अशोक वर्मा ‘हमदर्द’ की कहानी : संघर्ष

अशोक वर्मा ‘हमदर्द’, कोलकाता। कुछ दिन पहले की बात है जब मैं घर से बाजार की तरफ निकला था। कुछ दूर चलने के बाद मुझे रिक्शे की सवारी करनी पड़ी और मैं अपने गंतव्य स्थल की ओर चल पड़ा। किंतु रिक्शे वाले ने मुझे मेरे गंतव्य से पहले ही उतार दिया। बोला, “माफ कीजिए सर, रिक्शा पंचर हो गया है। आप यहां से कोई और रिक्शा ले लीजिए, अगर आप चाहें तो मुझे मेरा भाड़ा भी मत दीजिए। मैं नहीं चाहता कि आपको कोई दिक्कत हो। मैंने उसका किराया दिया और सोचने लगा इसमें इस बेचारे का क्या दोष, जब रिक्शा ही पंचर हो गया, नहीं तो यह मुझे मेरे गंतव्य तक जरूर छोड़ता। मैं किसी दूसरे रिक्शे की तलाश में आगे बढ़ने लगा, किंतु मुझे कोई रिक्शा नजर नहीं आ रही थी।

कुछ दूर चलने पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया जो रिक्शे की पिछली सीट पर बैठा सिर पर हाथ रखे हुए फटेहाल हालत में था। ठीक उसी की तरह उसके रिक्शे का भी हाल था। जिसके सीट भी बुरी तरह फटे हुए थे। जिसे ढकने के लिए उसने एक फटे हुए लूंगी का सहारा लिया था। मैं वहां रुका और बड़े गौर से उसे देखने लगा। तभी उसकी नजर मेरी तरफ पड़ी और सहसा उसके मुंह से आवाज निकली, “आइए बाबूजी, मैं छोड़ देता हूं, कहां तक जाना है आपको।” उसकी बात सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे कोई करंट लगा, सोचने लगा कि आज भी इस हालत में लोग जी रहे हैं। एक तरफ तो हमें विज्ञापन के माध्यम से हमेशा देखने को मिलता है कि भारत तरक्की के पथ पर दुनिया के पांचवें पायदान पर चला गया है।

अभी मैं सोच ही रहा था कि फिर वह बूढ़ा हमसे बोलने लगा, “बाबूजी आप मेरे इस ठठरी को मत देखिए, अभी बहुत दम है इसमें, मैं आपको आपके गंतव्य तक पहुंचा दूंगा। जब तक मैं अपने बेटे को आईएएस अफसर नहीं बना देता तब तक हार नहीं मानने वाला, बहुत दम है मुझमें।” उसके इस हौसले को सुनकर मैं उसके रिक्शे पर बैठ गया और वहां से चल पड़ा। रास्ते में मैंने उससे पूछा, “बाबा, आप इस उम्र में इतना परिश्रम क्यों करते हैं, क्या आपके बच्चे नहीं हैं, अब तो आपकी उम्र आराम करने की है और आप अभी भी…”उसने मेरी बातों को काटते हुए कहा, “बाबूजी, मेरे जैसे लोगों के लिए आराम हराम है। रही बात मेरे बच्चे की, तो मैं उसी के लिए तो इतना परिश्रम करता हूं। मेरा भी एक बेटा है, अभिषेक नाम है उसका, मेधावी है। उसके मन में आईएएस अधिकारी बनने की ललक है। मैं उसके इस सपने को तोड़ना नहीं चाहता।”

