शानदार अंत की अभिलाषा (अजीब दस्तान)

डॉ. लोक सेतिया, विचारक

यही टीवी सीरियल के पर्दे पर नजर आया अंतिम एपिसोड में सब चंगा हो गया है। हर बात का खुलासा हो गया सभी राज खुल गए पूरी तस्वीर साफ़ हो गई शुरुआत से अनगिनत बार सिर्फ गलत और अनुचित आचरण करने वाला खलनायक पल भर में बदल गया माफ़ी मांगने लगा अपने किये पर पशेमान होता दिखाई दिया। अर्थात अनहोनी घट रही थी राक्षस अपना स्वभाव बदल देवता बन गया। कहानी लिखने वाले के पास कुछ भी बचा नहीं अंत करना ही विकल्प हो गया। कल उसी समय कोई और नया धारावाहिक शुरू होगा शुरआत लाजवाब होगी बाद में बोझिल दास्तान आखिर में अंत वही सब उलझन सुलझती हुई।

वास्तविक जीवन में भी ठीक यही होता है। कोई कितना अकेला होकर जिया दुनिया से विदा होने के बाद शोक मनाने वाले बहुत चले आते हैं काश लोग जानते तो कब से मरने की ख़्वाहिश करते। बात क्या है कि मशहूर लोगों के घर, मौत का सोग होता है त्यौहार सा। गुड़िया गुड्डे को बेचा खरीदा गया, घर सजाया गया रात बाज़ार सा। डॉ. बशीर बद्र जी की ग़ज़ल कितनी सच्ची है इतनी अच्छी बातें इतना अपनापन कहां नजर आता है, मतलबी दुनिया में अफ़सोस की घड़ी बिछुड़ने की कम मुलाक़ात की ज़्यादा लगती है।

इक अजीब बात ज़रूर होती है शोकसभा में जिसकी तस्वीर पर पुष्प चढ़ाते हैं सभी उसकी बात शायद कोई करता है हर कोई हज़ार बातें करता है। न जाने क्यों लोग आकांक्षा करते हैं उनकी शोकसभा शानदार होनी चाहिए जबकि खुद देख नहीं सकते उनकी चर्चा कोई नहीं करता। रिश्ते नातों की कितनी बातें होती हैं उनके बहाने से लोग अर्से बाद मिलते हैं अपनी अपनी बात करते हैं। ख़ुशी भी दुःख दर्द भी असली नहीं लगते हैं अब सब खोखला खाली खाली लगता है भीड़ में आदमी की शख़्सियत खो जाती है।

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