ध्वनि प्रदूषण का सवाल…

प्रशांत सिन्हा, कोलकाता । धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का मुद्दा आजकल चर्चा का विषय बना हुआ है। दुखदायी तो यह है कि यदि इस चर्चा को राजनैतिक और सांप्रदायिक रंग दिये जाने की जगह ध्वनि प्रदूषण से हो रहे खतरों के निदान की दिशा में की जाती तो शायद इससे देश और समाज का न केवल भला होता बल्कि इससे पीडि़त असंख्य लोगों के स्वास्थ्य में भी सुधार होता। जबकि ध्वनि प्रदूषण स्वास्थ के लिए कितना खतरनाक है, इसका अंदाज बहुत ही कम लोगों को है। सबसे अधिक चिंता की बात तो यही है।

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प्रशांत सिन्हा (पर्यावरण मामलों के जानकार)

विडम्बना यह है कि यह सिर्फ धार्मिक स्थलों पर ही लाउडस्पीकर की आवाज की समस्या नहीं है बल्कि वाहनों के तेज आवाज के हॉर्न और कल-कारखानों की मशीनों से भी बहुत ध्वनि प्रदूषण होता है जो सहन शक्ति के बाहर है। शादी-ब्याह में डीजे आदि इतनी ऊंची आवाज में बजाये जाते हैं जिसके शोर से इंसान न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी तनाव ग्रस्त हो जाता है। नतीजतन अनेक प्रकार के गंभीर मानसिक-शारीरिक रोग जन्म लेते हैं। इससे व्यक्ति की दैनिक दिनचर्या ही नहीं, उसके काम की क्षमता भी प्रभावित होती है।

स्वाभाविक है कि इससे व्यक्ति के काम में बाधा आती है। नींद ठीक से न आने पर शारीरिक और मानसिक कष्ट होता है वह अलग। परिणाम यह होता है कि व्यक्ति रक्तचाप के बढ़ने और कम होने की समस्या से ग्रस्त हो जाता है। उसके बहरेपन की संभावना बढ़ जाती है। जाहिर है कि बढ़ते शोर के प्रभाव को किसी भी प्रकार की दवाओं से न तो कम किया जा सकता है और न ही खत्म किया जा सकता है। इसके लिए सबसे आवश्यक है कि शोर के उदगम पर ही नियंत्रण लगाया जाये।

गौरतलब है कि ध्वनि बहुत ही मधुर और कर्ण प्रिय लगती है जबकि वह संगीत की हो। उस दशा में तो और जब हम किसी संगीतज्ञ की रचना सुनते हैं। उस स्थिति में तो कितना आत्मविभोर हो जाते हैं हम। किंतु जब यही ध्वनि शोर का रुप धारण कर लेती है उस दशा में वह बहुत ही कष्ट दायक हो जाती है। यह हम सब भलीभांति जानते-समझते भी हैं। ट्रक, बस, ट्रेन, मोटर कार, मोटर साइकिल, जुलूस आदि के शोर से अब केवल शहर ही नहीं बल्कि गांव भी अछूते नहीं हैं जहां तकरीब दो-तीन दशक पहले तक इन सब विकारों से शांति थी।

दुखदायी और चिंतनीय विषय यह भी है कि इसके लिए देश में कानून बना हुआ है। ध्वनि प्रदूषण (अधिनियम और नियंत्रण) कानून 2000 जो पर्यावरण (संरक्षण) कानून 1986 के तहत आता है, उसकी 5वीं धारा लाउडस्पीकर और सार्वजनिक स्थलों पर मनमाने ऊंची आवाज में बजने वाले यंत्रों पर अंकुश लगाता है। जबकि लाउडस्पीकर के सार्वजनिक स्थलों पर लगाने-बजाने के लिए प्रशासन से लिखित में पूर्व अनुमति लेनी जरूरी होती है। यह जान लेना जरूरी है कि लाउडस्पीकर या सार्वजनिक स्थलों पर रात में कोई भी यंत्र बजाने पर प्रतिबंध है। यह रोक रात के 10 बजे से सुबह 6 बजे तक है। हालांकि ऑडोटोरियम, कांफ्रेंस रूम, सामुदायिक भवन जैसे बंद कमरे में बजाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।

फिर राज्य सरकार के पास यह अधिकार है कि वह क्षेत्र विशेष के हिसाब से किसी भी औद्यौगिक, व्यवसायिक, आवासीय क्षेत्र को शांत क्षेत्र घोषित कर सकती है। अस्पताल, शैक्षणिक संगठन और अदालत के 100 मीटर के दायरे में ऐसे कार्यक्रम नहीं कराए जा सकते क्योंकि सरकारें इनको शांत क्षेत्र (Silence Zone) मानती हैं। इसके लिए क्षेत्र और समय के अनुसार सीमा रखी गई है। मानव के कान कम से कम 0 डेसिबल और अधिक से अधिक 180 डेसिबल तक शोर का सामना कर सकते हैं। एक नियम के अनुसार सार्वजनिक और निजी स्थलों पर लाउडस्पीकर की ध्वनि सीमा क्रमशः 5 डेसिबल और 10 डेसिबल से अधिक नही होनी चाहिए। रिहायशी इलाकों में ध्वनि का स्तर सुबह 6 बजे तक 55 डेसिबल तो रात 10 बजे से सुबह तक 45 डेसिबल तक ही रखा जा सकता है। जबकि व्यवसायिक क्षेत्र में सुबह 6 बजे से रात 10 बजे से तक 65 डेसिबल और रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक 55 डेसिबल तक का स्तर होना चाहिए। दूसरी ओर औधोगिक क्षेत्रों में इस दौरान ध्वनि का स्तर सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक 75 डेसिबल रख सकते हैं। वहीं शांत क्षेत्र में इस दौरान यह क्रमशः 40 डेसिबल और 50 डेसीबल रखा जाना चाहिए।

लेकिन दुख की बात है जिस प्रकार हवा में प्रदूषण बढ़ रहा है, वृक्षों को काटे जा रहे हैं, जल को प्रदूषित किया गया है, उसी प्रकार नियमों की धज्जी उड़ाते हुए ध्वनि को भी प्रदूषित किया जा रहा है। इसे अविलंब रोकना बेहद जरूरी है। कम से कम मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से तो इस पर अंकुश समय की मांग है।
(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं।)

(नोट : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत है। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है।)

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