काल का पंछी
काल का पंछी सर पर से उड़कर
चला गया –
समय नहीं है, समय नहीं है।
उसकी तेज़ उड़ान
उसकी तीख़ी सीटी
डैने झपटने से गिरते पर
कह उठे एक स्वर
समय नहीं है, समय नहीं है।
मेरा मन हाहाकार कर उठता है
उस समय बुझे तारे के लिए
जिसे आसमान ने अपने काले कोह में
चुन दिया,
जिसकी रोशनी पचास आलोक-वर्ष चलकर
धरती को छू, अचानक ही बुझ गयी।
उन फूलों के लिए
जिन्हे खिलने नहीं दिया
समय-पवन की अधीरता ने।
और मैं, अनंतकाल से अनंतकाल तक
पूछे जाने वाले प्रश्न में उलझी रही।
सदा से,
प्रश्न तो वही है।
अस्तित्व और अनस्तित्व का
होने का और न होने का।
कौन बतायेगा किसके भिक्षा-पात्र में
कितना समय परोसा गया?
दुविधा के सांझ-धुंधलके में
समय के पंछी की पुकार
चीख कर डूब गयी नीरवता में –
समय नहीं है, समय नहीं है।
कृष्णा चटर्जी गुप्ता