कोलकाता। पश्चिम बंगाल में देवी दुर्गा की आराधना भव्य तरीके से हो रही है। अलग-अलग स्वरूपों में सजी मां दुर्गा को देखने के लिए दर्शकों की भारी भीड़ उमड़ रही है। ऐसी ही एक दुर्गा पूजा का आयोजन दक्षिण 24 परगना के डायमंड हार्बर के कैनिंग में हुआ है। यहां काली दुर्गा की मूर्ति स्थापित की गई है जो लोगों के लिए बेहद खास है। यह देवी दुर्गा का दिगंबरी स्वरूप है। भट्टाचार्य बड़ी में होने वाली यह पूजा सदियों पुरानी है। कैनिंग के दिघिरपार इलाके के भट्टाचार्य परिवार के पूर्वज ढाका के पाइनपाड़ा गांव में रहते थे। वहां देवी के स्वरूप की पूजा शुरू हुई थी।
दिलचस्प है काली दुर्गा की कहानी
कहा जाता है कि ढाका में जब दुर्गा पूजा की 200 वर्ष पूरी हुई थी तो कुश से मां दुर्गा का पंडाल बनाया गया था और देवी दुर्गा के आसपास दीप जल रहे थे, लेकिन अचानक उसमें आग लग गई। सब कुछ काला पड़ गया। देवी की मूर्ति भी काली पड़ गई। जब आग बुझी तो कुछ अजीबो-गरीब हुआ था। जहां भगवान गणेश की प्रतिमा थी वहां अपने आप भगवान कार्तिक की प्रतिमा आ गई थी और भगवान गणेश की प्रतिमा खिसककर दूसरी ओर जा चुकी थी। जहां माता लक्ष्मी की प्रतिमा थी वहां मां सरस्वती चली आई थीं और सरस्वती की जगह मां लक्ष्मी।
नव पत्रिका भी भगवान गणेश के पास से खिसककर कर अपने आप भगवान कार्तिकेय के पास चले गए थे। इस अजीब घटना के बाद पूर्वज समझ गए थे कि इसके पीछे देवी की ही महिमा है। उन्होंने ध्यान लगाया तो देवी दुर्गा ने इसी स्वरूप में पूजा का आदेश दिया। उसके बाद से ही काली दुर्गा की पूजा यहां होती है।इतना ही नहीं देवी की प्रतिमा तो पारंपरिक है ही साथ ही यहां पूजा करने वाले पुरोहित भी उसी परिवार के हैं जिस परिवार के पुरोहित शुरुआत से पूजा करवाते रहे हैं।
परिवार के सदस्य राजीव भट्टाचार्य ने कहा कि पहले भैंसे की बलि दी जाती थी। अब पशुवध बिल्कुल नहीं किया जाता। केवल नवमी को ही लौकी की बलि दी जाती है। हर साल महालया के दिन हमेशा की तरह देवी की आंखें आंकी जाती हैं। कैनिंग की काली दुर्गा परंपरा पूरे कैनिंग और इस जिले में फैली हुई है। इस संबंध में एक सदस्य पीयूष कांति भट्टाचार्य ने कहा कि शायद यह पूजा जिले में हमारी सबसे पुरानी पूजा है। देवी का काला रंग कहीं भी देखने को नहीं मिलता है।