बरषा काल मेघ नभ छाए, गरजत लागत परम सुहाए

श्री राम पुकार शर्मा, हावड़ा। प्रकृति सर्वदा से ही मानव सहित समस्त चराचरों के पल-पल की प्रबल सहचरी रही है, जिसके बिना इस धरातल पर जीवन का अस्तित्व और उसका क्रमिक विकास असंभव ही है। इस सत्य को मानव प्राचीन काल से ही परखते और मनन करते आया है। प्रकृति की इसी प्रगाढ़ साहचर्यता और उसके विविध स्वरूप के साथ मानवीय अनुभूति के चित्रण को ही ‘साहित्य’ कहा जा सकता है। साहित्य का मूल आधार प्रेम होता है और प्रेम का उदीप्तकारक मूलतः वसंत ऋतु तथा वर्षा ऋतु को माना जाता है। दोनों ही प्रेम की ऋतुएँ मानी गई हैं। इनके बिना साहित्य की बातें करना संभव ही नहीं हो पाएगा। परंतु इन दोनों ऋतुओं में से वर्षा ऋतु को प्रेम का अधिक उत्प्रेरक मानते हुए साहित्य जगत में इसे कुछ अधिक ही महत्व दिया गया है। यह ऐसी ऋतु है, जो मानव सहित लगभग सभी चराचरों द्वारा पसंद किया जाता है, क्योंकि यह झुलसा देने वाली गर्मी के बाद शीतलता भरी राहत का एहसास लेकर आती है। वर्षा ऋतु अपनी मूसलाधार जल-वर्षण से प्रेमी हृदय के तप्त प्रेमाग्नि को और दहकाती है। बिरह की स्थिति में उनमें भयंकर तड़पन पैदा कर उसे प्रतिपल अपने प्रीतम या प्रियतमा की प्रेमानुभूति के और करीब लाती है। इसीलिए साहित्य में वर्षा ऋतु का चित्रण वसंत ऋतु की अपेक्षा अधिक हुई है।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

प्रतीत होता है कि ग्रीष्म ऋतु में सूर्य सक्रोध अपने कठोर प्रचंडतम स्वरूप को धारण कर अपने सहस्त्रों ताप-करों से धरती पर अग्नि पिण्ड को बरसाने लगते हैं, जिससे सम्पूर्ण प्रकृति लगभग झुलस-सी जाती है। धरती तपकर गरम तावे में परिणत हो जाती है। नदी, तालाब, बावरी, तलैया आदि सब सुखकर अग्निकुंड सदृश बन जाते हैं। जल के बिना उनके सभी जीव-जन्तु झुलसकर तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। उनमें चौड़ी-चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। मानव-जन व जीव-जंतुओं से लेकर पेड़-पौधों अपने प्राणों की रक्षा हेतु त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगते हैं। सूर्य के उस उग्र स्वरूप को पल भर के लिए भी कोई सहन नहीं कर पाता हैं। सब के सब उसके सम्मुख परास्त हो जाते हैं। पर जिनमें अन्तः से प्राणरस खींच पाने की विलक्षण क्षमता रहती हैं, वे तो टिक भी पाते हैं, लेकिन जिनका मूलाधार केवल ऊपर सतही तक होता है, वे सब तो सुखकर कंटक में परिणत हो जाते हैं। स्थिति यह बन जाती है कि छाँव भी छाँह की खोज में बेचैन हो जाती है।

झुलसाने वाली बहुत ही तप्त इंतजार के उपरांत नील गगन में जहाँ-तहाँ पहले तो श्वेत मेघ-खंड और फिर बाद में मानसुनी श्यामवर्णी गहरे कजरारे बादल उमड़ने लगते हैं। जिसे देखकर धरती के छोटे-बड़े सभी हरित-पादप-पुंज और जीव-जन्तु हर्षोल्लास के साथ लहर-लहर कर उनका स्वागत करते हैं। वर्षा की प्रारम्भिक फुहार को प्राप्त करते ही धरती सोंधी सुगंध के रूप में उच्छ्वास भरती है, जिसे ग्रहण कर वायु सभी को वर्षा के आगमन की मधुर सूचना देने के लिए सर्वत्र बेहताश भाग-दौड़ करने लगती है। उन मानसुनी श्यामवर्णी कजरारे बादलों को देखकर धरती-पुत्र कृषक सपरिवार अति हर्षित हो जाता है। वर्षा की प्रारम्भिक बूंदें मानव तन और मन के ताप को ग्रहण कर उन्हें शीतलता प्रदान करती हुए मन के सभी विकारों को दूर कर देती हैं। धूल भरी खेत-खलिहान-मैदान-राहें वर्षा-जल को प्राप्त कर शीतल श्यामल स्वरूप को धारण करने लगते हैं। चतुर्दिक हरियाली, सुंदरता और निखार युक्त नयी चमक व नयी बहार फैली जाती है।

