अर्जुन तितौरिया खटीक, गाजियाबाद। अब हम पौड़ी खाल अपने मित्र Sandeep Rawat के घर पहुंच चुके थे। घर की सजावट एवम पंडाल आदि वही पुरातन गढ़वाली सनातनी संस्कृति से सराबोर था। घर के द्वार पर केले आम के पत्तों के साथ गेंदे के फूलों की महक बीच-बीच में आम के पेड़ की पत्तियां एक अलग ही छटा बिखेर रही थी। यहां की गढ़वाली परम्परा आज भी अतिथि देवो भव के का अनुसरण करते हुए अतिथि सत्कार करते हैं। हमारा स्वागत करने के लिए मेरे मित्र संदीप रावत की माता जी हाथ में एक थाल उसमें जलता हुआ दीपक, साथ में एक लिफाफा प्रति व्यक्ति के अनुसार थाल में सजे थे।
एक-एक कर हमारी आरती उतारी गई, कुशल क्षेम पूछा गया उसके बाद हल्दी का तिलक हमारे माथे पर लगाया गया, तदुप्रांत सभी को एक-एक लिफाफा जो थाली में रखा था दिया गया। मैं आश्चर्य चकित बिलकुल नहीं था क्यों इससे पूर्व भी में अपने एक मित्र संदीप पंत के विवाह में गढ़वाल जा चुका था तो मैं इस संस्कार से परिचित था। उसके बाद हमारे ठहरने की व्यवस्था थी सबसे ऊपर बाजार से लगे रोड वाली सड़क वाले कमरे में हमलोगो के रहने की व्यवस्था थी। उसके बाद संदीप रावत जिनका विवाह है वो हमसे मिलने आए, बीती हुई कुछ बातें हुई फिर संदीप हमारे खाने की व्यवस्था देखने चला गया।
लगभग डेढ़ बजे तक हम दोपहर का खाना खा चुके थे मन तो था घुमा जाए किंतु अभी नींद पूरी नहीं हो पाई थी जिस कारण आंखे भरी ही रही थी सो एक दो घंटे आराम करने का प्लान हम पांचों मैं, संदीप पंत, रजत रावत, हरषु रावत, राजपाल रावत हम सबने आराम किया। ठीक 3 बजे हम चारों लोग कमरे से बाहर आए और संदीप को बोल कर घूमने निकल पड़े। उसी सांप जैसे टेढ़े-मेढे रास्तों पर जो उत्तराखंड की पहचान हैं। जिस तल्ले पर हम थे वहां से नीचे के तल्ले पर एक बाजार हमें दिखाई दिया बस हम पांचों उधर की ओर चल दिए। कुछ बाजार की रौनक, कुछ पहाड़ों की सुंदरता हमें अपनी ओर बार-बार खींच रही थी।
बाजार घूमते हुए धीरे-धीरे वहां पहुंचे जहां बस्ती समाप्त और पहाड़ी घाटियां दूर दराज की आमने सामने बसे पहाड़ी गांव दिखाई पड़ रहे थे…पहाड़ियों को छांट-छांट कर हम सभी ने वहां अपने अपने चित्र लेकर वहां की पहाड़ियों की सुंदरता को कैमरे में कैद करने की जितना हो सकता था भरसक प्रयास किया किंतु पहाड़ों की सुंदरता खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। जीतना आगे जाएं मन करता था की थोड़ा और आगे…बस थोड़ा ओर आगे किंतु अब शाम ढल आई थी और आसमान में काले बादल अचानक ही छा गए जो उत्तराखंड के मौसम की एक प्रकृति है।
हमने थोड़ा तेज कदमों से घर की तरफ आना ही बेहतर समझा। कुछ बूंदों ने अधिक तो नहीं किंतु हमारी शर्ट तो भिगो ही दिया जो हमें हल्की-हल्की सर्दी का अहसास करा रही थी। धीरे-धीरे जितने हम आगे बढ़े उत्तराखंड का मौसम अपना मिजाज दिखाने लगा था। यही दो से ढाई घंटे घूमने के बाद हम वापस आए ही थे की मौसम अचानक से बदला, तेज हवाएं चलने लगी घटा एक दम से गायब थी और इधर गर्मागर्म चाय घर में लगे विवाह के पंडाल तैयार थी।
उधर से संदीप रावत ने आवाज लगाई अरे भाई हो गई घुमाई, मेरे मुंह से निकल पड़ा वो सब बादमें पहले ठंड लगी है चाय पिलाओ यार और फिर जोर के ठहाके के साथ वहां उपस्थित अन्य अथिति गण भी हंसने लगे और बोले हां-हां भाई दिल्ली वालों को चाय पिलाओ कहीं ठंड ना लग जाए। मैं भी जोर से हंस दिया, तब तक चाय आ चुकी थी। अब हमारी मित्र मंडली के साथ-साथ संदीप जिसकी शादी थी उसकी मौसी, बुआ, मामा सभी के लड़के चाय की चुस्की के साथ-साथ बातें करते हुए ही हमारे साथ बहुत जल्द ही घुल मिल गए तो आनंद दोगुना हो गया।
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