कोलकाता। यह आत्म-गर्वीली, आत्म-स्वाभिमानी और देश-प्रेम से परिपूर्ण गीत-उक्ति है, देश-भक्ति से ओत-प्रोत स्वाभिमानी अभिनेता-निर्माता-निर्देशक ‘भारत कुमार’ अर्थात ‘मनोज कुमार’ का है, जिसे उन्होंने स्वयं अपने द्वारा निर्मित, निर्देशित और अभिनीत फिल्म “पूरब और पश्चिम” में एक प्रमुख गीत स्वरूप स्थापित किया है। आज उस महान कलाकार को उनके जन्मदिवस पर उन्हें हार्दिक बधाई देते हुए उनके स्वस्थमय अग्रिम जीवन की कामना करता हूँ। इसी तरह से ‘मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती, मेरे देश की धरती’ गीत को सुनकर किस भारतीय की छाती गर्वित नहीं हो जाता है? भले ही यह गुलशन बावरा द्वारा रचित, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल द्वारा संगीत के सरगम पर सजा-धजा और महेंद्र कपूर द्वारा गाया गया एक प्रसिद्ध गीत है। पर इसे पर्दे पर यथार्थ चित्रांकन कर करोड़ों भारतीयों का कंठ-हार बनाया तो ‘भारत कुमार’ अर्थात ‘मनोज कुमार’ ने।
देश-भक्ति की भावना से ओत-प्रोत फिल्मों की जब भी बातें होती हैं, तो उसके पूरक के रूप में एक ही नाम आता है और वह नाम है, ‘भारत कुमार’ के नाम से विख्यात लिजेंड अभिनेता-निर्माता-निर्देशक ‘मनोज कुमार’ का। उन्होंने अपनी फिल्मों के द्वारा भारतीयों में भारतीयता को स्थापित कर बताया कि देश-प्रेम और देश-भक्ति का स्वरूप क्या हो सकता है? जब चतुर्दिक सिनेमा के पर्दों पर प्यार-इकरार और मार-धाड़ की फिल्मों का वर्चस्व बना हुआ था, ऐसे दौर में भी मनोज कुमार ने ‘शहीद’, ‘उपकार’, ‘पूरब-पश्चिम’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘क्रांति’ आदि देश-भक्ति फिल्में बनाकर देश के युवाओं में देश-भक्ति की भावना को जागृत किया और स्वतंत्र भारत के नव-निर्माण तथा देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पण हेतु प्रेरक मार्गदर्शन किया।
अभिनेता-निर्माता-निर्देशक मनोज कुमार का असली नाम ‘हरिकिशन गिरि गोस्वामी’ है। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में 24 जुलाई, 1937 को वर्तमान पाकिस्तान (तत्कालीन भारत) के एबटाबाद में हुआ है। देश के बंटवारे के समय मात्र 10 वर्ष की अवस्था में उन्होंने लाहौर में खून के बहते हुए दरिया को बहुत करीब से देखा और अनुभव किया, जिसमें उनके अपने ही खानदान के 60 से भी अधिक लोगों को उस बेरहम खून की नदी में कटते और बहते देखा है। व्यवस्थित घर-संसार बंटवारे की धधकती अग्नि-शृंखलाओं में झोंक दिया गया था। इनका भरा-पूरा परिवार ही घर से बेघर होकर अनजान मंजिल का राही बन गया था। ऐसे में उनका परिवार एबटाबाद में उजड़ी घर-गृहस्थी को छोड़ कर लाशों के नीचे से दबे-दबाए, काँपते-काँखते, रोते-बिलखते किसी तरह से अपनी साँसों को गिनते हुए दिल्ली के विजयनगर के ‘किंग्सवे कैंप’ में शरणार्थियों के रूप में पहुँच पाया था। उस शरणार्थी कैंप में ही पूरे चार वर्ष बिताने के बाद यह ब्राह्मण परिवार पहले तो दिल्ली के ही पुराने राजेंद्र नगर में और फिर बाद में राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में जा बसा।
