श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। हमारे देश का विस्तृत इतिहास हमारे पूर्वजों की वीरता, त्याग और उनके शौर्य से रचित-सिंचित है, जो अक्सर बताते रहता है कि हमारे वीर पूर्वजों ने विदेशी आक्रमणकारियों को अक्सर लोहे के कड़े चने चबवाते रहे थे। ऐसे ही वीरता-शौर्यता के अद्भुत दिव्य कणों से निर्मित थे, पूर्वी भारतवर्ष के ‘लचित बोरफुकन’। सोलहवीं सदी में मुगलिया विस्तारवाद पर नकेल कसने वाले ‘पूर्वोत्तर के शिवाजी, लचित बोरफुकन’ असम के समाज और इतिहास में एक प्रवीर नायक की तरह आज भी प्रतिष्ठित और पूजनीय हैं, जिनके स्मरण में प्रतिवर्ष 24 नवंबर को पूरे असम प्रांत में ‘लचित दिवस’ बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता रहा है। अपने वीर-पुत्र लचित बोरफुकन की वीरता को नमन करते हुए राष्ट्र ने 2022 में उनकी पावन 400 वीं जयंती को राष्ट्र-व्यापी उत्सव के रूप में पालन भी किया है।
दो प्रमुख प्रवीर भारत-पुत्रों ने मुगल शासक औरंगजेब को आजीवन नायकों में दम किए रहे थे, एक ‘मराठा साम्राज्य’ के संस्थापक वीर शिवाजी और दूसरे असम के तत्कालीन ‘अहोम साम्राज्य’ के प्रमुख सेनापति ‘लचित बोरफुकन’। अहोम साम्राज्य पर कब्जा करने की लालसा से बढ़ती मुगल शक्ति को कई युद्धों में पराजित कर उसकी शक्ति को नियंत्रित कर उस पर नकेल कसने का कार्य अहोम सेनापति लचित बोरफुकन ने ही किया था। उन्होंने कई बार मुगलों की धूल चटाई। मुगलों के कब्जे से गुवाहाटी को छुड़ाकर उस पर पुनराधिकार किया। असम प्रदेश में आज भी उनकी वीरता को स्मरण कर उन्हें ‘पूर्वोत्तर का शिवाजी’ कहा जाता है।
अहोम साम्राज्य वर्तमान असम के ‘चराईदेव’ में तत्कालीन अनुभवी स्वर्गदेव (राजा) प्रताप सिंह के प्रवीर सेनापति मोमाई तमुली बरबरुआ (मूलनाम सुकुती) और कुंती मोरन के घर उनके छोटे बेटे के रूप में 24 नवंबर, 1622 को चाउ लचित बरबरुआ का जन्म हुआ था। मोमाई तमुली बरबरुआ (सुकुती) अहोम साम्राज्य की ओर से जहाँगीर और शाहजहाँ के समय मुग़ल सेना से कई निर्णायक युद्ध किए थे, जिनमें वे विजयी भी हुए थे। लचित भी अपने पिता की भाँति ही बचपन से ही बहुत जिम्मेवार, समर्पण, साहसी और निडर थे। उन्होंने शास्त्र और शस्त्र दोनों की पर्याप्त शिक्षा प्राप्त की थी। इसके अतिरिक्त कुश्ती, घुड़दौड़, युद्धकला आदि में भी वे बहुत जल्दी ही पारंगत हो गए थे। पिता मोमाई तमुली बरबरुआ अपने पुत्र की वीरता पर गर्व किया करते थे।
लचित पहले तो अहोम के स्वर्गदेव (राजा) चकरध्वज के ध्वज वाहक (सोलधर बरुआ), फिर शाही घुड़साल के अधीक्षक (घोड़ बरुआ), फिर सिमुलगढ़ किले का प्रमुख (सिमलगुरिया फुकन), फिर डोलाकाशरिन बरुआ (पुलिस प्रमुख) जैसे प्रमुख पदों पर आसीन रहें। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने जो अपनी अद्भुत प्रशासकीय योग्यता को प्रदर्शित की, उसी के अनुरूप राजा चकरध्वज ने उन्हें सन् 1663 में अहोम साम्राज्य का प्रमुख सेनापति (बरफुकन) बना दिया और उपहार स्वरूप लचित को सोने की मूठ वाली एक तलवार (हेंगडांग) और विशिष्टता के प्रतीक राजकीय पारंपरिक वस्त्र प्रदान किया था।
