श्याम कुमार राई ‘सलुवावाला’, खड़गपुर । अपने समय के खूबसूरत और बेहतरीन अभिनेता विनोद खन्ना का फिल्मों में आने का किस्सा कम दिलचस्प नहीं है। वे शुरू की फिल्मों में खलनायक की भूमिका में आए, फिर जल्द ही नायक की भूमिका करने लगे। फिल्मों में आने का उनका किस्सा बिल्कुल अलग किस्म का था। वे खाते-पीते घर से थे। पिताजी का अच्छा-खासा व्यवसाय था। उनके परिवार में कभी कोई फिल्मों में नहीं था। जब उनके पिताजी को पता चला कि विनोद खन्ना फिल्मों में जाना चाहता है तो उन्होंने साफ मना कर दिया। वे नहीं चाहते थे कि बेटा फिल्मों में जाए। इस बात को लेकर बाप-बेटे में काफी कहा-सुनी, तू-तू, मैं-मैं हुई। कहा तो यहां तक जाता है कि विनोद खन्ना के पिताजी ने उन पर बंदूक तान दी थी।
आखिर में विनोद खन्ना की मां ने बीच-बचाव करते हुए एक रास्ता निकाला कि बेटे को कुछ समय दिया जाए। तब विनोद खन्ना के पिताजी ने उनको दो वर्ष का समय इस शर्त पर दिए कि वह इस तय समय-सीमा के भीतर तक फिल्म के लिए कोशिश कर सकता है। अगर फिल्म-जगत में अपना स्थान बनाकर खुद को साबित किया तो ठीक, नहीं तो वापस आकर अपना व्यवसाय संभालेगा। इस तरह इस शर्त के साथ विनोद खन्ना के लिए फिल्म-अभिनेता बनने का रास्ता खुला और वे फिल्म में काम पाने की कोशिश में जुट गए।
अब आता है इस किस्से का दूसरा पहलू, कि कैसे विनोद खन्ना के लिए फिल्मी जीवन में प्रवेश का रास्ता खुलता है। अजंता आर्ट्स के झंडे तले सन् 1968 में बनी फिल्म ‘मन का मीत’ वो फिल्म थी जिसमें पहले विनोद खन्ना को अभिनय का मौका मिला। इस फिल्म का निर्माण अभिनेता सुनील दत्त ने किया था। इसके बनने का किस्सा भी कम मजेदार नहीं है। सुनील दत्त अपनी मां को बेहद चाहते थे। उनकी हर बात को वे मानते थे। उनकी मां ने एक दिन उनसे कहा कि वे अपने छोटे भाई सोम दत्त को भी हीरो बनाए। सुनील दत्त ने पहले तो कहा, “मां, वो हीरो का काम नहीं कर सकेगा और वो जो काम कर सकता है, याने हमारी फिल्म कंपनी के प्रोड्क्शन के काम में मैंने उसे लगा रखा है।”
लेकिन मां नहीं मानीं वो बोलीं, “जब तू कर सकता है तो वो क्यों नहीं?” सुनील दत्त मां की बात टाल नहीं सके। इस तरह उन्होंने भाई सोम दत्त को लेकर फिल्म ‘मन का मीत’ बनाने की योजना बनाई और नायिका की भूमिका के लिए लीना चंदावरकर को लिया। इस फिल्म में विनोद खन्ना खलनायक की भूमिका के लिए अनुबंधित किए गए। इस तरह सोम दत्त ‘मन का मीत’ से हीरो बन गए। यह फिल्म कोई खास नहीं चली। आगे चल कर सोम दत्त सफलता प्राप्त नहीं कर सके। फिर थोड़ें समय बाद फिल्मों से ओझल हो गए।
लेकिन इस फिल्म की अभिनेत्री लीना चंदावरकर और खलनायक की भूमिका निभाने वाले विनोद खन्ना के लिए फिल्मी दुनिया में काम पाने का रास्ता खुल गया। इस फिल्म के बाद आहिस्ता-आहिस्ता विनोद खन्ना निर्माता-निर्देशकों की नजरों में आ गए और उन्हें फिल्में मिलती गई। शुरू में ‘आन मिलो सजना’, ‘सच्चा झूठा’ में नकारात्मक भूमिकाएं निभाई। फिर ‘नतीजा’ में बिंदु के साथ नायक भी बने। बाद में ‘मेरे अपने’ में काम कर लोगों के पसंदीदा बने। फिर तो ‘कच्चे धागे’, ‘मेरा गांव मेरा देश’ जैसी फिल्मों से दर्शकों के चहीते बन गए। गुलजार की फिल्म ‘अचानक’ में उनके काम को काफी सराहना मिली। फिल्म ‘अमर अकबर एन्थोनी’ और ‘मुकद्दर का सिकंदर’ सहित ढेरों सफल फिल्मों में अमिताभ के साथ टक्कर की भूमिका अदा कर सफलतम कलाकारों की पंक्ति में आ गए।
इस तरह वे एक साथ किसी फिल्म में वे खलनायक तो किसी में सहायक भूमिका और किसी में नायक की भूमिका कर रहे थे। यही उनकी विशेषता थी। अपनी हर भूमिका में अपनी अदाकारी की छाप छोड़ जाते। इसलिए प्रशंसक उन्हें बहुत चाहते थे। फिर तो वे फिल्मी दुनिया के सुंदर-आकर्षक चेहरे वाले प्रतिभा संपन्न अभिनेताओं में शुमार हो गए। सुख-सुविधाओं से संपन्न जिंदगी के होते हुए और पिता के इन्कार और विरोध से जूझकर शुरू हुई कोशिश से एक सफल अभिनेता बनने तक का विनोद खन्ना का सफर बहुतों के लिए प्रेरणा की वजह बनता है तो कोई कम बात नहीं है। सन् 6 अक्टूबर, 1946 को पेशावर में जन्मे विनोद खन्ना का निधन 27 अप्रैल, 2017 में हो गया। वे लंबे समय से कैंसर से जूझ रहे थे।