धरती हरी-श्यामल धानी को धारण कर व नव-शृंगार करके अम्बर को रिझाने का प्रयत्न करने लगती है। बरसते जल के टिप-टिप की ध्वनि, मोर, पपीहा, दादुर, झींगुर आदि के गीत सम्मिलित रूप में प्राकृतिक संगीतमय वातावरण बना देते हैं, जिसका प्रभाव प्रेमी-हृदय पर विशेष रूप में पड़ता है। उनके अन्तः में प्रिय-मिलन संबंधित इच्छाएँ और सपने जागृत हो जाते हैं। कोई तो बिरह की स्थिति में कालिदास के यक्ष के सम्मान मेघ को अपना दूत बनाकर अपने प्रेमी के पास संदेश भेजने के लिए उद्धत दिखता है, तो कोई बरसते जल-झालर और उमड़े नदी-नाले की चिंता किए बिना भीगते हुए श्रद्धेय गोस्वामी जी के समान ही मन में प्रिय-मिलन के स्वप्न को सजाए अपने प्रियतम से मिलने के लिए अग्रसर हो जाता है। शायद इसीलिए कला के विविध रूपों में वर्षा और उसके बरसते जल का ही सर्वाधिक चित्रण मिलते हैं।

वर्षा ऋतु को वर्षाकाल, वर्षोमास, चौमास अथवा चतुर्मास के नामों से भी जाना जाता है। वर्ष भर की छह ऋतुओं में यदि वर्षा ऋतु न हो, तो बाकी की ऋतुएँ महत्वहीन हो जाएंगी। फलतः वर्षा ऋतु को ‘मूल ऋतु’ या ‘बीज ऋतु’ माना जाता है। इसी से ही हमारा वर्षभर का ऋतु-चक्र सम्पूर्ण हो पाता है। वर्षा ही अपने शीतल और प्रचुर जल से धरती की प्यास को बुझा कर उसे उर्वरक और जैविक बनाती है। उसमें नवजीवन का संचार करती है। तब जाकर हमारी धरती हमें धन-धान्य से परिपूर्ण कर वैभवशाली बनाती है, जिससे मानव सहित लगभग समस्त चराचरों की सभी आवश्यकताएँ यथानुसार पूर्ण होती हैं। अतः वर्षा ऋतु ही अन्य ऋतुओं की अपेक्षा सबसे अधिक प्रतीक्षित ऋतु है।

