्छा से कट जाता है। बाकी दिन तो फिर फांके में ही गुजरता है।….. भाइयों और बहनों, माताओं और चाचाओं, दादियों और दादाओं अपना चुनाव चिन्ह भूल न जाना, आरती देवी के चुनाव चिन्ह ‘घर’ पर ही अपना मुहर लगाना…..।” और रिक्शा आगे निकल गया।

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