अपराजेय साहित्यिक व्यक्तित्व ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ की जयंती पर विशेष…

प्रस्तुति श्रीराम पुकार शर्मा : अपराजेय साहित्यिक व्यक्तिव आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की 137 वीं जयंती पर सादर हार्दिक नमन करता हूँ I

हिन्दी साहित्य में निबन्ध, आलोचना और समीक्षा के क्षेत्र में तब से लेकर आज तक यदि कोई अपराजेय व्यक्तित्व बना हुआ है, तो व्यक्तित्व एकमात्र ‘रामचन्द्र शुक्ल’ जी ही हो सकते हैं।

श्रीराम पुकार शर्मा

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का जन्म सन् 4 अक्टूबर, 1884 ईस्वी में बस्ती जिले के ‘अगोना’ नामक गाँव में माता ‘निवासी’ और पिता ‘पं॰ चंद्रबली शुक्ल’ के आँगन में हुआ था I पिता पं० चन्द्रबली शुक्ल की नियुक्ति ‘सदर कानूनगो’ के पद पर मिर्जापुर में हुई, तो वे सपरिवार मिर्जापुर में ही आकर बस गए। बाल्यवस्था में ही रामचन्द्र शुक्ल जी को मातृ-वियोग सहन करना पड़ा और मातृ-विहीन रामचन्द्र अपने अल्पायु में ही सामाजिक परिपक्कवता को प्राप्त कर लिया था। बाल्यवस्था से ही उसमें साहित्य के प्रति गहरी रुचि रही थी। 14 वर्ष की किशोरावस्था में ही उसने प्रसिद्ध वैज्ञानिक ‘एडिसन’ के ‘एसे आन इमेजिनेशन’ का अनुवाद हिन्दी में ‘कल्पना का आनन्द’ नाम से कर दिया था।

रामचन्द्र शुक्ल जी ने मिर्जापुर के ‘लंदन मिशन स्कूल’ से 1901 में स्कूल फाइनल परीक्षा (FA) की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके पिता की इच्छा थी कि वे कचहरी में जाकर दफ्तरीय काम-काज सीखें, किंतु शुक्ल जी उच्च शिक्षा को प्राप्त करना चाहते थे। अतः प्रयाग के ‘कायस्थ इंटर कॉलेज’ में बारहवीं पढ़ने के लिए भर्ती हो गए, पर गणित में कमजोर होने के कारण उन्होंने शीघ्र ही उसे छोड़कर ‘प्लीडरशिप’ की परीक्षा उत्तीर्ण करनी चाही, पर उनकी रुचि तो वकालत में न होकर साहित्य में थी।

अतः परिणाम यह हुआ कि वे उसमें भी अनुत्तीर्ण ही रहे। बाद में उनके पिताजी ने उन्हें नायब तहसीलदारी की जगह दिलाने में सफल रहें, परन्तु रामचन्द्र शुक्ल की स्वाभिमानी प्रकृति नायब तहसीलदारी से उन्हें विमुख कर दिया। लेकिन इसके दरमियान वे साहित्य, मनोविज्ञान, इतिहास आदि के अध्ययन में निरंतर संलग्न रहें।

कुछ दिनों तक रामचंद्र शुक्ल मिर्जापुर के ‘मिशन स्कूल’ में चित्रकला के अध्यापक रहे। साहित्य के प्रति विशेष रूचि रामचन्द्र शुक्ल को मिर्जापुर के पंडित केदारनाथ पाठक, बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ जैसे दिनमान व्यक्तित्व के संपर्क में पहुँचा दिया, जिनके प्रभाव से उनकी अध्ययनशीलता को और अधिक बल मिला। अब तो वे हिंदी, उर्दू, संस्कृत एवं अंग्रेजी के विविध साहित्यों का गहन अनुशीलन करना भी प्रारंभ कर दिए थे।

रामचन्द्र शुक्ल की साहित्यिक अध्ययनशीलता के कारण उन्हें 1903 से 1908 तक ‘आनन्द कादम्बिनी’ में सहायक संपादक का दायित्व प्राप्त हुआ, जिसे उन्होंने पूरी लगनता के साथ कार्य किया। इसी समय से उनके विविध साहित्यिक लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे और धीरे-धीरे उनकी विद्वता का यश भी चारों ओर फैलने लगा।

उनकी योग्यता से प्रभावित होकर 1908 में ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ ने उन्हें ‘हिन्दी शब्दसागर’ के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। फिर ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का संपादन भी उन्होंने कुछ दिनों तक किया था। इन विशेष साहित्यिक कार्यों को करते हुए उनकी साहित्यिक प्रतिभा और अधिक प्रखर हुई। बाद में 1919 में रामचन्द्र शुक्ल जी की नियुक्ति ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ में हिंदी के प्राध्यापक के रूप में हो गई।