प्रकृति की कैसी अद्भुत प्रक्रिया है! सूर्य अपनी प्रखर तापयुक्त किरणों से सागर, ताल-तलैया, जलाशयों, नदी, नालों के जल को सोखकर उसे आकाश को प्रदान करता है। फिर आकाश उसे अपने गर्भ में संयोज कर उसे सघन बनाकर बादलों के रूप में संरक्षित करता है। फिर पवन की झूला पर झूलते हुए वे बादल चतुर्दिक फैलता है। अंततः किसी महान दानवीर की तरह वह अपने में संचित जल को ‘अमृत-बूँद’ के रूप में सर्वत्र धरती पर बिना किसी भेद-भाव के बरसा देता है। इस प्रकार देश-देशान्तर की सर्वत्र धरती सहित समस्त चराचारों की प्यास बुझती है। ताल-तलैया व नदियाँ वर्षा-जल को प्राप्त कर बड़े ही हर्षित भाव से इठलाने लगते हैं। वे पुनः अपनी खोई जीव-संपदाओं को प्राप्त करते हैं। मेंढक प्रसन्न होकर टर्र-टर्र की और झींगुर प्रकृति राग अलापने लगते हैं। धरती की मटमैली-घुसर विस्तृत आंगन में सर्वत्र ही हरित कालीन बिछ जाती है। आकाश से बरसते मोती सदृश वर्षा-बूंदों की ध्वनि के साथ ही पक्षियों के कलरव से वातावरण संगीतमय हो उठता है। वनों में मोर का मनभावन नृत्य आरंभ हो जाता है। वर्षा का मौसम खेतों के दीर्घ उपवास को तोड़ने वाला पवित्र कृषक-अनुष्ठान बन जाता है। चतुर्दिक खेतों में कृषकवर्ग हल-कुदाल-फावड़े के साथ अपने कर्म में प्रवृत दिखाई देने लगते हैं। यह अलग बात है कि अब हल-बैल तो कम, परंतु ट्रैकटर की ठक-ठक आवाज भी उस प्राकृतिक संगीत के अंग बन जाती हैं। ऊपर अनंत गगन में आच्छादित काले-काले कजरारे बादल और नीचे विस्तृत श्यामल धरती पर चतुर्दिक जलीय रजत-पट पर उनके प्रतिबिंब युक्त शोभा देखते ही बनती हैं। प्रतीत होता है कि गगन मण्डल के कजरारे बादल धरती से मिलने के लिए अपने समूह सहित उन जलाशयों में उतर आए हों।

वर्षा ऋतु कृषक वर्ग और वनस्पति जगत के लिए वरदान होती है। वर्षा-जल को पाकर धरती के अंदर अनगिनत नवांकुर फूट पड़ते हैं। छोटे पौधों में नई जान आ जाती है। हवा के साथ वे झूमने लगते हैं। वन-उपवन और खेत-खलिहानों में चतुर्दिक नई रौनक और नई जवानी आ जाती है। इस ऋतु में हवा, बादल, पेड़, पपीहे सब झूमते-गाते हुए प्रतीत होते हैं। बूँदों की लयात्मक रिमझिम में अद्भुत सरगम सुनाई देने लगता है। दूर पहाड़ियों तथा ऊँचे पेड़ों पर टंगे कालिदास के ‘धनुःखण्डमाखन्डलस्य’ सप्तरंगी इंद्रधनुष की शोभा अकथनीय ही होती है। वर्षा में भीगते और भीगने से बचने के उपक्रम में छतरी की ओट में सिमटे प्रेमी-युगल, पवन के झकोरों और घनघोर वर्षा के बीच अपने प्रेमी से मिलने जाती कोमल अभिसारिकाओं, मयूर के बोल और नृत्य से विह्वल वियोगिनियों, घनघोर घटाओं और बिजली की चड़चड़ाती चमक से घबराये पथिक-बंधुओं और यत्र-तत्र पेड़ों की डालियों से लटके झूलों में अपनी सुध-बुध को खोई कोमलांगनाओं के मन-भावन दृश्य आदि सब कुछ देव-शिल्पी के अनुपम चित्रकारी का आभास दिलाते हैं। ऐसे में मेघ-राग और मल्हार उन विविध चित्रों को अपनी ध्वनि से सजीवता प्रदान करते हैं।

जैसा कि विदित है कि हमारा देश भारत एक कृषि प्रधान देश है। फलतः हमारे देश में वर्षा ऋतु को काफी प्रतीक्षित है और उसे विशेष आदर दिया जाता है। वर्षा के आगमन से ही कृषक परिवार अपने-अपने खेतों में हल-कुदाल के साथ पहुँच जाते हैं। पहले तो बीज अंकुरण (बिहन) उगाने की प्रक्रिया, फिर खेतों में उसे रोपने की सामूहिक क्रिया-कलाप। और उसके साथ ही धान के नन्हें-नन्हें कोमल पौधों को रोपती रोपनिया (महिलाओं) के मुख से विभिन्न राग भरे सामूहिक ‘रोपनी-गीत’ उनके क्रिया-कलापों को अति आकर्षक बना देते हैं।
‘छोटे-मोटे टोपरा, हार जोते छोकरा,
रे भीजी गइल, एडी सोहर धोतिया,
मींजे दे हो मींजे दे हो, एडी सोहर धोतिया,
किनी लेइब नऊतन धोतिया, किनी लेइब…।’

