विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम की कविता का हिंदी अनुवाद

।।विद्रोही।।

मूल बांग्ला कविता : काजी नजरूल इस्लाम
(हिंदी अनुवाद : श्री गोपाल मिश्र)

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बोलो वीर! बोलो उन्नत मम शीश!
मस्तक निहारि मोरि… झुकाये शिखर हिमाद्रि!
बोलो वीर!
बोलो महा विशेश्वर महाकाश फाड़
चंद्र सूर्य ग्रह तारा परिहार
इहलोक परलोक, गोलक भेद कर
ख़ुदा का तख़्त अर्श छेद कर।
उठा हूं चिर-विस्मय, मैं संतति विश्व-विधात्री का!
मेरे ललाट पर विराजे रूद्र भगवान, सोहे राज-राजतिलक,
जले दीप जयश्री का!
बोलो वीर!
मैं चिर उन्नत सिर!
मैं चिर दुर्गम, दुर्विनीत, नृशंस!
महाप्रलय में मैं नटराज; मैं साइक्लोन, मैं ध्वंस!
मैं महा भय, मैं धरणी का अभिशाप!
मैं दुश्वार,
करूं सर्वस्व सहज संहार!
मैं अनियम, उच्छृंखल – तोड़ डालूं मैं सारे बन्धन!
सारे नियम कानून श्रंखल!

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नहीं मानता जी! मैं कोई विधान!
लदी-सजी तरणी को भी कर दूं तिरोहित
मैं टारपीडो, मैं भीम! जल-प्लावित शहर!
मैं धूर्जटि! मैं स्थानीय झंझा अकाल वैशाखी का!
मैं विद्रोही! मैं विश्व-विधात्री का विद्रोही पुत्र!
बोलो वीर!
चिर उन्नत मम शीश!
मैं झंझा! मैं घूर्णन! पथ में जो पाऊं, उसे पीस दूं चूर्णन!
मैं नृत्य गोपाल छंद।
अपनी ही ताल पर नाचता जाऊं…
मैं मुक्त जीवनानंद!
मैं हम्वीर! मैं छाया नट, मैं हिन्दोल!
मैं चल चंचल ठुमकी छुमकी
चलते चलते भरमाये चकित सी
वेग मार, मैं दूं तीन डोल।
मैं चपल चंचल हिन्दोल!
वही करता हूं मैं, जो जब मन चाहे
करूं शत्रु संग गलबहियां! लड़ूं मृत्यु संग पंजा!
मैं उन्माद! मैं झंझा!
मैं महामारी, मैं भीति इस धरित्री का…
मैं शासन-त्रासन, संहार!
मैं उष्ण- चिर जिजीविषा!

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बोलो वीर!

मैं चिर उन्नत शीश!
मैं चिर-दुरंत दुर्मद!
मैं दुर्घम, मुझे प्राणों से प्यारा हरदम-हाय-हरदम
भरपूर मद!
मैं हवन शिखा में साग्निक जमदग्नि
मैं यज्ञ, मैं पुरोहित, मैं अग्नि!
मैं सृष्टि, मैं ध्वंस, मैं लोकालय, मैं श्मशान!
मैं अवसान! मैं निशावसान!
मैं इंद्राणी-पुत्र! हाथ में चंद्र! भाल पर सूर्य!
एक हाथ में मेरे, वक्र बांस की बांसुरी
अन्य हाथ में रण-तूर्य!
मैं कृष्ण कंठ! मंथन विष पीकर, व्यथा वारिधि का…
मैं व्योमकेश! बांधू बन्धन-मुक्त धारा गंगोत्री का।
बोलो वीर!
चिर उन्नत मम सिर!
मैं संन्यासी, मैं सुर-सैनिक
मैं युवराज! मैं राजवेश म्लान गर्वित
मैं बेदुईन! मैं चंगेज़!
खुशामद से किसी की, हमेशा ही रहा परहेज!
मैं वज्र! मैं ईशान-विषाण में ॐकार!
मैं इस्राफिल का श्रृंगार…

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महा हुंकार!

मैं पिनाक-पाणि का डमरू-त्रिशूल।
धर्मराज का दंड!
मैं चक्र महाशंख! मैं प्रणव-नाद प्रचंड!
मैं क्रुद्ध दुर्वासा; विश्वामित्र शिष्य
मैं दावानल दाह! दहन करूं विश्व!
मैं उन्मुक्त हंसी,उल्लास!
मैं सृष्टि वैरी महात्रास!
मैं महाप्रलय का द्वादश! रवि का राहु-ग्रास!
मैं कभी प्रशांत! कभी अशांत! दारूण स्वेच्छाचारी!
मैं अरूण रक्त का तरूण! मैं विधि का दर्प हारी!
मैं प्रभंजन का उच्छवास! मैं वारिधि का महाकल्लोल !
मैं उज्जवल! मैं प्रोज्ज्वल…
मैं उच्छल जल छल-छल
चल ऊर्मि का हिंदोल डोल!
मैं बन्धन मुक्त वेणी कन्या की…
तन्वी नयन की अग्नि!
मैं षोड़शी के हृदय में उपजा…
उद्दाम प्रेम-
मैं धन्य!
मैं उन्मन मन उदासी!
मैं विधवा के उर का क्रंदन-श्वास!

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हा हताश! मैं हताश!

