गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की जयंती पर विशेष

डॉ सत्य प्रकाश तिवारी, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभागाध्यक्ष, दीनबंधु कॉलेज

सत्य प्रकाश तिवारी, कोलकाता। भारतीय साहित्य में रवींद्रनाथ एक ऐसा नाम है जो वैश्विक साहित्य में एक अद्भुत प्रकाश स्तंभ की तरह अपनी आभा बिखेर रहा है। अपने जीवन ,देश ,समाज और विश्व से विभिन्न घटनाओं और कथानकों का चयन कर इन्होंने जिन कहानियों ,उपन्यासों , कविताओं,निबंधों,नाटकों एवं अन्यान्य विषयों पर लिखा है वह सब न केवल बांग्ला साहित्य की बल्कि समग्र भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है।

यही कारण है कि इनका साहित्य न केवल बांग्ला भाषा के पाठ्यक्रम में है बल्कि अनुवाद के माध्यम से भारत एवं विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों के विभिन्न भाषाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है।
रवीन्द्रनाथ के समग्र साहित्य का मूल मंत्र है प्रेम।

आज उपभोक्तावादी संस्कृति एवं संकुचित स्वार्थ की जुगलबंदी के कारण मानव जीवन से प्रेम तत्व का अत्यंत तीव्रता के साथ ह्रास हो रहा है। प्रेम के स्थान पर तीव्र गति से हिंसा और घृणा अपना आधिपत्य जमाती जा रही है।

ऐसे समय में रवींद्रनाथ का साहित्य प्रेम और मनुष्यता को बचाए रखने के सबसे महत्वपूर्ण साधन के रूप में दिखाई पड़ता है। ये एक ऐसे कवि हैं जो कभी किसी सीमा में नहीं बंधे,यही कारण है कि इन्हें विश्व कवि का दर्जा प्राप्त है।

आज जिस प्रकार शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है रवींद्रनाथ उसके घोर विरोधी थे । बचपन में वे स्वयं चहारदीवारी में बंद दम घुटनेवाली शिक्षा से परिचित हो चुके थे इसलिए वे इस प्रकार की शिक्षा पद्धति का आजीवन विरोध करते रहे और शांतिनिकेतन में विद्यार्थियों को अधिक – से – अधिक प्रकृति के साथ रखने का प्रयास किया। ‘

गुरुदेव का शांतिनिकेतन ‘ आलेख में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि “उन्होंने बराबर इस बात पर जोर दिया था कि गांव गांव में फैला हुआ यह वृहत्तर मानव समाज ही हमारी वास्तविक पुस्तक है।

विद्यार्थियों को इसे ही पढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए और फिर जंगलों पहाड़ों और मैदानों में फैली हुई विश्व प्रकृति ही वास्तविक पाठशाला है।” मेरा ऐसा मानना है कि आज के इस उपभोक्तावादी चकाचौंध से चौंधियाई शिक्षा व्यवस्था को हमें यदि मानवीय मूल्यों से जोड़ना है तो रवींद्रनाथ की शिक्षा पद्धति ही हमारा आदर्श बन सकती है।

शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल शिक्षित होना ही नहीं है बल्कि सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाना भी है। अतः आज रवींद्रनाथ पहले की तुलना में कहीं और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।

आज मनुष्य वैज्ञानिक विकास के बल पर क्रमशः सुख के साधन इकट्ठा करने में लगा हुआ है। इन साधनों के प्रति उसका रवैया इतना स्वकेंद्रित है कि वह मानवीय मूल्यों के प्रति निरंतर उदासीन होता जा रहा है, ऐसे समय में रवींद्रनाथ हमारे लिए अंधेरे में एक मशाल की तरह दिखाई पड़ते हैं।

वे यह मानते थे कि पश्चिमी संस्कृति के उन तत्वों को हमें लेना होगा जो हमारी संस्कृति के अनुकूल हो। इन्होंने सदैव पश्चिम और पूर्व के गुणों का समर्थन तथा दोषों को रेखांकित कर उसकी आलोचना की है।

शांतिनिकेतन के विद्यार्थियों के प्रति उनका जो अनुराग था आज उसकी कमी स्पष्ट रूप से दिखती है। गुरुदेव का वह अनुराग आज भी विद्यार्थियों को प्राप्त हो सके इसके लिए हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि अध्यापन कार्य महज एक जीविकोपार्जन का साधन नहीं बल्कि एक जीवन शैली भी है।

गुरुदेव और विद्यार्थियों के संबंधों को जानने समझने के लिए शिक्षा जगत से जुड़े लोगों को शिवानी द्वारा लिखित ‘ आमादेर शांतिनिकेतन ‘ नामक पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कवि गुरु के संबंध में लिखा है “उनका जीवन बहुत ही संयमित और प्रेरणादायक था । उनके निकट जानेवाले को सदा यह अनुभव होता था कि वह पहले से अधिक परिष्कृत और और अधिक बड़ा होकर लौट रहा है। बड़ा आदमी वह होता है जिसके संपर्क में आनेवाले का अपना देवत्व जाग उठता है। रवीन्द्रनाथ ऐसे ही महान पुरुष थे । वे सच्चे अर्थों में गुरु थे ।”

रवीन्द्रनाथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जितने बंगाल के हैं, उतने ही भारत के और उतने ही विश्व के।

तस्वीर : प्रो. नीलांजन सेनगुप्ता के सौजन्य से ।

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