वर्षा ऋतु किसी उत्प्रेरक का कार्य करती है। सुखी मनुष्यों को और अधिक सुख और दु:खी मनुष्यों को और अधिक दु:ख पहुँचाने वाली बन जाती है। कालिदास के अनगिनत विरही यक्ष मेघ को अपना दूत बना कर अपनी प्रियतमा को संदेश भेजने का प्रयास करने लगते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मिनी सदृश सुकोमल युवतियों को ‘रितु पावस बरसे पिउ पावा’ प्रतीत होने लगता है। ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठित रीतिकालीन कवि सेनापति को आकाश में उमड़े बादल ‘आने हैं पहार, मानो काजर कै ढोइ कै’ प्रतीत होते हैं। जबकि गोस्वामी जी के श्रीराम सदृश मर्यादित वियोगी लोग कहने लगते हैं –
‘घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥’

सूफी कवि अमीर खुसरो के लिए विवाहित बेटी को श्रावण माह के झरते वर्षा-झालर प्रतिपल अपने परिजन की यादें दिलाती है। उनसे मिलने के लिए व्याकुल हो उठती हैं। अपने मायके जाने के लिए वह तड़प उठती है। अपनी माता को वह आतुर होकर संदेश भेजती है-
‘अम्मा मेरे बाबा को भेजो री- कि सावन आया,
अम्मा मेरे भाई को भेजो री- कि सावन आया।’

‘नीर भरी दु:ख की बदली’ वाली ‘आधुनिक मीरा’ अर्थात महादेवी वर्मा आकाश से बरसाते जल-बूंदों में स्वयं को प्रकृति से एकाकार कर प्रिय की प्रतीक्षारत नायिका से कहलवाती हैं –
‘चिर निस्पंद हृदय में उसके,
उमड़े री पुलकों के सावन!
लाए कौन संदेश नए घन!’

जब बिजली की चमक के साथ बादल घनघोर बरसने लगते हैं, तब अपने प्रियतम से दूर प्रेयसी के मन से कोयल, चातक, चक्रवाक, मयूर की मधुर बोली भी सर्प-डंक समान प्रतीत होती है। रह-रहकर उनमें हूक-सी निकलती है –
‘गरजे घटा घन कारे कारे, पावस ऋतु आई,
दुलहन मन भाई, रैन अंधेरी बिजुरी डरावे
सदा रंगीले मोहम्मद शाह, पिया घर न आए।’

कृषि प्रधान हमारे देश में में वर्षा ऋतु का अपना विशेष महत्व है। वसंत यदि ‘ऋतुराज’ है, तो वर्षा ऋतु (विशेष कर सावन) ‘ऋतुरानी’ से किसी तरह से कम नहीं है। यह ऋतुओं का ‘सिरमौर’ ही है। भारतीय संस्कृति में वर्षा ऋतु कुछ इस तरह से रच-बस गई है कि इसका स्वागत कुछ विशेष रूप में ही किए जाते हैं। इन दिनों प्रकृति की समस्त कृपा हम मनुष्यों पर बनी रहती है। वर्षाकाल में कृषि-कार्य सम्पन्न होने के उपरांत ही इसकी शीतल जल-झालर के बीच शारीरिक दृष्टि से जप, तप, स्वाध्याय, चिंतन-मनन आदि जैसे आध्यात्मिक कार्य मन को संतुष्टि प्रदान करते हैं। फलतः इसी ऋतु (सावन माह) में ही भाई-बहनों का प्रिय और पवित्र ‘रक्षाबंधन’, सुहागिन स्त्रियों के पति-प्रेम को दर्शाती ‘तीज’, आषाढ़ की घनेरी अष्टमी पर आयोजित ‘कृष्ण-जन्माष्टमी’ आदि जैसे भारतीय त्योहार इसी ऋतु में आते हैं और वर्षा ऋतु की रमणीयता को बढ़ाते हैं। यही कारण है कि ऋतुराज वसंत के बाद सबसे ज्यादा सुमधुर सामूहिक गीत वर्षा (सावन) के लिए ही रचे, गाए और सुने जाते हैं। उनमें से प्रमुख कुछ विशेष उल्लेखनीय हैं- कजरी, मल्हार, बारहमासी आदि।

