सिया राम मय सब जग जानी,
करहुं प्रणाम जोरी जुग पानी ॥
पूरे संसार में ही श्रीराम का निवास है, समस्त चराचर ही श्रीराम का स्वरूप हैं, मैं हाथ जोड़कर श्रीराम के उन सभी स्वरूपों को ही प्रणाम करता हूँ। तुलसी जयंती के पावन अवसर पर इस कलयुग के श्रीराम भक्तप्रवर और आज घर-घर के में विराजमान “श्रीरामचरितमानस” के अमर कृतिकार गोस्वामी तुलसीदास जी को सादर हार्दिक नमन करते हुए उनकी ही बातों को आप सभी तुलसी भक्तों के सम्मुख रखने की धृष्टता करते हुए मैं, श्रीराम पुकार शर्मा स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ I आप सभी विद्व तुलसी भक्तों और उनके प्रभु श्रीराम के भक्तों को मेरा सादर प्रणाम।
श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि, संवत 1554 को अभुक्त मूल नक्षत्र में उत्तर प्रदेश के राजापुर गाँव में जन्मे श्रीराम भक्तप्रवर गोस्वामी तुलसीदास ने उपरोक्त तथ्य को सगर्व स्वीकार किया हैI बचपन से ही त्याज्य ‘रामबोला’ बालक को भगवान् शंकर की प्रेरणा से रामशैल के रहनेवाले बाबा श्री नरहर्यानन्द ने खोज निकलाI बालक रामबोला बिना कोई पूर्व अभ्यास के ही ‘गायत्री मंत्र’ को बहुत ही सुंदर अपने लयात्मक उच्चारण से वहाँ उपस्थित सबको चकित कर दिया था।
फलतः बाबा नरहर्यानंद ने रामबोला बालक का नाम विधिवत रूप से बदलकर “तुलसीदास” रख दिया और उसे अपने साथ प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या ले गए। अयोध्या में बाबा नरहर्यानन्द ने तुलसीदास का माघ शुक्ल पंचमी, शुक्रवार, संवत 1561 को “यज्ञोपवीत-संस्कार” किया और वैष्णवों के पाँच संस्कारों को करवाकर उसे ‘रामनाम’ का गुरु मंत्र प्रदान किया।
इस प्रकार तुलसीदास को ‘रामनाम’ गुरुमंत्र की प्राप्ति तो हो गई, पर अभी तक उन्हें अन्तः ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई थीI जिस कारण वह अब भी हम-आप जैसे आम लोगों की तरह ही एक साधारण सांसारिक आदमी ही थे, जिसे सांसारिकता तथा दैहिक प्रेम के प्रति आसक्ति की भावना अपने पाश में जकड़े हुए थीI
पर सांसारिकता से वैराग्य का महामंत्र उन्हें प्राप्त करना अभी भी अपेक्षित ही था। अपितु तुलसीदास को वह अमूल्य वैराग्य का महामंत्र किसी साधुजन, मुनि या तपस्वी से न प्राप्त होकर उनकी धर्मपत्नी ‘रत्नावली’ द्वारा ही उसके धिक्कारयुक्त उपदेश के माध्यम से ही प्राप्त हुए थे।
29 वर्ष की आयु में, ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव के ही भारद्वाज गोत्र की एक सुंदर कन्या ‘रत्नावली’ के साथ तुलसीदास का विवाह हुआ था। उनमें लौकिक प्रेम के प्रति आसक्ति थी, जो अक्सर साधारण जन में हुआ करता हैI वह भी अपनी पत्नी रत्नावली से बेहद प्रेम भाव रखते थे।
एक प्रकार से उनका गृहस्थी जीवन पत्नी प्रेम से परिपूर्ण था। परन्तु उनके जीवन का परम उद्देश्य तो यह सांसारिक जीवन था ही नहींI उनकी दिव्य दृष्टि और दिव्य भक्ति-चक्षु अभी जागृत होना बाकी ही थेI अभी उनमें श्रीरामभक्ति की प्रबलता को आना बाकी ही थीI पर काल को सब कुछ स्मरण थाI वह तुलसीदास में एक विराट परिवर्तन की तैयारी में लगा हुआ था।
काल की योजना के अनुकूल ही एक बार तुलसीदास की पत्नी रत्नावली उनकी अनुपस्थिति में अपने मायके चली गई। तुलसीदास को रत्नावली से वियोग असहनीय हो गया। अपने को वह रोक नहीं पाये फिर आव देखे न ताव, धुंआधार बरसात की घनघोर अंधेरी रात में ही नदी में बहती एक लाश को लकड़ी का लट्ठा समझ कर उफनती यमुना नदी तैरकर पार कर गये और रत्नावली के घर के पास पेड़ से लटके एक सांप को रस्सी समझ कर ऊपर चढ़े और रत्नावली से मिलने की प्रबल उत्कंठा लिए उसके कमरे में पहुँच गये।
पर रत्नावली आम पत्नियों की तरह खुश न हुई और न उनका स्वागत ही की, बल्कि सामाजिकता तथा लोक-लाज को स्मरण कर वह अपने पति को चोरी-छुपे आया देख कर बहुत दुखी हुईI उसकी व्यथित आत्मा मार्मिक और तीक्ष्ण शब्दों से अपने पति तुलसीदास को धिक्कार उठीI पर उस धिक्कार शब्दों के माध्यम से ही वह सांसारिकता और दैहिक आसक्ति के पाश में बंधित अपने पति को तत्काल ही आध्यात्मिक गुरु मन्त्र भी दे डाली –
“अस्थि चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति!
