‘Sunday Special Story’ : खतरे से जूझ रहा सुंदरबन, मैंग्रोव गठबंधन में शामिल हुआ भारत

Climateकहानी, कोलकाता। मैंग्रोव वनों को दुनिया का “सबसे अधिक उत्पादक पारिस्थितिक तंत्र” करार देते हुए, भारत मंगलवार को मिस्र के शर्म अल-शेख में पार्टियों के सम्मेलन (COP27) के 27वें शिखर सम्मेलन में जलवायु के लिए मैंग्रोव गठबंधन (MAC) में शामिल हो गया। इस गठबंधन को यूएई, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, जापान, स्पेन और श्रीलंका का समर्थन प्राप्त है। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने मैंग्रोव अलायंस फॉर क्लाइमेट (एमएसी) के शुभारम्भ के अवसर पर अपने विचार रखते हुए कहा कि मैंग्रोव उष्णकटिबंधीय जंगलों की तुलना में चार से पांच गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन को अवशोषित कर सकते हैं और नए कार्बन सिंक बनाने में मदद कर सकते हैं।

उन्होने आगे कहा कि मैंग्रोव दुनिया के सबसे अधिक उत्पादक इकोसिस्‍टम में से एक हैं। यह ज्वारीय जंगल कई जीवों के लिए एक नर्सरी ग्राउंड के रूप में काम करता है, तटीय क्षरण से सुरक्षा देता है, कार्बन को अलग करता है और लाखों लोगों को आजीविका प्रदान करता है। इसके अलावा यह जीव जंतुओं के लिए आश्रय स्थल के रूप में काम करता है। ध्यान रहे कि मैंग्रोव दुनिया के उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में फैले हुए हैं और 123 देशों में पाए जाते हैं।

मैंग्रोव उष्णकटिबंधीय में कार्बन के लिहाज से सबसे समृद्ध वनों में शामिल हैं। इनकी दुनिया के उष्णकटिबंधीय जंगलों में अनुक्रमित कार्बन में 3% हिस्सेदारी है। मैंग्रोव कई उष्णकटिबंधीय तटीय क्षेत्रों का आर्थिक आधार हैं। नीली अर्थव्यवस्था, या समुद्री जीवन आधारित अर्थव्यवस्था, को बनाए रखने के लिए, स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तटीय आवासों, विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय देशों के लिए मैंग्रोव का स्थायित्व सुनिश्चित करना अनिवार्य है।

भारत में है दुनिया का सबसे बड़ा एकल मैनग्रोव जंगल : दुनिया के सबसे ज्यादा जोखिम में जी रहे 72 लाख लोगों को आशियाना देने वाला और विश्व का सबसे बड़ा एकल मैंग्रोव जंगल यानी सुंदरबन जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों के खतरे से लगातार घिरता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन की वजह से बेरोजगारी में इजाफा हो रहा है। इसके अलावा चरम मौसमी घटनाओं के कारण संपत्ति को क्षति भी पहुंच रही है। साथ ही साथ समुद्र का जल स्तर बढ़ने से महत्वपूर्ण मैंग्रोव और जमीन का भी नुकसान हो रहा है। ऐसे हालात में अपने घरों और रोजी-रोटी पर खतरे को देखते हुए बड़ी संख्या में लाचार लोग दूसरे स्थानों पर पलायन कर गए हैं। 

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की बढ़ती तीव्रता और आवृत्ति का मतलब है कि अनेक मामलों में अनुकूलन की हद को पहले ही छुआ जा चुका है। जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से सबसे ज्यादा प्रभावित लोगों की दलील है कि बेतहाशा नुकसान और क्षति की वित्तीय भरपाई उन लोगों से की जानी चाहिए जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। 

सुंदरबन क्या है? : सुंदरबन बंगाल की खाड़ी में निचले इलाकों में बने टापुओं का एक समूह है और यह भारत से लेकर बांग्लादेश तक फैला हुआ है। यह क्षेत्र अपनी अनोखी जैव विविधता तथा पारिस्थितिकीय महत्व के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है। सुंदरबन में दुनिया का सबसे बड़ा एकल मैनग्रोव जंगल है जिसका कुल क्षेत्रफल 10200 वर्ग किलोमीटर है।