कजरी : यह सावन मास का गीत है, जो काजल जैसे काले मेघों को केंद्र कर गाए जाते हैं। इसी कारण ‘कजरी’ कहलाता है। यह मुख्यतः वेदना-श्रृगार प्रधान गीत होता है, जो प्रायः दो दलों (नन्द-भाभी या सखियों) द्वारा प्रश्न-उत्तर के रूप में गाए जाते हैं।

बारहमासी : यह गीत विरह-प्रधान युक्त होता हैं। इसमें वर्षाकालीन आषाढ़ मास से आरम्भ कर वर्ष के बारहों मासों में शोकाकुल विरहणी की दशा का बाद ही मार्मिक वर्णन होता है। इसके छः मास के प्रयोग पर ‘छः मासा’ और चार मास के प्रयोग पर ‘चौमासा’ भी कहा जाता है।

मल्हार : इसे ‘झूला-गीत’ भी कहा जाता है। बागों में मिलजुल कर झूला झूलती महिलाएँ ‘अरी बहना’, ‘अरी सखी’ कहकर इसे गाती हैं। इनमें झूले के साथ-साथ, मेघों का, वर्षा का, बागों का और मोर, पपीहा, कोयल, दादुर आदि का भी वर्णन मिलता है।

वर्षा के बिना धरती सुख जाएगी, अन्न विहीन अकाल पड़ जाएगा। वर्षाकाल आते ही प्रकृति में स्वाभाविक बदलाव होने लगते हैं, जिनमें पर्यावरण का परिवर्तन सबसे प्रमुख है। जहाँ वर्षा का शीतल जल वातावरण को ठंडक प्रदान कर उसे सुहावना और प्रिय बना देता है, वहीं अनावृष्टि और अतिवृष्टि असंख्य प्राणियों की मृत्यु का कारण बन जाती हैं। नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति में भी सहायक बनता है।

जैसे कि हर वस्तु और हर क्रिया-कलाप के घनात्मक और ऋणात्मक पक्ष हुआ करते हैं। उसी तरह से जीवनदायिनी वर्षा ऋतु के भी कुछ ऋणात्मक पक्ष भी हैं। वर्षा ऋतु में चतुर्दिक जल मग्नता और उसके कारण चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ हो जाया करती है। फलतः धरती पर विषैले कीड़े-मकौड़े और हवा में घातक जीवाणुओं की संख्या में अतिशय वृद्धि हो जाया करती है। कभी-कभी अति वर्षा से बाढ़ की स्थिति भी बन जाती है। पहाड़ी अञ्चल में भारी वर्षा और कभी-कभी बादल फटने जैसी घटनाओं के कारण भू-स्खलन और नदियों में पलक झपकते ही भारी जल-प्लावन की घटनाएँ भारी तबाही के कारण बन जाती हैं।

इसीलिए वर्षाकालीन माहों में मानवीय आवागमन लगभग बंद ही हो जाया करती थी। परंतु वर्तमान में स्थितियों में बहुत बदलाव हुए हैं। फलतः मानवीय क्रिया-कलापों में अब कोई ज्यादा प्रभाव देखने को न मिलता है। पर कुछ अंचल में आज भी बाढ़ की समस्या बरकरार है। आस-पास के गड्ढों में पानी और गंदगी बढ़ जाने के कारण अधिक संख्या में मच्छर पैदा हो ही जाते हैं, जिससे सर्दी, जुकाम, खाँसी, मलेरिया, डेंगू, जलोदर, टाइफाइड, चिकनगुनिया जैसे कई रोगों को फैलने का खतरा बढ़ जाता है। बस कुछ विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता है। फिर भी वर्षा ऋतु की रमणीयता मानव मन को प्रतीक्षारत किए ही रहती है।

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सूत्र : rampukar17@gmail.com

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