हांगकांग के दो संपादकों को एक आलेख पर देशद्रोह के आरोप में 21 माह की जेल- लोकतंत्र का चौथा स्तंभ स्तब्ध

दुनियाँ में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा में राजनीतिक ताकतों को महत्वपूर्ण भूमिका निभाना समय की मांग
लोकतंत्र की आधारशिला व चौथे स्तंभ मीडिया के उच्च मानकों को बनाए रखनें राजनीतिक दबाव तंत्र व माफिया तंत्र पर नियंत्रण के लिए न्यायपालिका कार्यपालिका व विधायिका का सहयोग ज़रूरी- एड. के.एस. भावनानी

एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी, गोंदिया, महाराष्ट्र। वैश्विक स्तर पर दुनियाँ में हर देश, विशेष रूप से लोकतांत्रिक देशों में आज प्रिंट, इलेक्ट्रानिक व सोशल मीडिया को न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका के बाद लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है क्योंकि ये निर्भीक और स्वतंत्र जिम्मेदार पत्रकारिता करते हैं। इसके मुख्य कार्य लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा करना, समाज की गतिविधियों का आकलन करना, जनता की तकलीफों को शासन तक पहुंचाना, शासकीय निष्क्रियता, भ्रष्टाचार, असहिष्णुता, गैर जिम्मेदारी को ऊजगार कर जनता के सामने रखना है, ताकि ऐसे शासकीय अधिकारियों, राजनेताओं को जनता सबक सिखाएं और जनता जनार्दन ही शासन व सत्ता की मालिक है ऐसा एहसास आए परंतु हम दशकों से देखते आ रहे हैं कि इस चौथे स्तंभ पर राजनीतिक दबाव तंत्र माफिया तंत्र का प्रयोग होने की संभावना बनी रहती है, क्योंकि जब निर्भीक कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार अपनी कलम काले कारनामों, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक या फिर कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा समितियां बनाकर जनसेवा के नाम पर संस्थापक बनकर प्राकृतिक संपदा का अवैध दोहन का व्यापार करते हैं, अदृश्यता से घोटाले करते हैं जिस पर चौथा स्तंभ पैनी नजर गड़ाकर कर उन्हें उजगार करते हैं तो फिर देशद्रोह, राजद्रोह या फिर शासकीय कार्य में बाधा जैसे अनगिनत आरोपों की झड़ी लग जाती है व जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत सटीक बैठ जाती है।

पत्रकार पर एफआईआर दर्ज हो जाती है। जिसकी चर्चा हम नीचे पैराग्राफ में करेंगे, आज हम इस विषय पर इसलिए बात कर रहे हैं क्योंकि गुरुवार दिनांक 26 सितंबर 2024 को हांगकांग कोर्ट ने एक अखबार स्टैंड न्यूज जो अब बंद हो चुका है के दो पूर्व संपादकों को एक लेख प्रकाशित करने की साजिश में 21 महीने जेल की सजा सुनाई है, जिसमें से एक को लाइलाज बीमारी के चलते बरी कर दिया गया है। मेरा मानना है कि इस पर पूरी दुनियाँ में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ आक्रोशित होंगे। चूँकि दुनियाँ में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा में राजनीतिक ताकतों को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का समय की मांग है, इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आलेख के माध्यम से चर्चा करेंगे लोकतंत्र की आधारशिला व चौथे स्तंभ मीडिया के उच्च मानव को बनाए रखना, राजनीतिक दबाव तंत्र को माफिया तंत्र पर नियंत्रण के लिए न्यायपालिका कार्यपालिका व विधायिका का सहयोग जरूरी है।

साथियों बात अगर हम हांगकांग में दो संपादकों को एक लेख पर देशद्रोह के आरोप में 21 महीनों की जेल की करें तो, अब बंद हो चुके हांगकांग अखबार स्टैंड न्यूज के दो पूर्व संपादकों को भड़काऊ लेख प्रकाशित करने की साजिश रचने के लिए 21 महीने जेल की सजा सुनाई गई जिनमें से एक को लाइलाज बीमारी से रिहा कर दिया गया। इस ऐतिहासिक मामले में पत्रकारों को दोषी पाए हुए लगभग एक साल हो गया था। 1997 में हांगकांग के चीनी शासन में लौटने के बाद वे औपनिवेशिक युग के राजद्रोह कानूनों के तहत आरोपित होने वाले पहले मीडिया कर्मी हैं। गुरुवार को सुनाया गया फैसला पूर्व संपादक चोंग पोई कुएन, 55, और पूर्व उप संपादक पैट्रिक लैम सीव टोंग, 36, भीड़ भरे माहौल में भड़काऊ सामग्री को पुन: पेश करने और प्रकाशित करने की साजिश के लिए अपनी जेल की सजा सुनते समय चुप रहे। इसे सुरक्षित कर लिया गया। कोर्ट न्यायाधीश ने झेंग को 21 महीने जेल की सजा सुनाई, जो लैम की मूल सजा 14 महीने की थी, लेकिन लैम की स्वास्थ्य स्थिति के कारण सजा को तीन महीने कम कर दिया गया।