इसी बीच एक महीने के लिए वे अलवर राज्य में भी नौकरी के लिए गए, पर स्वाभिमानानुकूल काम न होने के कारण पुनः ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ में ही हिन्दी के प्राध्यापक की नौकरी पर लौट आए। सन् 1937 ई. बाबू श्याम सुंदर दास की मृत्यु के उपरांत वे ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ के हिंदी विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए और मृत्यु पर्यन्त इसी पद पर बने रहें।
2 फरवरी, सन् 1941 को हृदयाघात से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी की मृत्यु हो गयी।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने अपने लेखन-कार्य का प्रारम्भ कविता विधा से किया था, पर काव्य क्षेत्र शायद उनके मनोरथ के अनुकूल न था। इनकी रुझान इन्हें निबन्ध और आलोचना लेखन की ओर खींच ले चली। फिर निबन्ध और आलोचना लेखन के क्षेत्र में इन्होंने कई अक्षुण्ण कीर्तिमान स्थापित किये। माना गया है कि उनके पहले हिन्दी आलोचना में जो एक रिक्तता बनी हुई थी, उसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी अपने सैद्धांतिक और व्यवहारिक आलोचनाओं से पूर्णता प्रदान किया है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी की कृतियाँ चार प्रकार की हैं –

आलोचनात्मक ग्रंथ :-  सूर, तुलसी, जायसी पर आलोचनाएँ, काव्य में रहस्यवाद, काव्य में अभिव्यंजनावाद, रसमीमांसा आदि,

निबन्धात्मक ग्रन्थ :- चिंतामणि (दो भाग) जिसमें साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक निबन्ध हैं, जिनमें ‘कविता क्या है’, ‘काव्य में लोक मंगल की साधनावस्था’, ‘साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद’, मानस की धर्मभूमि, करुणा, श्रद्धा, भक्ति, लज्जा, ग्लानि, क्रोध, लोभ और प्रीति आदि संकलित हैं, जिनकी हिन्दी साहित्य ही नहीं, बल्कि अन्य कोई भी भाषागत साहित्य इसकी कोई सानी नहीं रखती है।

ऐतिहासिक ग्रन्थ : हिंदी साहित्य का इतिहास

अनूदित कृतियाँ :- बंगला से अनुदित ‘शशांक’ उपन्यास, अंग्रेजी से विश्वप्रपंच, आदर्श जीवन, मेगस्थनीज का भारतवर्षीय वर्णन, कल्पना का आनन्द आदि।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी की शैली अत्यंत प्रौढ़ और मौलिक है। इसमें ‘गागर में सागर भरने’ की अद्भुत क्षमता निहित है। उन्होंने भाषा के क्षेत्र में खड़ी हिंदी को अपनाया है, जिसमें विषय गाम्भीर्यता के कारण तत्सम शब्दों की बहुलता के कारण कुछ क्लिष्टता तो है, पर यह भी स्वाभाविक है।

हिन्दी साहित्य के अब तक लिखे गए इतिहासों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखे गए ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ को सबसे प्रामाणिक तथा पूर्ण व्यवस्थित साहित्यिक इतिहास माना जाता है। उन्होंने ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ में छात्रों को पढ़ाने हेतु साहित्य के इतिहास पर एक संक्षिप्त नोट तैयार किया था। इस इतिहास लेखन के कार्य को उन्होंने कई चरणों में पूरा किया था।

इसके सम्बन्ध में उन्होंने स्वयं लिखा है, – ‘जिनमें (नोट में) परिस्थिति के अनुसार शिक्षित जनसमूह की बदलती हुई प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाग और रचना की भिन्न-भिन्न शाखाओं के निरुपण का एक कच्चा ढाँचा खड़ा किया गया था।’ ठीक ऐसे ही समय ‘हिन्दी शब्दसागर’ का कार्य भी पूर्ण हुआ। तब उन्होंने यह निश्चय किया कि भूमिका के रूप में ‘हिन्दी भाषा का विकास’ और ‘हिन्दी साहित्य का विकास’ को भी इसमें युक्त किया जाय।

अतः इस साहित्यिक नोट को उन्होंने ‘हिन्दी शब्दसागर’ की भूमिका के रूप जोड़ दिया था, जिसे बाद में स्वतंत्र पुस्तक के रूप में 1929 ई० में प्रकाशित कराया। इस पुस्तक में लगभग एक हजार से अधिक कवियों के जीवन चरित्र और उनके साहित्यिक मूल्यांकन को आधुनिक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर विवेचन किया है। इस प्रकार साहित्येतिहास के लेखन के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ एक ‘मील का पत्थर’ (Mile Stone) है, जो अग्रिम अनंतकाल तक साहित्य के विद्यार्थियों का मार्ग-निर्देशन करते रहेगा।

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