लचित बोरफुकन अपने पिता मोमाई तमुली बरबरुआ के समय से ही मुगलों की क्रिया-कलापों को बहुत ही बारीकी से देख और मनन करते रहे थे। अतः आवश्यकता के अनुकूल अपनी अहोम सेना को मजबूत करने के लिए सेनापति का पदभार संभालते ही उन्होंने अहोम सेना को संगठित करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। प्रथम चार वर्षों में लचित बरफुकन ने अपना पूरा ध्यान अहोम सेना के नव-संगठन और अस्त्र-शस्त्रों को इकट्ठा करने में लगाया। इसके लिए उन्होंने नए सैनिकों की भर्ती की, जल सेना के लिए नौकाओं का निर्माण कराया, हथियारों की आपूर्ति, तोपों का निर्माण और किलों के लिए मजबूत रक्षा प्रबंधन इत्यादि का दायित्व अपने ऊपर लिया।
उन्होंने यह सब इतनी चतुराई, समझदारी और गुप्त रूप में किया कि इन सब तैयारियों की भनक मुगलों तक को न लगने दी। उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी पर नाव का पुल बनाने की तकनीक को विकसित की। उनका शंका निर्मूल नहीं थी। अगस्त 1667 में तत्कालीन मुगल फौजदार फिरोज खान ने अहोम सीमा पर पुनः आक्रमण कर दिया। ऐसे में लचित बरफुकन ने सेना में जान फूँक दी और बहुत ही चतुराई से उस पर आक्रमण कर उसे पराजित कर बंदी बना लिया। साल 1661 की लड़ाई में मुगलों द्वारा हथियाया गया गुवाहाटी को उन्होंने मुगलों से वापस ले लिया।
ऐसे में औरंगज़ेब ने अपने एक जाँबाज सेनापति मीर जुमला को पूर्वी भारत पर फिर से मुग़ल अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए भेजा। परंतु अहोम सेना ने अपने बहादुर सेनापति लचित बरफुकन के नेतृत्व में उसे भी पराजित कर 2 नवंबर 1667 को ‘इटाखुली’ का महत्त्वपूर्ण क़िला को जीत लिया और मुगल सेना को मनहा नदी के पार तक खदेड़ दिया।
अपने हार का बदला लेने के लिए फिर औरंगज़ेब ने राजा जयसिंह के बेटे राजा रामसिंह को विशाल मुगल सेना के साथ असम प्रदेश की ओर भेजा। फरवरी 1669 में विशाल मुगल सेना अहोम साम्राज्य की सीमा की चौकी रांगामाटी पहुँची। रामसिंह की मुगल सेना में पहले से ही 21 राजपूत सरदार, 4000 घुड़सवार, 1500 बादशाह के अपने घुड़सवार और 500 तोपची थे । फिर बंगाल प्रदेश से भी उसमें अतिरिक्त सैन्यबल के रूप में 30,000 पैदल सैनिक, 18,000 तुर्की घुड़सवार तथा 1500 तीरंदाज़ शामिल हो गए थे। इसकी सूचना अहोम के गुप्तचरों ने अपने सेनापति लचित बोरफुकन पहुँचा दी। उस विशाल मुगल सेना के विपरीत अहोम साम्राज्य की सेना बहुत कम थी।
परंतु लचित बोरफुकन जरा-सा भी विचलित न हुए और न ही घबराए ही। बल्कि उन्होंने इस विशाल मुगल सेना के साथ प्रत्यक्ष लड़ाई करने के बदले मराठा शिवाजी की ‘गुरिल्ला युद्ध की नीति’ को अपनाने का फैसला किया। गुवाहाटी के पास-पड़ोस ब्रह्मपुत्र नदी के विभिन्न दर्रों और घाटियों का सूक्ष्म निरीक्षण किया और अति सतर्कता दिखाते हुए वही पर मुगल सेना को घेरने की योजना बनाई।