मुकदमे के दौरान जमानत मिलने तक दोनों जेल में थे। चुंग, जो पहले ही एक साल जेल में बिता चुका था, को अपनी सजा के शेष नौ महीने काटने थे, लेकिन लैम ने शेष 21 दिन जेल में काटे क्योंकि न्यायाधीश ने पाया कि उसे एक दुर्लभ बीमारी के इलाज की आवश्यकता है। सजा सुनाते समय, न्यायाधीश ने कहा कि लेख एक वर्ष और पांच महीने की अवधि में प्रकाशित हुए थे और जिन लोगों पर होंग के खिलाफ सबसे चरम हिंसा करने का आरोप लगाया गया था, वे उनके अपराधों की गंभीरता को दर्शाते हैं। कहा जेल की सजा जरूरी हैं। उन्होंने कहा, वे वास्तविक पत्रकारिता गतिविधियों में शामिल नहीं थे बल्कि सरकार के खिलाफ तथाकथित प्रतिरोध गतिविधियों में लगे हुए थे। अपने चरम पर, स्टैंड न्यूज के 1.6 मिलियन फॉलोअर्स थे, और यह सामग्री लोगों को गंभीर और अपूरणीय क्षति पहुंचा रही थी।

साथियों बात अगर हम इस तरह का एक क़ेस 1983 में भारत में भी होने की करें तो, एक आलेख से भड़के एक पार्टी नेताओं ने साप्ताहिक पत्रिका ‘हुजूम’ के मुद्रक, प्रकाशक और संपादक के खिलाफ देशद्रोह और सांप्रदायिक दंगा भड़काने का मामला दर्ज करवा दिया था। हालांकि, दिसंबर 2008 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले को बंद कर पत्रिका के संपादक और लेखक को बड़ी राहत दी थी। जावेद हबीब बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) केस में जस्टिस एसएन ढींगरा ने अपने फैसले में कहा था कि अपीलकर्ता एक उर्दू साप्ताहिक हज़ूम का प्रकाशक और संपादक हैं, जिन्होंने वर्ष 1983 में, 18-24 नवंबर, 1983 के अंक में एक लेख प्रकाशित किया था, यह लेख कुर्बान अली द्वारा लिखा गया था।

1999 में दिल्ली की एक ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में राजद्रोह का दोषी करार देते हुए तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। जावेद हबीब ने इसके खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की थी कि अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना वाला लेख निष्पक्ष था। इससे पहले सत्र अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि यह लेख जानबूझकर सांप्रदायिक नफरत फैलाने और कानून द्वारा स्थापित तत्कालीन सरकार के प्रति असंतोष भड़काने के इरादे से लिखा गया था। हालाँकि, हाईकोर्ट के जस्टिस ने प्रकाशक की सजा को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि प्रधानमंत्री या उनके कार्यों के खिलाफ राय रखना या सरकार के कार्यों की आलोचना करना या सरकार में उच्च पदों पर बैठे नेताओं के भाषणों और कार्यों से यह निष्कर्ष निकालना कि वह एक विशेष समुदाय के खिलाफ है और कुछ अन्य राजनीतिक नेताओं से सांठगांठ है, को देशद्रोह नहीं माना जा सकता है।

साथियों बात अगर हम पत्रकारों द्वारा सफेदपोशों द्वारा शासकीय, सामाजिक, शैक्षणिक संस्थानों में की जा रही गड़बड़ियों को उजागर करने पर एफआईआर की करें तो, पत्रकारों पर लगातार मामले दर्ज सिर्फ़ अभी नहीं, बल्कि पिछले काफ़ी वक़्त से पत्रकार इस तरह के मामले अपने ऊपर झेल रहे हैं। 31 अगस्त 2019 को मिर्ज़ापुर में पत्रकार के ख़िलाफ एफ़आईआर दर्ज कराई गई। उन्होंने सरकारी स्कूल में व्याप्त अनियमितता और मिड डे मील में बच्चों को नमक रोटी खिलाए जाने से संबंधित ख़बर छापी थी। काफ़ी हंगामा होने के बाद उनका नाम एफ़आईआर से हटा दिया गया और उन्हें इस मामले में क्लीन चिट दे दी गई।

इस घटना का दिलचस्प पहलू ज़िले के कलेक्टर का वह बयान था जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रिंट मीडिया का पत्रकार वीडियो कैसे बना सकता है? इस मामले में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को हस्तक्षेप करना पड़ा था। जैसे 16 सितंबर, 2020 को सीतापुर में एक पत्रकार नें क्वारंटीन सेंटर पर बदइंतज़ामी की खबर लिखी, उन पर सरकारी काम में बाधा डालने, आपदा प्रबन्धन के अलावा एससी/एसटी ऐक्ट की धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कर दिया गया। आजमगढ़ के एक स्कूल में छात्रों से झाड़ू लगाने की घटना को रिपोर्ट करने वाले छह पत्रकारों के ख़िलाफ 10 सितंबर, 2019 को एफ़आईआर हुई। पत्रकार के ख़िलाफ सरकारी काम में बाधा डालने और रंगदारी मांगने संबंधी आरोप दर्ज किए गए थे यह पूरी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से निकाली गई है।

