पत्नी भी घरेलू हिंसा कर सकती है और ‘मर्द को भी दर्द’ हो सकता है

नई दिल्ली। अपने देश के किसी वायुसेना स्टेशन में मेरे साथ एक युवा लड़का कार्य करता था। नाम था राघवेंद्र। वह बहुत ही मेहनती और खुशमिजाज बंदा था। मैं जब नया-नया पोस्टिंग में आया तो देखता कि महीने-दो महीने में उसके पास अफवा (Air Force Wives Welfare Association) से फोन आ जाता और सारे कार्य छोड़कर वह भागता। किसी अन्य कार्य के लिए घंटे भर की छुट्टी देने में आनाकानी करने वाले अधिकारी अफवा का नाम सुनते ही कांप जाते थे। कहते पहले इसे वहां भेजो, यहां का कार्य तो कोई भी कर लेगा।

अफवा से जब राघवेंद्र वापस आता तो अत्यंत निराशा और मायूस होता। मैं उसके व्यक्तिगत मामलों में दखल नहीं देना चाहता था लेकिन कुछ महीनों में वह मेरा प्रिय साथी बन गया था। इसलिए एक दिन एकांत पाकर मैंने पूछ ही लिया – “राघवेंद्र तुम्हारा क्या मामला है? क्यों तुम्हें लगभग हर महीने अफवा में रिपोर्ट करने जाना पड़ता है??”

पहले तो वह टालता रहा। लेकिन मेरे बार-बार आग्रह करने पर उसने अपने दिल की बात बतानी शुरू कर दी। उसने बताया कि- सर, मैं हरियाणा के एक छोटे से गांव का रहने वाला हूं। मेरे माता-पिता खेती-बाड़ी करते हैं। वह दोनों खुद तो अधिक पढ़े लिखे नहीं है लेकिन उन्होंने अपनी क्षमता से अधिक मुझे पढ़ाने पर खर्च किया। खेती-बाड़ी के कार्यों से तो मुझे दूर ही रखा, साथ ही भैंस-गाय का चारा-पानी भी परीक्षा के दौरान पिताजी मुझे नहीं करने देते थे। कहते कि बेटा पढ़ लिख लेगा तो बाबू बन जायेगा।

पेरेंट्स के आशीर्वाद और मेरी मेहनत के फलस्वरूप पहले ही प्रयास में मेरा वायु सेवा में चयन हो गया। सेलेक्शन होने के कुछ वर्षो बाद से मेरे लिए आसपास के गांवों से कई रिश्ते आए। रिश्ते के लिए आई लड़कियां फ़ोटो में सुंदर दिखती थी, उनके पिताजी दान दहेज भी खूब देना चाहते थे लेकिन मेरे पिताजी चाहते थे कि मेरे लड़के की शादी किसी शहर की पढ़ी-लिखी लड़की से हो। ताकि जो परेशानी मेरे बेटे को उठानी पड़ी वह मेरे पोतों को न उठानी पड़े।

कुछ वर्षो पश्चात दिल्ली के एक वकील की पढ़ी-लिखी बेटी से मेरा रिश्ता तय हुआ। विवाह के समय मेरी पत्नी मेरे गांव आई और बमुश्किल दो हफ्ते रही होगी। इस दौरान वह खुद और उसके मां-बाप मेरे ऊपर दबाव डालते रहे कि अगली बार छुट्टी में आना तो इसे अपने साथ ले जाना, मेरी लड़की गांव में नहीं रहेगी।

यह बात मैने अपने पेरेंट्स को बताई तो वह बोले कि ठीक ही तो कह रहे हैं वो लोग। हम दोनों स्वस्थ हैं, सारा कार्य खुद कर लेते हैं। तू इसे अपने साथ ले जा अगली बार। वहां जाकर किसी स्कूल में पढ़ावेगी, तो हमारा भी नाम होगा कि फलाने चौधरी की बहू और बेटा दोनों नौकरी करे हैं। बस दो-चार महीने इसे यहां रुक जाने दे ताकि यह घर परिवार, नात-रिश्तेदारों को पहचान ले।

