क्लाइमेट कहानी, निशान्त। साल 1933 में लॉस्ट होराइजन नाम के उपन्यास में लेखक जेम्स हिल्टन ने हिमालय में कहीं बसी एक काल्पनिक वादी, शांगरी ला का ज़िक्र किया था। यह घाटी बेहद खूबसूरत नज़ारों को समेटे थी। ऐसा माना जाता है कि जेम्स हिल्टन हिमालय के सौंदर्य से मोहित थे, जिसके चलते उन्होंने शांगरी ला कि कल्पना की। मगर आज, अगर जेम्स हिल्टन हिमालय के इस स्वरूप को देखते तो शायद शांगरी ला जैसी कोई कल्पना न कर पाते। आज, हिमालय सिर्फ़ त्रासदी की तस्वीर बन चुका है।
बेतरतीब इमारतें और समझ से परे विकास इन पर्वत श्रृंखलाओं को मजबूर कर रहा है कि वो हमसे इसका बदला लें लेकिन इमारतें अगर न बनें तो बढ़ती जनसंख्या रहेगी कहाँ और विकास के लिए अगर पहाड़ काट कर सड़क न बने तो आर्थिक गतिविधियां कैसे होंगी? रजत कपूर पेशे से एक आर्किटेक्ट हैं लेकिन सही शब्दों में कंजर्वेशनिस्ट हैं। ये हिमालय क्षेत्र में वहाँ के स्थानीय और परंपरागत तरीकों से मकान बनाने की वकालत करते हैं।
अपना तर्क देते हुए रजत कहते हैं, “आर्किटेक्चर की पूरी पढ़ाई यूरोपियन पद्धतियों पर केन्द्रित है। इसलिए अधिकांश आर्किटेक्ट वही बनाते हैं जो उन्होनें पढ़ा है लेकिन हिमालय की संरचना पर हम वैसे ढांचे नहीं खड़े कर सकते। यहाँ हम कंक्रीट की बड़ी इमारतें बना देंगे तो पहाड़ दरकने की छोटी सी भी घटना किसी बड़ी त्रासदी का सबब बन सकती है।”
तो इलाज क्या है, “इलाज है स्थानीय उपलब्ध मटेरियल से, परंपरागत शैली में निर्माण। सरल शब्दों में कहें तो आज की व्यवहारिकताओं को ध्यान में रखते हुए भवन निर्माण में कंक्रीट और लकड़ी का प्रयोग।“ वो आगे बताते हैं कि, “लेकिन ऐसा करना मौजूदा नीतियों के तहत इतना जटिल हो गया है कि आप चाह कर भी लकड़ी का प्रयोग नहीं कर सकते। तमाम बंदिशें पहले इसे अव्यावहारिक बनाती हैं, फिर इसकी कीमत भी बढ़ जाती है।”
रजत का मानना है इस स्थिति से निपटने के लिए सबसे पहला कदम होगा जागरूकता. वो कहते हैं, “लोगों को समझना होगा कि हिमालय की ढलान और उत्तर प्रदेश की धरती अलग हैं। पहाड़ों पर हम अपनी ईगो के मसाज के लिए वैसा कुछ नहीं बना सकते जो हम शायद उत्तर प्रदेश या किसी अन्य मैदानी इलाके में बना सकते हैं।”
उनकी बात का समर्थन करते हुए पर्यावरणविद डॉ सीमा जावेद कहती हैं न सिर्फ़ हिमालय के बारे में जागरूकता बल्कि वक्त अब बदलती जलवायु का इन पर्वतों पर पड़ने वाले फर्क को समझने का भी है। वो कहती हैं, “हिमालय का निर्माण भारतीय और यूरेशियाई प्लेटों के टकराने से हुआ। भारतीय प्लेट की उत्तर दिशा की और गति के कारण चट्टानों पर लगातार दबाव बना रहता है, जिससे वे कमजोर हो जाती हैं और भूस्खलन की आशंका बढ़ जाती है।”
बदलती जलवायु के संदर्भ में वो कहती हैं, “दुनिया के सबसे कमजोर पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक हिमालय है। बीते कुछ दिनों में यहाँ भीषण बारिश और भूस्खलन की घटनाएं हुई हैं। इन सब घटनाओं पर जलवायु परिवर्तन की छाप है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते हवा में नमी सोखने की क्षमता बढ़ रही है। यह बढ़ी नमी बारिश की तीव्रता और मात्रा पर सीधे तौर पर असर डाल रही है। यह बारिश, भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं बन कर जान और माल का नुकसान कर रही हैं।”
इन दरकते पहाड़ों पर जनसंख्या के बढ़ते दबाव और विकास के दौड़ते पहिये पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इंडिया ग्रीन्स पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष सुरेश नौटियाल कहते हैं, “बढ़ती जनसंख्या अपने आप में एक त्रासदी है। इससे निपटने में हम पहले ही देरी कर चुके हैं लेकिन अब भी देरी नहीं हुई है।
रही बात विकास की, तो हमें समझना होगा कि विकास की जो परिभाषा मैदानी राज्यों में कारगर है, वो पहाड़ी क्षेत्रों में प्रासंगिक नहीं। हमें हिमालय को बचाना है तो उसे समझना होगा, उसके अनुरूप रहना होगा।” कुल मिलाकर, इस बात में दो राय नहीं कि हिमालय को अगर हमने कष्ट दिया तो वो हमें कष्ट देगा। अगर हिमालय की तस्वीर हमने अपनी चाहतों के रंगों से बनाई तो वो तस्वीर त्रासदी की ही बनेगी।