साथियों बात अगर हम रिपोर्ट विदाउट बॉर्डर की प्रेस फ्रीडम रैंकिंग 2024 जारी करने व देशों की स्थिति की करें तो, भारत में प्रेस फ्रीडम पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्र संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स हर साल 180 देशों की प्रेस फ्रीडम रैंक जारी करती है। इस इंडेक्स में भारत की रैंक लगातार गिरती जा रही है। 2017 में 136वें स्थान के बाद 2020 में भारत 180 देशों में 142वें नंबर पर है। संस्था ने भारत को लेकर कहा था कि साल 2020 में लगातार प्रेस की आज़ादी का उल्लंघन हुआ, पत्रकारों पर पुलिस की हिंसा, राजनीतिक कार्यकर्ताओं का हमला और आपराधिक गुटों या भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों ने बदले की कार्रवाई की। इस महत्वपूर्ण चुनावी वर्ष में, जब लगभग आधी दुनिया मतदान करने जा रही है, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने चेतावनी दी है कि राजनीतिक दबाव पत्रकारिता और जनता के जानने के अधिकार को लगातार खतरे में डाल रहा है।

अपनी 2024 की विश्व प्रेस स्वतंत्रता रिपोर्ट में आरएसएफ ने पाया कि सूचकांक को संकलित करने में इस्तेमाल किए जाने वाले पाँच मेट्रिक्स में से एक राजनीतिक संकेतक में सबसे अधिक गिरावट आई है, जो दुनियाँ भर में औसतन 7.6 अंकों की गिरावट है। कुल मिलाकर, आरएसएफ के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक ने दुनिया भर में रैंक किए गए 180 देशों में से केवल एक चौथाई में पत्रकारिता करने की स्थितियों को संतोष जनक माना। आरएसएफ की संपादकीय निदेशक ने चेतावनी देते हुए कहा, प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा में राज्य और अन्य राजनीतिक ताकतें कम भूमिका निभा रही हैं। यह अशक्तता कभी-कभी अधिक शत्रुतापूर्ण कार्रवाइयों के साथ-साथ होती है जो पत्रकारों की भूमिका को कमज़ोर करती है या यहां तक ​​कि उत्पीड़न या गलत सूचना के अभियानों के माध्यम से मीडिया को साधने का काम करती हैं। इसके विपरीत, उस नाम के योग्य पत्रकारिता किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली और राजनीतिक स्वतंत्रता के प्रयोग के लिए एक आवश्यक शर्त है।

संयुक्त राज्य अमेरिका, 5 नवंबर 2024 को होने वाले महत्वपूर्ण चुनावों की ओर अग्रसर है, ने अपनी रैंकिंग में 10 पायदान की गिरावट देखी और यह 55वें स्थान पर आ गया, क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता के लिए प्रमुख संरचनात्मक बाधाएं जारी हैं – हालांकि इसकी विधायिका द्वारा संघीय मीडिया शील्ड कानून पारित करने की संभावना सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करती है। प्रेस की आज़ादी के चिरकालिक विरोधी चीन (172वें स्थान पर), वियतनाम (174वें स्थान पर), ईरान (176वें स्थान पर) और उत्तर कोरिया (177वें स्थान पर) ने पिछले साल कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखाया, लेकिन सक्रिय सशस्त्र संघर्षों से गुजर रहे या हाल ही में पीड़ित तीन देशों ने उन्हें दुनियाँ के सबसे खराब देशों की सूची से हटा दिया। 2024 में, अफगानिस्तान (178वें स्थान पर), सीरिया (179वें स्थान पर) और इरिट्रिया (180वें स्थान पर) की तिकड़ी सूची में सबसे नीचे आ गई। यमन (154वें स्थान पर) और फिलिस्तीन (157वें स्थान पर), जो युद्ध के बीच में हैं, प्रेस के लिए बहुत कठिन परिस्थितियों का सामना करना जारी रखते हैं।

एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी : संकलनकर्ता, लेखक, कवि, स्तंभकार, चिंतक, कानून लेखक, कर विशेषज्ञ

अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि हांगकांग के दो संपादकों को एक आलेख पर देशद्रोह के आरोप में 21 माह की जेल- लोकतंत्र का चौथा स्तंभ स्तब्ध। दुनियाँ में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा में राजनीतिक ताकतों को महत्वपूर्ण भूमिका निभाना समय की मांग।लोकतंत्र की आधारशिला व चौथे स्तंभ मीडिया के उच्च मानकों को बनाए रखनें, राजनीतिक दबाव तंत्र व माफिया तंत्र पर नियंत्रण के लिए न्यायपालिका कार्यपालिका व विधायिका का सहयोग जरूरी है।

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)

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