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आज बेटी दिवस है और बेटियां विवश है

प्रांजल वर्मा, डुमरांव। बेटी दिवस पर सोचती हूं, क्या वाकई आज है सम्मान? फिर भी बेटी अपने अस्तित्व के लिए हर दिन है परेशान। संस्कारों की बेड़ियों में, वो कब तक बंधी रहेगी? अपने सपनों की उड़ान को, आखिर कब तक रोकेगी?

हर दिन उसे करना पड़ता है संघर्ष का सामना, कभी घर की चारदीवारी, तो कभी समाज का ताना। उसके हक को छीनते हैं वही जो देते हैं ज्ञान, फिर भी वो मुस्कुराकर सहती है हर अपमान।

क्यों नहीं समझते लोग उसकी भी है पहचान, वो भी तो है इंसान, वो भी रखती है अरमान। जिसने दिया जीवन का उपहार, वही क्यों सहती चोट, कब तक यूं सहती रहेगी, कब आएगा उसका मोड़?

बेटी है वो शक्ति, उसके बिना कुछ भी नहीं पूरा, उसके सम्मान में ही है संसार का हर सपना अधूरा। आज का दिन नहीं, हर दिन उसका हो सम्मान, तभी होगा सार्थक, ‘बेटी दिवस’ का ये नाम।

प्रांजल वर्मा, लेखिका

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