लेकिन मेरी छुट्टी खत्म होने के अगले ही दिन मेरे ससुर बिदा कराने आ गए। मेरे पिताजी ने अनुरोध भी किया कि- “चौधरी साहब कुछ दिन और रुक जाती छोरी तो ठीक रहता।” लेकिन वकील साहब नहीं माने और अपनी बिटिया को लेकर दिल्ली चले गए।

अगली बार मेरी पत्नी मेरे साथ आ गई। उसके बाद से जब भी मैं छुट्टी जाता हूँ तो मेरी पत्नी अपने मायके में ही रुक जाती है। मैं अकेले अपने गांव जाता हूँ। कुछ भी कहो तो आसमान सिर पर उठा लेती है, तांडव करने लगती है। जब मुझसे घर वाले पूछते कि बहू साथ क्यों नहीं आई तो कभी सास-ससुर की बीमारी का बहाना बनाया, कभी पत्नी की कोई परीक्षा है, यह कहकर टालने का प्रयास किया। कभी उनके परिवार में किसी फंक्शन होने का बहाना बना दिया। लेकिन जब हर बार ऐसा होने लगा तो परिवार वाले भी समझ गए कि मामला कुछ और ही है।

परिवार वालों को तो मैंने फिर भी किसी तरह समझा दिया लेकिन पड़ोसी और रिश्तेदारों ने ताना देना शुरू कर दिया कि ऐसा क्या हुआ कि चौधरी की बहू उनके घर ही नहीं आती है? कहीं भाग तो नहीं गई?? तलाक तो नहीं हो गया?? जितने मुंह, उतनी बाते।

पत्नी के घर न जाने तक तो फिर भी ठीक था। मैं किसी तरह बर्दाश्त कर ही रहा था। लेकिन श्रीमती जी ने यहां भी अपना त्रिया चरित्र दिखाना शुरू कर दिया। खाना अक्सर बाहर से आता है, घर के छोटे-मोटे काम मुझे खुद ही करने पड़ते हैं क्योंकि उसे घरेलू कार्य सिखाए ही नहीं गए हैं। कुछ दिन मैं यह सोचकर संतोष करता रहा कि यह धीरे-धीरे गृहकार्य सीख लेगी। यहां तो वैसे भी कौन सा अधिक कार्य है। दो मुर्गियों का दो बार भोजन ही तो बनाना है। कभी-कभार बाहर से मंगा लो तो भी चलेगा लेकिन रोज का अगर बाहर से मंगाया तो शादी करने और कुंवारा रहने में क्या अंतर हुआ जीवन में?

लेकिन न उसे कुछ सीखना था, न उसने सीखा। मुझ पर नौकरानी लगवाने के दबाव जरूर डालती रही। एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया तो मैंने अपनी पत्नी से स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि ऐसा बहुत दिनों नहीं चलेगा। तुम्हें घर के काम करने सीखने ही पड़ेंगे और साल में कम से कम एक बार तो मेरे घर जाना ही पड़ेगा। चाहे कुछ दिन रहो लेकिन हर बार मायके में रुकना अब मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा।

इस पर वह भड़क गई। बोली मेरे पापा ने इतना पैसा झाड़ू, पोछा, बर्तन करने के लिए नहीं दिया है। अब तक नहीं किया है, आगे भी नहीं करूंगी। तुम्हारे पिछड़े और धूल-धक्कड़ वाले गांव कभी नहीं जाऊंगी। मुझे पर्दे में रहने और सुबह जल्दी उठने की आदत नहीं है। याद रखो मेरे पापा वकील हैं। ज्यादा उड़ोगे तो इतने केस करवा दूंगी कि बाकी उमर जेल में गुजरेगी।

मुझे लगा कि सिर्फ वह गीदड़ भभकी दे रही है। लेकिन वह सीरियस थी। अगले ही दिन अपने पापा से मंत्र लेकर उसने अफवा में जाकर कंप्लेंट कर दी कि मेरा पति राघवेंद्र मुझे परेशान कर रहा है। घरेलू हिंसा करता है। दहेज की मांग करता है और भी बहुत कुछ।