चलते-चलते हमारी सवारी एक बाजार से गुजर रही थी। दोनों तरफ खाने-पीने की तमाम चीजें मौजूद थीं। तभी अचानक उस रिक्शे वाले ने मुझसे एक अनुरोध किया, “बाबूजी, एक बात कहूं, आप बुरा तो नहीं मानेंगे। “तभी मैंने कहा, “नहीं नहीं बाबा, बोलिए, क्या कहना चाह रहे हैं?” मेरे इतना कहने के बाद भी वह संकोच से कुछ नहीं बोल पा रहा था। मैंने कहा, “बोलिए बाबा, क्या कहना चाह रहे हैं आप।” वह बोला, “कहना बस इतना था कि अगर आप मेरा किराया पहले दे देते तो मैं कुछ खा लेता। सुबह से कुछ खाया नहीं, बिना पेट्रोल के तो गाड़ी भी नहीं चलती। यह तो हाड़-मांस का शरीर है, बहुत दम है इस ठठरी में, थोड़ा खा लेता तो और तेज चलता।”

उसकी ये बातें सुनकर मेरा कलेजा जैसे मुंह को आ गया। मैंने तुरंत उनसे खाने का आग्रह किया और उनका हाथ पकड़कर एक होटल ले गया। “बाबू, इतने बड़े होटल में? नहीं, नाना, इतने पैसे मेरे पास कहां। मुझे मेरा किराया दे दीजिए, मैं बगल वाली गली से खाकर आ जाऊंगा, वहां कम कीमत के दाल-भात सब्जी प्याज सहित मिल जाते हैं।” तभी मैंने कहा, “बाबा, आज आप इस होटल में ही खाइएगा और मैं भी आपके साथ खाऊंगा। पैसा भी मैं ही दूंगा और आपका किराया भी।” बूढ़े की आंखों में आंसू भर आए थे। वह अपने आंसू पोंछते हुए खाने की टेबल पर बैठ गया। आज के खाने का ऑर्डर उस बाबा को ही देना था। मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि आपको जो खाना है प्रेम से खाइए, पैसे की कोई चिंता मत कीजिए।

बड़े ही प्रेम से वह खा रहे थे, किंतु उनके भाव से लग रहा था कि आज वह काफी भूखे थे। उन्होंने बहुत ही कम समय में पूरा खाना खा लिया और रिक्शा लेकर चल दिए। किंतु इस बार उनके पांव में कुछ दम आ गए थे, जो उनकी रफ्तार बता रही थी। उसने चलते-चलते मुझसे कहा, “जानते हैं बाबूजी, आज सुबह से एक भी सवारी मुझे नहीं मिली और मिलती भी कैसे, मेरे रिक्शे को देखकर बहुत लोगों को घिन आती है। मेरी हालत इतनी अच्छी नहीं कि इसे ठीक कर सकूं। ठीक करने की सोचता हूं तो कोई ना कोई समस्या आ खड़ी होती है। बाबू, रोज कई बार इस रास्ते से मुझे गुजरना पड़ता है, जहां लजीज खाने की खुशबू मेरे नाकों तक टकराती थी। मगर आज यह चाहत पूरी हो गई, लग रहा है मेरी कोई मन्नत पूरी हुई हो। भगवान आपको और आपके परिवार को सदा खुशी रखें।”

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

उनकी बातें सुनकर लगा कि सच ही स्वामी विवेकानंद ने दरिद्र की तुलना नारायण से की है। क्योंकि यहां जितना आनंद खाने वाले को मिला, उतना ही आनंद खिलाने वाले को मिला। अब तक पाप पुण्य की सही परख हो चुकी थी। ईश्वर तो कण-कण में है, किंतु जो अनुभूति एक गरीब असहाय के साथ बिताने और उनकी सेवा करने में मिलती है, शायद ही किसी धर्म-कर्म में। मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूं कि उस बूढ़े बाप का बच्चा, जिसके खातिर एक बाप अपना खून जलाकर परिश्रम कर रहा है, वह सफल हो। मेरी ये शुभकामनाएं उनकी सकारात्मकता, सफलता, सेहत के साथ हैं। ये उनके साथ हैं जिसमें मैंने साक्षात ईश्वर का दर्शन किया है। भगवान अगर दिया है, तो हर मनुष्य का फर्ज़ बनता है कि अपने सामर्थ्य के अनुसार दीन-हीन की सेवा करें। राधे राधे।

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