सेनापति लचित बोरफुकन पहले तो गुवाहाटी जाने वाली सभी थल मार्गों को बंद कर दिया। फिर मुगल सेना को ब्रह्मपुत्र नदी की निर्धारित घाटी में लाने के लिए उन्होंने अपने कुछ अधिकारियों को कुछ सेना के साथ मनाहा नदी की ओर भेज दिया, जिसे देख कर मुगल सेना उनका पीछा करती हुई गुवाहाटी की ओर बढ़ी चली। पर सड़क मार्ग बंद होने के कारण रामसिंह नदी के मार्ग से नौसेना जहाजी बेड़ा के साथ गुवाहाटी की ओर बढ़ा। यही तो सेनापति लचित बोरफुकन भी चाहते थे। ठीक ऐसे ही समय आहोम सेना को पैदल और नौसेनिकों को संयुक्त रूप में मुगलों पर आक्रमण करने का आदेश दिया ।
इसके साथ ही ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर बने मुगल सैनिकों के शिविरों पर अहोम सैनिक आधी रात को अचानक हमला कर भारी नुक़सान पहुँचाने लगे और मुगल सैनिकों में अफवाह फैला दी गईं कि अहोम सेना में एक लाख से अधिक राक्षस हैं, जो रात में भयानक तबाही मचाते हैं। उसे सच साबित करने के लिए रात में कुछ विशेष खूंखार अहोम सैनिकों को राक्षसी वेशभूषा में मुगल सैनिकों के शिविरों में भेजा जाता था। अंततः रामसिंह ने भी मान लिया कि उसका मुक़ाबला मानव सैनिकों से नहीं, बल्कि राक्षसों से हो रहा है। उधर नौसेना के युद्ध में भी अहोम शक्ति भारी पड़ रही थी । ‘सुआलकुची’ के पास हुए उस युद्ध में भी अहोम सेना अपने सेनापति लचित बोरफुकन के नेतृत्व में जल और थल, दोनों जगह विजयी हुई।
उसके बाद एक बार फिर सन् 1671 में मुगल सेनापति रामसिंह के नेतृत्व में अहोम साम्राज्य विजय के दिवा स्वप्न सजाए मुगल सेना असम की ओर कूच की। अहोम सेनापति लचित बोरफुकन ने भी अपनी पूरी सेना को ब्रह्मपुत्र नदी के कुछ ऊँची दक्षिणी तट पर ‘सरायकेला’ में खड़ा कर दिया। अहोम पर हमला करने के लिए सभी को इस नदी से होकर आना पड़ता था और जब तक दुश्मन की सेना नदी पार करती, तब तक उसके आधे सैनिक मारे जा चुके होते थे।
उस युद्ध के आरंभ में कुछ आंशिक सफलता मुगल सेना को मिली थी और अहोम सेना कुछ पीछे हटने लगी थी। ऐसे में गंभीर बीमारी की हालत में अहोम सेनापति लचित बोरफुकन ने अपने हाथों में तलवार लिये अहोमिया सैनिकों को अपने देश और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए प्रेरित किया। सेनापति की ललकार को सुनकर जोश से भरे अहोम सैनिकों ने पूरी बहादुरी और सतर्कता से लड़ाई की। मुगल सेनापति रामसिंह विजय के प्रति आश्वस्त नदी में एक बाजरे पर सवार होकर युद्ध का अवलोकन कर रहा था, कि उधर एक छोटी-सी नाव में सवार बीमार बहादुर सेनापति लचित बोरफुकन ने उस पर अचानक आक्रमण कर दिया।
राजा रामसिंह अचानक ऐसे आक्रमण के लिए सचेत न था। किसी तरह से अपने प्राण की रक्षा करते हुए भाग खड़ा हुआ। अहोम पर अधिकार करने का मुगल का यह प्रयास विफल हो गया। अहोम सेना ने अपने बेहतर रणनीति और मनोवैज्ञानिक युद्ध नीति से ‘अलाबोई के मैदानी युद्ध’ में दस हज़ार सैनिक खोने के बाद ‘सरायघाट’ के निर्णायक युद्ध में मुगल सेना को बुरी तरह से पराजित कर दिया । उस युद्ध को ‘सरायघाट का युद्ध’ कहा जाता है। इसे किसी नदी पर होने वाली सबसे बड़ी एक नौसैनिक युद्ध के रूप में जाना जाता है।