सुंदरबन का पारिस्थितिकी तंत्र महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी सेवाओं की एक व्यापक श्रंखला प्रस्तुत करता है। इनमें लाखों लोगों की चक्रवातों से रक्षा, वन्यजीवों को ठिकाना मुहैया कराना, भोजन और प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराना और कार्बन पृथक्करण करना शामिल है। सुंदरबन करीब 72 लाख (भारत के 45 लाख और बांग्लादेश के 27 लाख) लोगों को आशियाना भी देता है। इनमें दक्षिण एशिया के कुछ सबसे गरीब और बेहद जोखिमों से घिरे समुदाय भी शामिल हैं। यहां रहने वाली लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करती है।

रोजगार के अवसरों की कमी की वजह से सुंदरबन के रहने वाले ज्यादातर लोग रोजी-रोटी के लिए जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करते हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से यह संसाधन लगातार घटते जा रहे हैं इनमें से अधिकतर लोग सिर्फ रोटी के लिए कृषि गतिविधियां करते हैं, जिनमें मछली पकड़ना तथा केकड़े और शहद इकट्ठा करना शामिल है।

सुंदरबन में रहने वाले लाखों लोग अपने पोषण संबंधी मूलभूत जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाते जिसकी वजह से उनके अंदर खून की कमी को पोषण तथा बच्चों के अविकसित रह जाने जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं। साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन की वजह से गरीबी, रोजी-रोटी के विकल्पों की कमी, जमीन पर निर्भरता, जमीन पर असमान स्वामित्व और सीमित सरकारी सहयोग जैसी और मुसीबतों का असर बढ़ जाता है।

सुंदरबन को भारत के विभाजन से पहले वर्ष 1875 में ही एक संरक्षित वन घोषित किया गया था और यूनेस्को ने सुंदरबन के भारत और बांग्लादेश में फैले हिस्सों को क्रमशः 1987 और 1997 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी थी। इस क्षेत्र को रामसर कन्वेंशन ऑन वेटलैंड्स में भी मान्यता दी गई थी। अपनी इस पहचान के बावजूद सुंदरबन जलवायु परिवर्तन के गंभीर खतरे का सामना कर रहा है।

सुंदरबन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव

जमीन का द्रव्यमान साल दर साल घट रहा है : वर्ष 2015 में सुंदरबन का कुल क्षेत्र वर्ष 1967 से 210 वर्ग किलोमीटर घट गया जबकि 1904 से इसमें 451 वर्ग किलोमीटर की कमी आ गई। गिरावट की यह प्रवृत्ति इस सच को समेटे हुए हैं कि क्या सुंदरबन के भारतीय और बांग्लादेशी हिस्सों को अलग-अलग माना जाता है या एक साथ समूहीकृत किया जाता है। सुंदरबन का क्षेत्र सिकुड़ने का सबसे प्रमुख कारण इसके किनारों पर समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी होना है। इसमें वैश्विक औसत के मुकाबले दोगुना से ज्यादा तेजी से वृद्धि हो रही है।

सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों से जाहिर होता है कि सुंदरबन में पिछले 20 वर्षों के दौरान समुद्र के जलस्तर में हर साल औसतन 3 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है और पिछले 40 सालों के दौरान सुंदरबन ने अपने तटों के लगभग 12% हिस्से को खो दिया है। समुद्र का जल स्तर बढ़ने के साथ-साथ नदियों से बह कर सुंदरबन क्षेत्र में आने वाली तलछट में धीरे- धीरे गिरावट होने से भी यहां की जमीन सिकुड़ रही है।

इन कारकों के चलते सुंदरबन के कुछ द्वीपों की तटरेखा 40 मीटर प्रति वर्ष की ऊंची दर से समुद्र में समा रही है और अगर यही हाल रहा तो यह द्वीप अगले 50 से 100 वर्षों में पूरी तरह से गायब हो जाएंगे। कुछ द्वीप पहले से ही जलमग्न हो चुके हैं और ऐसा अनुमान है कि समुद्र के जल स्तर में इसी रफ्तार से बढ़ोत्तरी जारी रही तो कई और द्वीप भी समुद्र में समा जाएंगे।