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?”
अर्थात, मेरे इस हाड–मांस से बने नश्वर शरीर के प्रति जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उसकी आधी भी आसक्ति अगर प्रभु श्रीराम से होती तो तुम्हारा जीवन संवर गया होताI हम तुम्हारे इस दैहिक प्रेम को धिक्कारते हैं। सांसारिक दैहिक प्रेम में गोता लगाने की इच्छा रखने वाले तुलसीदास को अपनी पत्नी रत्नावली के उन तीक्ष्ण शब्दों पर तत्क्षण विश्वास ही नहीं हो पायाI
वह तो अपनी पत्नी से उस उवाच को पुनरावृति करने का निवेदन कियाI इस बार पहले से भी कुछ अधिक तीव्र फुंफकार शक्ति से वह पुनः उन्हीं बातों को दुहराईI पत्नी के उवाच गहराई तक उतर गएI तुलसी के कामसी हृदय में तीक्ष्ण वाण का प्रहार हुआI उस उवाच-वाण की तीव्रता ने उनके हृदय की कलुषता को तत्क्षण ही विनष्ट कर दियाI हृदय में विराट परिवर्तन हुआI ‘निराला’ के अनुसार उन्हें अपने सम्मुख अपनी तेजस्विता से परिपूर्ण ज्ञानदायिनी माँ भारती साक्षात खड़ी हुई दिखाई दीI
“जागा, जागा संस्कार प्रबल, रे गया काम तत्क्षण वह जल,
देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह, इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,
हो गया भस्म वह प्रथम भानI
देखा, शारदा नील-वसना, हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि-रशनाI”
जिसके तेज-पूंज से शारीरिक आसक्ति के भाव पल भर में ही जलकर भस्म हो गएI लौकिक प्रेम का ज्वर भी मन से अचानक उतर गया और उसके स्थान शीतलता युक्त एक नवीन प्रेम भाव उनके हृदय को अपने पाश में बाँधने लगा। वह नवीनतम शीतलता युक्त प्रेम भाव प्रभु श्रीराम के प्रति भक्ति का था, जिसे उनके आध्यात्मिक गुरु ‘रत्नावली’ ने प्रशस्त किया थाI यही तो काल की योजना भी थी।
दिव्य ज्ञान प्राप्त कर तुलसीदास जी के हृदय में भगवान श्रीराम के प्रति भक्ति का अंतहीन विराट सफर यहीं से प्रारम्भ हो गया। उसी बरसात की रात वे उलटे पाँव ही अपने गाँव राजापुर वापस लौट आयेI पर अब मन में प्रभु श्रीराम की भक्ति की व्यग्रता उन्हें अपने पैत्रिक वास स्थान में भी न टिकने दियाI अब उन्हें अपने आप पर कोई वश ही कहाँ था?