‘सरायघाट का युद्ध’ ने औरंगज़ेब का पूरे भारत पर शासन करने के स्वप्न को तोड़कर चकनाचूर ही कर दिया। अहोम सेनापति लचित बोरफुकन के नेतृत्व में लड़ी गई वह लड़ाई हमारे देश के इतिहास में विधर्मियों के प्रतिरोध की सबसे बड़ी प्रेरणादायक सैन्य उपलब्धियों में से एक है।
परंतु ‘सराईघाट का युद्ध’ तो अहोम सेना ने जीत ली, पर उस युद्ध में उनके रण बांकुरे अहोम शेर लचित बोरफुकन ज्वर की अवस्था में बहुत घायल हो चुका था। उस युद्ध की विजय तिलक की चोटें उसे क्रमशः शारीरक क्षीण ही करती ही गईं। उसके एक वर्ष बाद ही प्राकृतिक कारणों से लाचित बोरफुकन की मृत्यु हो गई। तत्कालीन अहोम स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह ने अपने वीर सेनापति लचित बोरफुकन के मृत पार्थिव शरीर का जोरहाट से लगभग 16 किमी. दूर ‘हूलुंगपारा’ में राजयकीय वीरोचित स्वरूप में अंतिम संस्कार करवाया। सन् 1672 में अहोम स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह ने अपने वीर सेनापति की स्मृति और सम्मान में एक सुंदर ‘लचित स्मारक वाटिका’ का निर्माण करवाया, जहाँ वीर अहोम पुत्र लचित बोरफुकन चीर विश्राम कर रहे हैं।
हालाँकि मुगल सेना ने अहोम साम्राज्य पर अधिकार करने की कोशिशें कभी नहीं छोड़ीं । लेकिन मुगल सेना अहोम सेना से पार न पा सकी थी। फिर औरंगजेब के बाद मुग़ल साम्राज्य के पतन के दौर में उसके कमज़ोर मुगल शासकों ने अहोम पर क़ब्ज़े का कोई प्रयास नहीं किया। लेकिन उन्नीसवीं सदी आते-आते कमज़ोर हो चुके अहोम साम्राज्य ने ब्रिटिश शासन के सामने घुटने टेक दिए और 600 वर्षों के आज़ाद शासन के बाद वर्ष 1826 की ‘यांडाबू की संधि’ के अनुसार असम ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंग बनकर रह गया।
लचित बरफुकान के पराक्रम और ‘सराईघाट की लड़ाई’ में असमिया सेना की विजय का स्मरण कराने के लिए संपूर्ण असम (अहोम) राज्य में प्रवीर सेनापति लचित बोरफुकन के जन्म दिवस 24 नवंबर को ‘लाचित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। समय-समय पर अपने सैन्य-शक्ति को बढ़ाने के लिए इनसे भारतीय नौसैनिक शक्ति को मजबूत करने, अंतर्देशीय जल परिवहन को पुनर्जीवित करने और नौसेना की रणनीति से जुड़े विशेष बुनियादी ढाँचे के निर्माण के क्षेत्र में राष्ट्र ने उनकी सैन्य-संचालन गतिविधियों से कई बार प्रेरणा ली है। ‘राष्ट्रीय रक्षा अकादमी’ भी सन् 1999 से अपने सर्वश्रेष्ठ सैन्य कैडेट को उस महान वीर के नाम पर ही ‘लचित बरफुकन गोल्ड मैडल’ से सम्मानित करता है। जब तक ब्रह्मपुत्र नदी का अविश्रान्त प्रवाह रहेगा, तब तक हम भारतवासी लचित बरफुकन के पराक्रम की गौरवगाथा का स्मरण करते ही रहेंगे। ऐसे ही वीर व्यक्तित्व द्वारा हमारे देश का इतिहास निर्मित है। सारा देश ऐसे वीर योद्धाओं पर सदैव गर्व करता है।
श्रीराम पुकार शर्मा,
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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