पानी का खारापन कृषि और सेहत के लिए खतरा है

सुंदरबन के ऐसे इलाके जहां भले ही जमीन समुद्र के पानी में नहीं डूबी हो लेकिन समुद्र के जल स्तर में इजाफे के साथ खारे पानी की बार-बार आने वाली बाढ़ तथा चरम मौसमी घटनाओं के कारण यहां की जमीन अनुत्पादक हो गई है। पानी और मिट्टी के बढ़ते खारेपन की एक और वजह तापमान और बारिश में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले बदलाव भी हैं। इसके अलावा सूखे मौसम में हिमालय से बहकर आने वाले मीठे पानी के प्रवाह में कमी भी इसका एक कारण है।

पिछले 40 वर्षों के दौरान पहाड़ी क्षेत्र के ग्लेशियरों की लगभग 25% बर्फ खत्म हो गई है, जिसकी वजह से सुंदरबन होकर बहने वाली गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों को मीठे पानी की निरंतर और भरोसेमंद आपूर्ति पर सुस्पष्ट खतरा पैदा हो गया है। सुंदरबन क्षेत्र में पानी और मिट्टी का खारापन नाटकीय रूप से बढ़ा है और ऐसे अनुमान लगाए जा रहे हैं कि इस क्षेत्र के अनेक हिस्सों का खारापन वर्ष 2050 तक महासागरों के खारेपन के स्तर के बराबर हो जाएगा।

बांग्लादेश में वर्ष 1984 से 2014 के बीच खारेपन में 6 गुना बढ़ोत्तरी हुई है और कुछ क्षेत्रों में यह 15 गुना तक बढ़ा है। मिट्टी के खारेपन से फसलें बर्बाद हो जाती हैं और किसानों की रोजी-रोटी पर बहुत बुरा असर पड़ता है। एक शोध में अनुमान लगाया गया है कि समुद्र के जलस्तर में 1 मीटर की बढ़ोत्तरी होने से खारेपन के कारण होने वाले अपघटन के चलते कृषि को 597 मिलियन डॉलर का नुकसान होता है। खारे पानी के बार-बार आने की वजह से कुछ गांव अब खेती करने के लायक नहीं बचे।

जमीन की कमी या मिट्टी के खारेपन के कारण जब अनेक परिवार खेत में फसल उगाने में सक्षम नहीं होते हैं तो वे निर्वाह के लिए भी खेती नहीं कर पाते हैं और वे नकदी अर्थव्यवस्था के संपर्क में आ जाते हैं जिससे उनकी खाद्य सुरक्षा का खतरा बढ़ जाता है।नदियों और भूजल के खारेपन की वजह से पीने के ताजे पानी की उपलब्धता में भी गिरावट आई है। इससे मां-बच्चे की सेहत पर भी कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहे हैं।

इनमें निर्जलीकरण, उच्च रक्तचाप, प्रसव से पहले होने वाली जटिलताएं और शिशु मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी शामिल है। सुंदरबन के भारत में स्थित इलाकों में बने पानी के कुओं से जुड़े डाटा के संग्रह में पाया गया कि 50 में से 17 कुओं के नमूनों में लवणता का स्तर पीने के लिए उपयुक्त नहीं था। खारे पानी का स्तर बढ़ने से उच्च रक्तचाप और बुखार के साथ-साथ सांस तथा त्वचा संबंधी बीमारियां भी होती हैं।

सुंदरबन क्षेत्र में स्थित मौसूणी द्वीप के एक भेद्यता मूल्यांकन में पाया गया है कि 80% ग्रामीणों ने खारे पानी की वजह से त्वचा रोग का अनुभव किया। इसके अलावा बाढ़ के दौरान 42 फीसद परिवारों को मलेरिया और डेंगू बुखार जैसी संक्रामक बीमारियों का सामना करना पड़ा। उत्सर्जन के उच्च परिदृश्य से जलवायु परिवर्तन से बीमारी खासतौर से जल जनित रोगों की व्यापकता और भी ज्यादा होने की आशंका है।