हरिकिशन बचपन से ही तत्कालीन सुप्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार से बहुत हद तक प्रभावित थे। फिल्म ‘शबनम’ (1949) में दिलीप कुमार साहब का किरदार का नाम ‘मनोज’ था, जो हरिकिशन गिरि गोस्वामी को इतना भा गया कि उसके आठ वर्ष बाद जब उन्होंने फिल्म जगत में अपनी पहली फिल्म ‘फैशन’ (1957) के जरिये कदम रखा, तो सर्वदा के लिए अपना नाम ‘मनोज कुमार’ ही रखने का फैसला किया। प्रमुख भूमिका की उनकी पहली फिल्म ‘काँच की गुडि़या’ (1960) थी। लेकिन उनकी पहली हिट फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ (1962) हुई थी। मनोज कुमार अपनी फिल्मों में अभिनय के लिए तो कम, पर फिल्मों की सुदृढ़ और यथार्थ कथावस्तु के लिए ही ज्यादा याद किये जाते हैं। वह बचपन से ही ‘शहीद-ए-आजम’ भगत सिंह से बहुत प्रभावित रहे हैं और अवसर पाते ही शहीद भगत सिंह को ‘शहीद’ जैसी देश-भक्ति फ़िल्म में अपने अभिनय पर जीवंतता प्रदान कर कई भारतीय के लिए देश-भक्ति के प्रेरणा श्रोत बने।
मनोज कुमार एक ऐसे कलाकार रहे हैं, जो एक ओर आजादी के समय बंटवारे की उत्पन्न भीषण आग के भयानक ताप को अपने हृदय पर झेला, तो दूसरी ओर सिनेमा के पर्दे पर पड़ते ‘श्याम-श्वेत’ किरणों को इंद्रधनुषी स्वरूप में बदलते दौर के साक्षी भी रहे हैं। जब वह फिल्म इंडस्ट्री में टॉप पर थे, उस दौरान फिल्मों में रोमांस के मजबूत दौर चल रहे थे, तभी उन्होंने रोमांस करने की अपेक्षा अपनी भावना के अनुकूल देश-भक्ति विषयगत फिल्मों को ही अधिक महत्व दिया। उन्होंने अपने कॅरियर में ‘शहीद’, ‘उपकार’, ‘पूरब और पश्चिम’, रोटी कपड़ा और मकान’ तथा ‘क्रांति’ जैसी देशभक्ति पर आधारित अनेक बेजोड़ फिल्मों को निर्मित और निर्देशित कर अपने अभिनय का लोहा मनवाया है।
मनोज कुमार की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘शहीद’ (1965) को ही मानी जाती है। इस फिल्म में उन्होंने शहीद भगत सिंह का किरदार बेहतरीन ढंग से यथार्थ स्वरूप में निभाया है। इस फिल्म को तीन नेशनल अवॉर्ड मिले थे। पुरस्कार के भव्य समारोह में उन्होंने ‘शहीद-ए-आजम’ भगत सिंह की वीरांगना सर्वश्रद्धेय माता विद्यावती जी को भी अपने साथ लेकर स्टेज पर गए थे, जहाँ पर देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी स्वयं मौजूद थीं। उन्होंने आगे बढ़कर सम्मान सहित माता जी के पैर छुए थे। तमाम दर्शक सहित सभी उपस्थित अतिथियों ने शहीद भगत सिंह और उनकी वीरांगना माता विद्यावती जी को खड़े होकर विशेष सम्मान प्रदान किया था, जो एक शहीद की वीरांगना माता के लिए अतिशय गर्व का विशेष पल रहा होगा। ‘शहीद’ के आत्म-गर्वीली, आत्म-बलिदानी, आत्म-स्वाभिमान और देश-प्रेम से परिपूर्ण गीत उक्ति को भला देशवासी कैसे भूल सकते हैं –
‘जब शहीदों की अर्थी उठे धूम से, देश वालों तुम आँसू बहाना नहीं।
जब आजाद भारत का जश्न मनाओ, उस घड़ी तुम हमें भूल जाना नहीं।।’
इसी तरह से 1965 के भारत-पाकिस्तान के युद्ध के बाद जब मनोज कुमार जी तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी से मिले, तो श्रद्धेय शास्त्री जी ने उन्हें सैनिकों और किसानों के देश की प्रगति में अवदानों को केंद्र कर एक फिल्म बनाने का प्रस्ताव दिया। प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की इच्छा को सम्मान देते हुए मनोज कुमार ने निर्देशक के क्षेत्र में अपना पहला कदम रखते हुए ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे से प्रेरित होकर ‘उपकार’ जैसी सुपरहिट फिल्म बनाई, जिसमे ‘भारत’ नाम के किसान युवक का उन्होंने किरदार निभाया, जो परिस्थितिवश गाँव की पगडंडियों को छोड़कर मैदान-ए-जंग का एक वीर सिपाही बन जाता है। ‘उपकार’ फिल्म की काफी सराहना हुई। उसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ कथा और सर्वश्रेष्ठ संवाद आदि की श्रेणी में कई फिल्म फेयर पुरस्कार भी प्राप्त हुए थे। बाद में मनोज कुमार इस फिल्म के चरित्र नाम ‘भारत कुमार’ के नाम से ही देशवासियों में मशहूर हो गये। इस फिल्म का गाना तो हर देश-प्रेमियों के हृदय का तराना ही बन गया।
‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती। मेरे देश की धरती…।’
1970 में मनोज कुमार के निर्देशन में बनी एक ओर सुपरहिट फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ निर्मित और प्रदर्शित हुई। इस फिल्म के जरिये उन्होंने ऐसे लोगो की कहानी को चित्रित किया, जो दौलत-वैभव के लालच में अपने देश की मिट्टी को छोड़कर पश्चिमी देशों में पलायन करते हैं और वहाँ के अपसंस्कृति में अपनी गौरवशाली संस्कृति को ही विनष्ट कर देते हैं। ऐसे ही लोगों को अपने गौरवशाली भारत भूमि की कहानी को ‘भारत कुमार’ सुनाते हैं।
‘इस धरती पे मैंने जनम लिया, यह सोच के मैं इतराता हूँ।
भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ।’
वर्ष 1972 में उनके सिने करियर की एक ओर महत्वपूर्ण फिल्म ‘शोर’ प्रदर्शित हुई, जिसमें अपने पुत्र की आवाज सुनने के लिए एक लाचार पिता के प्रयत्नों को बखूबी से चित्रित किया। परंतु जब पुत्र बोलने में सफल हुआ, तो पिता सुनने की अपनी क्षमता ही खो बैठता है। बड़ा ही मार्मिक फिल्म रहा ‘शोर’। उनके मित्र गीतकार संतोष आनंद द्वारा रचित गाना “एक प्यार का नगमा है” उस वर्ष का सर्वाधिक प्रसिद्ध गाना रहा है।
‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है।
ज़िंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है।’
मनोज कुमार को वर्ष 1972 में फिल्म ‘बेईमान’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया। फिर 1974 में मनोज कुमार द्वारा निर्मित, निर्देशित और अभिनीत फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान’ उनके करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों के रूप में याद की जाती है। इस फिल्म के जरिये उन्होंने देश में व्याप्त अमीरी-गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, महँगाई, संभ्रांतजनों की बेफ़ज़ूल खर्ची आदि पर गहरी चोट करते हुए देश-प्रेम की भावना को ही स्थापित किया। वर्ष 1975 में इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था।
‘पहले मुट्ठी में पैसे लेकर, थैला भर शक्कर लाते थे।
अब थैले में पैसे जाते हैं, मुट्ठी में शक्कर आती है।
हाय महँगाई, महँगाई महँगाई, दुहाई है दुहाई, दुहाई है दुहाई।’
