विनय सिंह बैस की कलम से- लोक आस्था का महापर्व छठ

नई दिल्ली। लोक आस्था का महापर्व छठ मुझे इसलिए बेहद पसंद है क्योंकि बाजारीकरण का बुरा प्रभाव इस पर अभी तक नहीं पड़ा है। सूर्य देव की उपासना का यह पर्व मुझे इसलिए भी पसंद है क्योंकि ब्लडी बॉलीवुड, नारी सशक्तिकरण गैंग, वक्र वामपंथी टोली, क्रिप्टो क्रिश्चियन कर्मी आदि अपने तमाम कुत्सित प्रयासों के बावजूद भी इस पर्व में सेंध नहीं लगा पाए हैं।

छठ मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि इसमें ब्राह्मण से लेकर डोम तक, बढ़ई से लेकर कुम्हार तक, माली से लेकर कुर्मी तक सभी जातियों का योगदान रहता है। किसी एक जाति को भी छोड़ देने से छठ पर्व पूर्ण नहीं हो पाएगा।

वास्तविक सामाजिक समरसता का यह पर्व मुझे इसलिए भी पसंद है क्योंकि भगवान सूर्य की जाति अभी तक राजनेताओं द्वारा निर्धारित नहीं हुई है और इसलिए उनके भक्तों की भी कोई जाति, वर्ग, मत नहीं है। छठ मैया के सारे भक्त सिर्फ सनातनी हैं, केवल हिंदू हैं, बस प्रकृति पूजक हैं। छठ मैया सबकी हैं, सब उनके हैं।

विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति का यह विराट उद्घोष बिहार, झारखंड की सीमाएं कब का तोड़ चुका है। आज देश के सभी बड़े महानगरों, यहां तक कि विश्व के प्रमुख शहरों में भी यह पर्व अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर चुका है। अमरीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक और इंग्लैंड से लेकर पोलैंड तक छठ मइया की महिमा पहुंच चुकी है।

उत्तर प्रदेश में पूरब से पश्चिम यानि देवरिया से गोरखपुर, गोरखपुर से बस्ती, बस्ती से लखनऊ होते हुए छठ मइया का रथ अब हमारे गृह जनपद रायबरेली की देहरी तक आ पहुंचा है। चार ट्रिलियन इकोनॉमी वाले विश्वशक्ति भारतवर्ष के पांच ट्रिलियन इकोनॉमी वाली महाशक्ति बनने से पूर्व यह पर्व बैसवारा के डलमऊ और गैंगासों घाट पर मनाया जाने लगे तो मुझे बिल्कुल भी आश्चर्य नहीं होगा।

(विनय सिंह बैस)
छठ मैया के उपासक

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

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