आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। गंभीर स्वभाव, बड़ी सी बड़ी विपत्ति में शांत-चित्त बने रहना, अपना कार्य अत्यंत खामोशी से करना और कई बार गलत न होते हुए भी अपने से बड़ों यहां तक कि छोटों की भी खरी-खोटी सुन लेना पापा का सहज स्वभाव था। पापा के इन दुर्लभ गुणों का हम भाई-बहनों को तो बहुत फायदा हुआ क्योंकि कई बार अक्षम्य गलती, बदमाशी करने पर भी पापा ने बस डांट कर छोड़ दिया। लेकिन इसका नुकसान शायद उनकी तमाम बहनों को झेलना पड़ा।
पापा की कोई सगी बहन नहीं थी, इसलिए राखी के दिन उनके दाहिने हाथ पर तमाम रंग बिरंगी राखियां सज जाया करती थी। कुछ सादे धागे वाली, कुछ भगवान के फोटो वाली, कुछ सोख्ते से बनी मोटी-ऊंची कई मंजिलों वाली फुलरे वाली राखियां। कलाई से कोहनी तक राखियां सजी होती थी।
पापा इंटर कॉलेज में अध्यापक थे, ठीक-ठाक कमाते थे। लेकिन मैंने पापा की किसी भी बहन को चाहे वह उनसे उम्र में छोटी हो या बड़ी, रक्षाबंधन के दिन मजाक या दुलार में भी कभी उनसे पैसे-रुपए मांगते नहीं देखा। कोई और चीज या गिफ्ट दिलाने की जिद करते हुए भी नहीं देखा।
इसका कारण जो आज मुझे समझ आता है, वह यह कि शायद उन्हें पापा के व्यक्तित्व में ‘भाई’ की कम और ‘पिता’ की छवि ज्यादा दिखती थी। सभी बुआ को पता था कि जो भाई अपनी सामर्थ्य से अधिक देने को सदैव ही तैयार है, उससे कुछ मांग कर इस पवित्र रिश्ते और इस विशेष दिन की गरिमा को कम क्यों करना?
मेरी बहन मुझसे कुछ ही वर्ष छोटी है। बचपन की बात दूसरी है जब पापा के दिए हुए दो-पांच-दस रुपये मैं बहन को रक्षाबंधन के दिन दे दिया करता था। लेकिन जब मैं नौकरी करने लगा तब तो उसे जिद करके, अधिकार पूर्वक रक्षाबंधन के दिन मुझसे कुछ अधिक पैसे या कुछ बड़ा गिफ्ट मांगना चाहिए था। लेकिन पता नहीं उस पर पापा का प्रभाव है या उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा हो गया है कि उसने आज तक मुझसे कभी कुछ नहीं मांगा।
पापा के जाने के बाद शायद वह मुझमे बड़े भाई की नहीं अपितु पापा की ही छवि देखती है।
और
एक बेटी भला अपने पिता से क्या ही मांग सकती है!!
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