मैंग्रोव और जैव विविधता हो रही है नष्ट

मैंग्रोव के जंगल चक्रवाती तूफान और समुद्री ज्वार से बचाने वाली एक महत्वपूर्ण कुदरती बाधा के तौर पर काम करते हैं और यह क्षेत्र में जैव विविधता के उच्च स्तरों को बरकरार रखने में भी मददगार साबित होते हैं। एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2000 से 2020 के बीच अपरदन की वजह से भारतीय इलाके वाले सुंदरबन के संरक्षित जंगल के 110 वर्ग किलोमीटर इलाके से मैंग्रोव गायब हो गए हैं। हालांकि पौधरोपण के जरिए 81 वर्ग किलोमीटर इलाके में मैंग्रोव को उगाया गया है।

मगर यह मैंग्रोव के मौजूदा जंगल के बाहर हुआ है। इसके अलावा एक अन्य अध्ययन में वर्ष 1975 से 2020 के बीच मैनग्रोव के जंगलों के आच्छादन पर गौर किया गया है जिसमें यह पाया गया है कि मैंग्रोव के जंगलों का घनापन सालाना 1.3% की अनुमानित दर से घट रहा है। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि पिछले 22 वर्षों के दौरान मैंग्रोव जंगलों की सेहत में भी गिरावट आई है।

ऐसा बढ़ते खारेपन, तापमान में बढ़ोत्तरी और मानसून से पहले और उसके बाद की अवधि में बारिश की मात्रा में गिरावट के कारण हुआ है। जहां मैंग्रोव को अपनी को सहनशीलता के लिए जाना जाता है, वहीं वे पानी और मिट्टी की लवणता में होने वाले बदलाव के प्रति संवेदनशील भी होते हैं। लवणता में इस बदलाव का नतीजा उच्च मूल्य वाली लकड़ी की प्रजातियों से आगे बढ़कर अब नमक के प्रति अधिक सहनशीलता रखने वाली मैनग्रोव प्रजातियों पर भी दिखाई दे रहा है।

यह लकड़ी के स्टॉक की गुणवत्ता और संपूर्ण उपलब्धता में गिरावट ला रहा है और इससे अपनी रोजी-रोटी के लिए जंगलों पर निर्भर रहने वाले लोगों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि पिछले 30 वर्षों के दौरान सुंदरबन बायोस्फीयर रिजर्व की 3.3 अरब डॉलर मूल्य की पारिस्थितिकी सेवाओं का नुकसान हुआ है। इसमें से 80% हिस्सा मैंग्रोव से हासिल हुआ था।

बदलती हुई जलवायु में इस बात का अनुमान है कि सुंदरबन में उल्लेखनीय रूप से अपघटन का दौर उत्पन्न होगा जिसकी वजह से अनेक लुप्तप्राय प्रजातियों के ठिकाने नष्ट हो जाएंगे। इनमें बाघ और जहरीले सांप भी शामिल हैं। इसकी वजह से क्षेत्र में इंसानों और जंगली जीवो के बीच टकराव का खतरा बढ़ जाएगा। समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी के परिणाम स्वरूप कई स्थलीय और उभयचर प्रजातियों के निवास स्थानों को नुकसान पहुंच रहा है।

मीठे पानी में रहने वाली मछलियों के ठिकाने भी सिकुड़ रहे हैं क्योंकि पानी ज्यादा खारा होता जा रहा है। इसकी वजह से मीठे पानी में रहने वाली अनेक छोटी और देशी जलीय जीव प्रजातियों पर खतरा उत्पन्न हो गया है। इससे मछुआरों की रोजी-रोटी पर बुरा असर पड़ा है। साथ ही साथ मानव स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़े हैं, क्योंकि मछली वहां के लोगों के लिए प्रोटीन अन्य पोषक तत्वों का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

उदाहरण के तौर पर ऐसे क्षेत्रों, जहां मछली की प्रजातियों को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ हो वहां महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की गंभीर समस्या उत्पन्न होती है और यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जन स्वास्थ्य आपात स्थितियों के लिए निर्धारित सीमा से ज्यादा होती है।

सुंदरबन के इस स्पेशल स्टोरी की अगली कड़ी अगली रविवार को प्रकाशित की जाएगी। सुंदरबन को  और अधिक जानने के लिए हमारे (kolkatahindinews.com) साथ बने रहें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

1 × one =