अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। आज के इस युग में जहां लोगों को अपने परिवार अपनें रिश्तेदार अपनों से ही समय नही मिल पाता वहां सेवा मूलक कार्य करना सबके बस की बात नही रह गई है। ऐसे भी आज के इस समय में लोगों ने भौतिक सुखों की कल्पना पाल रखी है और उस सपने को पूरा करनें के लिए छोटे से छोटे घिनौने कार्य करनें पर भी लोग आमदा हो जाते है और अगर ऐसा करने से कोई रोकता है तो वो है उसका संस्कार। मेरे पिताजी भी एक ऐसे व्यक्ति है जो सदा से ही दूसरों की ही भलाई कर के अपनें भले की बात सोचते आए है। इनके इसी संस्कार की वजह से हमारा एक छोटा सा संयुक्त परिवार था जिसे एक आदर्श परिवार की संज्ञा दी जा सकती थी, जो आज परिवारजनों के निहित स्वार्थ के चलते नही है।
ये घटना 2012 की है, पिताजी अवकाश प्राप्त हो गए थे। उनकी समय दैनिक दिनचर्या के बाद बच्चों के साथ ही बीतता था। हमारे दो बच्चे है एक लड़की और एक लड़का। लड़की अनुराधा और पुत्र अभिषेक, दोनों ही मेधावी थे, मगर अभिषेक थोड़ा शरारती था फिर भी अन्य बच्चों की तुलना मे अभिषेक ठीक था। मैं उसी बच्चे के सहारे कुछ बताने जा रहा हूं, जिसने अपने संस्कार का परिचय देकर समाज को एक सीख दी है। दोपहर का एक बजा था, अचानक फोन की घंटी बजी। हैलो, मैं केंद्रीय विद्यालय से अलका मैडम बोल रही हूं, रोज की तरह आज भी अभिषेक टिफिन के समय से स्कूल प्रोग्राम से गायब है, कृपया आप अपनें बच्चे को समझाईए नही तो कुछ हादसा होने पर स्कूल इसकी जिम्मेदारी नहीं लेगा और ये कह कर मैडम ने रिसीवर रख दिया था।
मैं तो आग बबूला हो रहा था, सोच रखा था की आज वो घर लौटे तो मैं उसे छट्ठी का दूध याद दिला दूंगा, मगर मेरी पत्नी ने मुझे न पीटने की कसम दे दी। मैं सोचने लगा की क्या पता मेरा बेटा किस बच्चे की संगत में पड़ गया है, कहीं वो किसी आवारा बच्चे की संगत में तो नहीं पड़ गया है। आज कल अक्सर बच्चे गलत संगत में पड़ कर बिगड़ जाते है, इसी उधेड़ बुन में समय निकलता गया और शाम के पांच बज गये। अभिषेक रोज की तरह पांच बजे घर लौटा, उसे देख कर मेरा खून खौल उठा। इच्छा हुई की पूछूं कि तुम रोज स्कूल से लंच समय में कहां गायब हो जाते हो..? तुम्हारी वजह से तुम्हारी मैडम का शिकायत भरा फोन आया था, मगर मैंने अपने आप पर काबू पा लिया था। कुछ ही दिन बाद अभिषेक का रिजल्ट मिला जिसमें वो अव्वल नम्बर से पास था। मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया था।
समय गुजरता गया मगर लंच में गायब होने की उलझन भरी शियाकत हमेशा स्कूल से आती रही। आज मेरा धैर्य टूट गया था और अभिषेक के घर लौटते ही मैंने उसकी पिटाई कर दी। बाद में जब उसने लंच में गायब होने का कारण बताया तो मैं एक टक उसे देखता रह गया। पश्चाताप के आसूं मेरी आंखों में उतर आये। मैं अपनें आप को कोसनें लगा। बात पूछने पर पता चला कि अभिषेक की किसी ऐसे बच्चे से मुलाकात हुई जिसने स्कूल देखा ही नहीं था। अभिषेक ने उसे अपनें स्कूल ले जाकर कुछ बच्चों से मिलवाया, जिससे उसके अंदर भी पढ़ने की इच्छा उत्पन्न हुई। मगर उस बच्चे के पास स्कूल के फीस भरने के न तो पैसे थे ना हीं किताबें खरीदने के। अभिषेक ने सोचा, क्यों न अपनें टिफिन के पैसों से उसके लिए किताब खरीदें और लंच के समय में थोड़ा समय निकाल कर उसे पढ़ना सिखाया।
एक दिन कुछ मित्रों को लेकर अभिषेक नगर सेवक के पास गया, जहां उसने उसे उस बच्चे के बारे में बताया। ईश्वर की कृपा और बच्चों का प्रयास जिससे उस बच्चे को निःशुल्क स्कूल में दाखिला मिल गया और नगर सेवक ने छात्रवृति देने की भी अपील की। आज मैं ऐसे पुत्र को पाकर धन्य हो गया था। खुशी से मेरी आखों में आसूं भर आये थे, पिताजी के दिए हुए संस्कार आज मेरे बेटे तक पहुंचे थे। मैंने अभिषेक को अपनें बगल में बैठाकर बहुत प्यार किया और पूछा की बेटा..! तुम्हारे मन में ये बात कैसे आई? पापा! ये समझ कर नही कि लोग मुझे अच्छा कहेंगे बल्कि दादा जी कहते है कि अच्छे कर्मों में खुशुबू होती है जो अपने प्रभाव को चारो ओर बिखेरती है। पापा, मैं कभी ऐसा काम नहीं करूंगा जिससे मेरे संस्कार पर लोग हंसे। पापा, ऐसा कर के क्या मैंने कोई भूल की?
मैं अपनें आप से पूछ रहा था कि क्या सचमुच ये संस्कार का फल है। कितने लोग तो अपने बच्चो को अपनों से ही अलग रहने का सीख देते है और सबको दोषी ठहराते है। अचानक दरवाजे की घंटी बजी, नगरसेवक मेरे घर तक चल कर आये थे, दो दिन बाद आईसीडीएस द्वारा एक कार्यक्रम रखा गया था जिसमें अभिषेक सहित अच्छे संस्कार के लिए हमें भी सम्मानित किया गया था। इस निःस्वार्थ सेवा का मीठा फल था “संस्कार”।