मैं वंचित व्यथा पथ वासी, चिर गृह हीन पथिकों का
मैं अपमानित मर्म वेदना विष-ज्वाला
प्रियलांजित उर का गति फेर,!
मैं अभिमानी! चिर क्षुब्ध! हृदय की कातरता,
व्यथा सुनिश्चित!
चित-चुम्बन चोर कम्पन मैं,
थर-थर थर प्रथम स्पर्श कुमारी का!
मैं गुप्त प्रेयसी का शर्मीला आशिक,
छल से देखने का उद्वेलन!
मैं चंचल चपला का उन्मुक्त प्रेम…
उसकी चूड़ियों का खन-खन!
मैं चिर शिशु! मैं चिर किशोर!
मैं यौवन भीरु, पल्ली-बाला की अदाओं से भरमाया!
मैं उत्तरी बयार! मलय अनिल! उद्दांग पूरबी हवा!
मैं चारण कवि की मधुर रागिनी!
वेणु की धुन पर छिड़ा राग!
मैं आकुल, निदाध जिज्ञासा! मैं रौद्र रूप रवि!
मैं मरू-निर्झर कल-कल,
मैं श्यामलिना छाया-छवि!
आत्म-आनंद में मैं दौड़तै चलूं…
यह कैसा उन्माद! मैं उन्माद !!

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सहसा मैंने है, स्वयं को समझा…
खुल गये हैं सब बांध!

मैं उत्थान! मैं पतन! मैं अचेतन चित्त का चेतन!
मैं विश्व तोरण की वैजयंती, मानव विजय केतन!
दौड़ता हूं ऑंधी की तरह करतल ध्वनि करता,
स्वर्ग मर्त्य के तल पर!
अश्व, पक्षिराज और उच्चश्रवा हैं वाहन मेरे!
हिम्मत के साथ बढ़े चलें!
मैं वसुधा के वक्ष पर आग्नेयराद्रि,
लपट की भांति उठता चलूं दावानल!
मैं पाताल में, मन्मत्त अग्नि पंख सा
कोलाहल-कल-कोलाहल!
मैं तरणी में बैठ उड़ता चलूं, उड़ान भर कर,
छ्लांग लगा कर!

मैं संत्रास का संवाहक! सहसा भूमि पर,
संचारित करता हूं भूमि-कम्प!
लपक कर पकड़ता हूं वासुकि का फन!
पकड़ लेता हूं, जिब्राइल के अग्नि-पंखी सर्प को!
मैं देव शिशु! मैं चंचल!
मैं धृष्ट! दांतों से फाड़ता हूं विश्व-जननी का ऑंचल!

मैं ऑर्फियास की बांसुरी!

7/9
महा सिंधु उत्तला घूम घूम घूम

चुम्बन से कर दूं निखिल विश्व निर्झूम!
मेरी बांसुरी की तान माधुरी!
मैं श्याम के हाथ की बांसुरी!
रूठ जाता हूं जब! दौड़ता हूं महाकाश को लांघता हुआ!
भयभीत सप्तम नर्क! टिम टिम सिहरता-कांपता हुआ!
मैं विद्रोह-वाही निखिल विश्व फैलता हुआ!!
मैं श्रावण-प्लावन की बाढ़ विभीषिका!
कभी धरणी का करूं वरण! कभी विपुल ध्वंस का कहर!
छीन लाऊंगा मैं विष्णु के वक्ष से युगल कन्या!
मैं अन्याय! मैं उल्का! मैं शनि!
मैं धूमकेतु ज्वाला विषधर काल-फणि!!
मैं छिन्न-मस्तिका चंडी! मैं रणदा सर्वनाशी!
जहन्नुम की ज्वाला पर बैठा मैं,
हंसता हूं पुष्पज हंसी!
मैं मृन्मय! मैं चिन्मय!
मैं अजर अमर अक्षय! मैं अव्यय!
मैं मानव दानव देवताओं का भय!
विश्व का मैं चिर-दुर्जेय!
जगदीश्वर! ईश्वर मैं पुरूषोत्तम सत्य!
ता थय्या ता थय्या नाचता फिरूं!
चाहे, स्वर्ग-नर्क हो या मर्त्य!

8/9
मैं उन्माद! मैं उन्माद !!!

मैंने पहचान लिया है स्वयं को, खुल गये हैं सब बांध!
मैं परशूराम का कठोर-कुठार।
नि:शत्रु करूंगा मैं विश्व!
लाऊंगा शांति का शांत प्रस्ताव।
मैं हूं हल, बलराम के स्कंध का
उखाड़ फेकूंगा मैं पराधीन विश्व
करूंगा नयी सृष्टि, महानंद से!
महा विद्रोही! रण-क्लांत!
उस दिन ही होऊंगा मैं शांत!
जब उत्पीड़ित के क्रंदन से नहीं गूंजेगा
यह आकाश-वाताश!
अत्याचारी का खड्ग कृपाण!
नहीं मचा पायेगा रण में संत्रास!
मैं विद्रोही रण-क्लांत!
उस दिन ही होऊंगा शांत!
मैं विद्रोही भृगु! भगवान के वक्ष पर भी ऑंक दूं पद-चिन्ह

मैं स्रष्टा-सूदन शोक-ताप
हाना ख़याली विधि का वक्ष- कर दूंगा छिन्न!
मैं विद्रोही भृगु! भगवान के वक्ष पर भी ऑंक दूं पद-चिन्ह!
मैं ख़याली विधि का वक्ष, कर दूंगा छिन्न!!

9/9
मैं चिर विद्रोही वीर; विश्व भर में
उठा हूं मैं अकेला ही…
चिर उन्नत शीश!

(समाप्त)

(साहित्यकार, फिल्म पटकथा लेखक, गीतकार व शिक्षक)

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