कहा जाता है कि इस सहस्त्राब्दी के महानायक अमिताभ बच्चन जब अपनी लगातार असफलताओं से निराश होकर फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कह वापस लौटने का मन बना रहे थे, तो ऐसे समय में मनोज कुमार ने ही उन्हें अपनी फिल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ में मौका देकर फिल्मों में उनके उखड़ते पैरों को पुनः स्थापित कर सुदृढ़ किया। वर्ष 1981में उन्होंने फिल्म ‘क्रांति’ का निर्देशन किया, जो बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट रही थी, जो उनके सिने करियर का एक ‘मील का पत्थर’ साबित हुआ है, जिसमें ‘भारत कुमार’ के देश-प्रेम की भावना अपनी उफान पर पहुँची हुई दिखाई पड़ती है।
‘देश का हर दीवाना अपने, प्राण चीर कर बोला,
बलिदानो के खून से अपना, रंग लो बसंती चोला।’
मनोज कुमार के द्वारा अभिनीत, निर्मित और निर्देशित प्रायः हर फिल्मों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता को ही प्राथमिकता दी गई है। उसी के अनुकूल उनके द्वारा प्रदर्शित सज्जनता-सौम्यता से परिपूर्ण चरित्र के कारण उस दौर में यह स्थिति बन गई थी कि हर भारतीय माताएँ अपनी बेटी के लिए मनोज कुमार (भारत कुमार) जैसे ही दामाद की कल्पना किया करती थी। हालाकि मनोज कुमार में देश-भक्ति की प्रगाढ़ता बचपन से ही रही है। इसके साथ ही साथ की सज्जनता उन्हें महानता की ओर अग्रसर करती है। फिर भी वह पड़ोसी देशों के साथ सदैव मैत्रीपूर्ण व्यवहार के ही हमेशा पक्षधर रहे हैं।
वह ही प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपनी फिल्म ‘क्लर्क’ (1989) के माध्यम से भारतीय फिल्मों में पाकिस्तानी कलाकारों को मौका दिया था, जो उस समय अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम माना गया था। उन्होंने वर्ष 1995 की फिल्म ‘मैदान-ए-जंग’ में आखिरी बार अभिनय किया। इसके बाद उन्होंने फिल्मों से लगभग सन्यास ही ले लिया है। मनोज कुमार द्वारा अभिनीत कुछ अन्य फिल्मों में ‘काँच की गुड़िया’, ‘हरियाली और रास्ता’, ‘फूलों की सेज’, ‘वो कौन थी’, ‘हिमालय की गोद में’, ‘सावन की घटा’, ‘गुमनाम’, ‘पत्थर के सनम’, ‘आदमी’, ‘नील कमल’, ‘संन्यासी’, ‘दस नम्बरी’, ‘देशवासी’, ‘क्लर्क’ आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
‘भारत कुमार’ अर्थात मनोज कुमार जी यह देख-सुनकर अक्सर दुखी रहते हैं कि आज हम रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पाण्डेय, खुदीराम बोस, अश्फाक उल्लाह खान, उधम सिंह, भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद, सुखदेव, सुभाषचंद्र बोस आदि को याद करने के बजाय संसद से लेकर सड़क तक निज स्वार्थ और मतलब के लिए परस्पर मारपीट करते और एक-दूसरे की टांग खींचा करते हैं। आज अपने देश की सीमाओं और देशवासियों को प्रतिपल सुरक्षित रखने वाले फौजियों को अपने ही देश में भारतीय होने का सबूत देना पड़ता है। हम फौज के लोगों पर भला कैसे शक कर सकते हैं, जो निरंतर देश की रक्षा और सेवा के लिए अपने आप को बलिदान करने के लिए उद्धत रहते हैं? उन्होंने एक स्थान पर कहा है, – ‘मैं गर्व से कह सकता हूँ कि देशभक्ति मेरी रगों में है और इसी कारण मैं उस तरह (देश-भक्ति) के सिनेमा बना पाया हूँ।’
मनोज कुमार को फिल्म-जगत में उनके विशेष योगदान के लिए वर्ष 1992 में ‘पद्मश्री’ पुरस्कार और वर्ष 2016 में फिल्म जगत का सर्वश्रेष्ठ ‘दादासाहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
श्रीराम पुकार शर्मा
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