अब तो वे प्रभु श्रीराम के हो गए थेI अतः प्रभु मिलन की चाहत में जहाँ उम्मीद बंधी, वहीं दौड़ पड़ेI कुछ समय के बाद ही वे पुन: काशी चले गए और वहाँ लोगों को राम-कथा सुनाने के बहाने अपने आप को दिन प्रतिदिन ही प्रभु श्रीराम के करीब, और करीब करते हुए उनका सामिप्य प्राप्ति हेतु स्वयं को प्रस्तुत करने लगे।
फिर तुलसीदास एक दिन गुरु स्वरूप एक प्रेत के मार्गदर्शन पर अपने प्रभु श्रीराम के परमभक्त श्रीहनुमान जी के दर्शन प्राप्त किये और उनके के ही परामर्श से ही चित्रकूट में संवत 1607 की मौनी अमावस्या, बुधवार के दिन अपने अलौकिक प्रभु का अनुज श्रीलक्ष्मण सहित लौकिक दिव्य दर्शन को आत्मसात कियेI अपने प्रभु के कर-कमल से ही अपने मस्तक पर चन्दन लेप को प्रभु आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त कर धन्य हुएI
आराधक और आराध्यदेव के इस दिव्य मिलन के लौकिक दृश्य का साक्षी चित्रकूट घाट के समस्त चराचर बन रहे थेI न जाने कितनी दिव्यात्माएँ अशरीर रूप में वहाँ उपस्थित होकर ‘संतन की भीर’ बढ़ा दीI भगवान् द्वारा अपने भक्त को प्रतिष्ठित करने के ऐसे दिव्य दर्शन से भला प्रभु श्रीराम के दास श्रीहनुमान जी अपने आप को कैसे वंचित रख सकते थेI
यह बात तो असम्भव ही थी कि प्रभु श्रीराम चित्रकूट पधारे और वत्स स्वरूप उनका भक्त वहाँ न पहुँचेI अतः श्रीहनुमान जी एक सुग्गा पक्षी का रूप धारण कर ऐसे मनोहारी दृश्य को आत्मसात कियेI उसका वर्णन भी स्वयं श्रीहनुमान का जिह्वा ने किया है –
“चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीरI
तुलसिदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीरII”
फिर अपने प्रभु श्रीराम के आदेश पर ही तुलसीदास अयोध्या पधारे और संवत् 1631को दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया। जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस पावन रामनवमी (श्रीराम-जन्म) के दिन प्रातःकाल तुलसीदास ने अपने प्रभु श्रीराम को स्मरण कर लोकभाषा (अवधि) में “रामचरितमानस” की रचना प्रारम्भ की, जो दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिनों में श्रीराम-सीता विवाह के पावन दिवस अर्थात संवत् 1633 के मार्ग- शीर्ष शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को अपने पवित्र सातों काण्ड सहित पूर्ण हो गये।
यह “रामचरितमानस” हर दृष्टि से विश्व की सर्वोच्च रचना बनीI जिसकी श्रेष्ठता को काशी के स्वामी स्वयं बाबा विश्वनाथ जी ने ‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ लिखकर उसके नीचे अपने हस्ताक्षर कर सिद्ध कियाI उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने मन्दिर में “सत्यं शिवं सुन्दरम्” की पावन ध्वनि-समूह को
भी श्रवण किये थे। तत्कालीन सर्वमाननीय परम विद्वान् महापंडित श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने इस “रामचरितमानस” को देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी-
“आनन्द कानने ह्यास्मिं जंगमस् तुलसीतरुः।
कविता मंजरी भाति राम भ्रमर भूषिता॥“
अर्थात, ‘काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता हैI’
गोस्वामी तुलसीदास का उद्देश्य कभी भी ज्ञान प्रदर्शन का नहीं रहा है, बल्कि उनका उद्देश्य वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि, प्राचीन संस्कृति, वेद सम्मत समाज की स्थापना करना रहा, जिसमें शासक जनसेवक हो और जनता उनकी सन्तान सदृश प्रेम-भजन हो। अतः देवभाषा के मर्मज्ञ होते भी उन्होंने तत्कालीन लोकभाषा अवधी और ब्रज में ही अपने प्रभु श्रीराम के चरित्र के साथ ही साथ तथा अन्य देवी-देवताओं की अराधना युक्त दर्जनों आध्यात्मिक रचनाएँ कींI जिनमें रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, पार्वती-मंगल, गीतावली, हनुमान चलीसा, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली विशेष प्रमुख हैंI तुलसीदास जी की हस्तलिपि सुनहरे मोती सदृश अत्यंत ही सुन्दर थी।
गोस्वामी तुलसीदास जी काशी के विख्यात् असीघाट पर रहा करते थेI एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय श्रीहनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम वृहत कृति ‘विनय-पत्रिका’ लिखी और उसे अपने प्रभु श्रीराम के चरणों में समर्पित कर दिया। प्रभु श्रीरामजी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर उनको निर्भय प्रदान किया। अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल को श्रीराममय बनाते हुए संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया, शनिवार, को तुलसीदास जी ने “राम-राम” कहते हुए अपने नश्वर शरीर को परित्याग कर श्रीराम में एकाकार हो गएI
“संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर II”
गोस्वामी तुलसीदास जी ने आमरण अपने गुरु रत्नावली द्वारा निर्दिष्ट श्रीराम को अपने प्रभु के रूप में स्वीकार किया। रत्नावली द्वारा सुझाये गए मार्ग को ही अपना कर ‘रामबोला’ संतशिरोमणि श्रेष्ठ गोस्वामी तुलसीदास बने और जग को पैशाचिकता से मुक्त करने के लिए उन्होंने श्रीरामनाम रुपी अमूल्य और अमोध मन्त्र को प्रदान किये। इस प्रकार ‘गोस्वामी तुलसीदास’ नामक नक्षत्र के प्रकाश-पूंज के अन्तः में त्यागमयी ‘उर्मिला’ सदृश ‘रत्नावली’ के जीवन की वृहत त्याग और तपस्या ही निहित है I जय श्रीराम! श्रीराम भक्तप्रवर गोस्वामी तुलसीदास जी की जय!