अफवा ने तुरंत इसका संज्ञान लिया और मुझे बुलाकर खूब डांट पिलाई तथा चेतावनी दी कि भविष्य में ऐसी कोई शिकायत आई तो तुम्हें कठोर दंड दिया जाएगा। मैंने अपनी बात कहने की कोशिश की तो मैडम बोली- “तुम्हारे ससुर का भी ऑफिस में फोन आया था। यह तो भला हो जो मेरे कहने से मान गए, वरना वह तो सिविल में केस दर्ज कराने जा रहे थे। एक बार वहां केस दर्ज हो जाता तो तुम्हारी नौकरी भी जाती और तुमको और पूरे परिवार को जेल भी होती। ”

मेरे मां-बाप की अपनी बहू को देखने की इच्छा, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ताने, ससुर के दबंग व्यवहार, पत्नी के प्रपंच और अफवा की यातना से तंग आकर मैं मन ही मन घुटने लगा। ऊपर से तो हंसता था, खुश होने की एक्टिंग करता था, पर मेरी आत्मा सुबक-सुबक कर रोती थी। मैं अंदर से टूटता जा रहा था। शायद इसी सब का परिणाम था या ईश्वर मेरी और परीक्षा लेना चाहते थे, मै कुछ ही दिनों में ओसीडी से पीड़ित हो गया। मुझे सफाई की सनक सवार हो गई। हाथ धोता तो धोता ही रहता। घर में घंटो स्नान करता। ड्यूटी के दौरान कभी लैट्रिन के लिए जाना होता तो अपने सरकारी आवास जाता हूँ।

जब परेशानी कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। तो मुझे दो महीनो के लिए कमांड हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा। मेरी परेशानी समझने के बजाय मेरी पत्नी और उसके पिता को लगा कि मैं बचने के लिए, सहानुभूति प्राप्त करने के लिए यह सब नाटक कर रहा हूँ। मेरे ससुर ने अफवा को पत्र लिखकर फिर से मेरी शिकायत कर दी। अफवा ने फिर मुझे बुलाकर हड़काया और स्टेशन की एक लेडी काउंसलर के पास भेज दिया। काउंसलर ने मुझे और मेरी पत्नी को बुलाया, दोनों की बातें सुनी।

फिर समझाया कि मुझे ही एडजस्ट करना पड़ेगा। “अगर तुम्हारी पत्नी घरेलू कार्य नहीं करती, तुम्हारे घर नहीं जाती तो यह सब बातें तुम्हें शादी के पहले तय करनी चाहिए थी। अब इन बातों को तूल देने का कोई फायदा नहीं है। अगर इसने दहेज की मांग या घरेलू हिंसा का केस कोर्ट में डाल दिया तो तुम्हारे लिए बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी।” कुल मिलाकर मुझे वहां भी निराशा ही हाथ लगी।

मैंने राघवेंद्र की सारी बातें धैर्य से सुनी और शायद मामला भी मेरी समझ में आ गया था। लेकिन अफसोस कि मैं उसे सांत्वना देने, समझाने, धैर्य रखने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता था। मेरे ऊपर के अधिकारी भी शायद सच जानते होंगे लेकिन एकतरफा नियमों के कारण और अपना असेसमेंट खराब होने के डर से वह भी चुप थे।

इस दौरान राघवेंद्र की अफवा में रिपोर्टिंग जारी रही। बीच में उसे दो-तीन बार अस्पताल में भी एडमिट होना पड़ा। लेकिन पहले की तरह उसकी पत्नी और ससुर यही समझते और प्रचार करते रहे कि राघवेंद्र नाटक कर रहा है। इधर एयरफोर्स की अफवा और वहां के अधिकारी भी उसे ही डांटते रहे, मेंटल टॉर्चर करते रहे।

मैं राघवेंद्र का SNCOic था। रोज सुबह परेड स्टेट सबमिट करने की जिम्मेदारी मेरी थी। कौन किस ड्यूटी पर है, कौन अस्पताल गया है और कौन छुट्टी पर है, मुझे परेड स्टेट में दर्शाना पड़ता था।

एक दिन सुबह छह बजे के आसपास मेरे मोबाइल में राघवेंद्र का फोन आया। मुझे लगा कि शायद देर से आने या हॉस्पिटल जाने की सूचना देना चाहता है। लेकिन उसने अप्रत्याशित बात कह दी। वह बोला-” सर मैं किसी अज्ञात स्थान पर चला गया हूं और आपको इसलिए बता रहा हूं ताकि परेड स्टेट में मुझे आप एबसेंट शो कर दें। आप अच्छे आदमी हैं, मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण आपके ऊपर कोई परेशानी आए।”

यह कहकर उसने अपना फोन काट दिया। मैंने तुरंत ही डायल बैक किया। कई बार प्रयास किया परंतु उसका फोन हर बार स्विच ऑफ आता रहा। मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही थी। वहां पहुंचकर जैसे ही मैंने परेड स्टेट में राघवेंद्र को अब्सेंट शो किया और इसकी मौखिक जानकारी अपने उच्च अधिकारियों को दी, वहां हाहाकार मच गया। वायुसेना में AWL (absent without leave) अत्यंत गंभीर अपराध माना जाता है। इसलिए वारंट अफसर से लेकर बड़े अधिकारियों तक मेरी रिपोर्टिंग होने लगी। सबका एक ही सवाल था।” तुम उससे बात करो और पूछो वह कहां है? उसे किसी भी तरह समझाकर वापस बुलाओ।”

मैंने बताया कि उसका मोबाइल नंबर स्विच ऑफ आ रहा। आप लोग चाहें तो स्वयं भी प्रयास कर सकते हैं। मैंने यह भी महसूस किया कि अधिकारियों को राघवेंद्र की चिंता उतनी नहीं थी, जितना उन्हें इस घटना से अपना एसेसमेंट खराब होने का डर था। इसलिए मुझसे कई तरह से और कई लोगों द्वारा जानकारी ली गई कि शायद मैं कुछ छुपा रहा हूं। लेकिन जब तमाम प्रयासों के बाद भी मैं अपने स्टैंड पर कायम रहा तो वह लोग भी संतुष्ट हो गए कि मुझे भी उतना ही पता है, जितना मैं बता रहा हूँ।

अब प्रशासन तक यह रिपोर्ट पहुंचाना मजबूरी हो चुकी थी। प्रथमदृष्टया तो प्रशासन भी राघवेंद्र को ही दोषी मानता रहा। लेकिन जब एक अधिकारी राघवेंद्र के सरकारी आवास पर गया और उसकी पत्नी से बात की तो वह अनजान बनने का नाटक करती रही। जैसे कि उसे कुछ पता ही न हो। वह अधिकारियों के सामने भी राघवेंद्र पर ही आरोप मढ़ती रही। तब उन्हें समझ आया कि जिसे वे अबला नारी समझ रहे थे, वह वकील की तेजतर्रार बेटी है।

पूरे तीन दिन तक राघवेंद्र वापस नहीं आया। इस दौरान मैंने उससे संपर्क करने की कोशिश की तो उसका फोन स्विच ऑफ आता रहा। चौथे दिन वह वापस आया, सबसे पहले मुझसे मिला और बोला – “सर, मुझसे घर और बाहर का टॉर्चर बर्दाश्त नहीं हो रहा था। इसलिए मैं भाग गया था। अभी मन कुछ शांत है।”

मैं उसे तुरंत ही उच्च अधिकारियों के पास ले गया तो उसने पूरी दृढ़ता से कहा- “अब मुझे किसी का डर नहीं है। आप लोग इस बारे जो भी सजा देना चाहें, दे दें। लेकिन अगर मेरी बात अब भी न सुनी गई तो अगली बार जाऊंगा तो फिर कभी वापस नहीं आऊंगा।”

तब जाकर अधिकारियों को महसूस हुआ कि हर मामले में पत्नी ही पीड़ित और पति दोषी नहीं होता है। पत्नी भी घरेलू हिंसा कर सकती है और ‘मर्द को भी दर्द’ हो सकता है।

(विनय सिंह बैस)
राघवेंद्र के मित्र

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)

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