“ॐ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।”
अर्थात – “जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ, तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न होना।”
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । ग्रीष्म ऋतु के उपरांत ही पावस ऋतु में गगन मंडल में छाये गहरे काले कजरारे जलदखण्डों से निरंतर बरसते शीतल जल-फुहार में हमारी वसुन्धरा स्नानादि कर ताप और रजकण रहित हरित वसना, चंचल चपला और जलकुण्डों में खिले कमल पुष्पों से श्रृंगार कर सर्वत्र अपनी उर्वरा शक्ति का परिचय देने लगती है। पवन के सिहरन युक्त मंद गति संग जलाशयों में दादुर और पादपों के बीच मयूर के लयात्मक गीत परस्पर मिलकर सुरपुर के मधुर संगीत बन जाते हैं। सारे वातावरण में ही श्रावणी की मादकता लहराने लगती है। ऐसे सुहावन श्रावणी पूर्णिमा के मधुर स्वर्णिम बेला में स्वर्णिम थाल में दीया, कुमकुम, अक्षत, मिष्टान और कच्चे धागों से निर्मित ‘राखी’ से सजाए भाई-बहनों का पवित्र प्रेम-त्यौहार ‘राखी (रक्षा)-बंधन’ का आगमन होता है, जिसे ‘श्रावणी’ (सावनी) या ‘सलूनो’ भी कहा जाता है।
भाई-बहनों के इस पवित्र त्योहार ‘राखी बंधन’ का सम्बन्ध पौराणिक काल से ही माना जाता है। जब देव-दानवों के बीच युद्ध हो रहा था, तब दानवों की प्रबल शक्ति से घबराकर इंद्र देव-गुरु वृहस्पति के पास पहुँचकर अपनी व्यथा कहते हैं, जिसे उनकी पत्नी इंद्राणी ने भी सुन ली थी। तब इंद्राणी ने अपने पति इन्द्रदेव की रक्षा और विजय की कामना से रेशम के धागों को मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति इंद्र के हाथ पर बाँध दिया। जिसके फल से इन्द्र उस युद्ध में विजयी हुए थे। चुकी वह दिन श्रावण पूर्णिमा का था अतः उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा राखी (रक्षा) बाँधने जैसी प्रथा चली आ रही है।
जब दानवेन्द्र राजा बलि ने 100 यज्ञ पूर्ण कर असीम शक्ति को प्राप्त कर देवताओं से स्वर्ग को छीनने का प्रयत्न किया, तब भगवान विष्णु वामन अवतार लेकर राजा बलि से तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। लेकिन तब बलि ने भी अपनी भक्ति-भाव के बल पर भगवान विष्णु को भी सदैव अपने सम्मुख रहने का वचन ले लिया था। ऐसे में परेशान लक्ष्मी जी नारद जी के परामर्श पर राजा बलि को राखी बाँधकर उसे अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान विष्णु को उसके बंधन से मुक्त करवा कर अपने साथ ले आयीं। उस दिन भी श्रावण मास की पूर्णिमा की ही तिथि थी।
महाभारत काल में जब भगवान श्रीकृष्ण राजा शिशुपाल के कुकृत्य से नाराज होकर उसका वध किये थे, तब इस प्रयास में उनके बाँए हाथ की उंगली से बहते हुए रक्त को देखकर द्रौपदी ने अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर उनकी उंगली में बांध दिया। माना जाता है कि यहीं से श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को अपनी बहना बना लिए थे। इसे भी ‘राखी-बंधन’ के रूप में ही स्वीकार किया गया।
राखी के कच्चे धागों की भावनात्मक शक्ति ने समय-समय पर भारतीय समाज और जन मानस को आन्दोलित कर इतिहास को भी बदलने का काम किया है। इसने धर्म, जाति, भाषा और प्रांत की सीमाओं को लांघकर अपने शत्रु पक्ष को भी भावनात्मक बंधन में बाँधा है। प्राचीन काल में जब सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया, तब भारतीय सम्राट पुरूवाश को एक यूनानी स्त्री (शायद सिकंदर की पत्नी रूखशाना) ने राखी भेज कर उनसे सिकन्दर की रक्षा का वचन ले लिया था। फलतः युद्ध में कई बार अवसर मिलने पर भी सम्राट पुरुवाश ने सिकन्दर का वध नहीं किया क्योंकि वह राखी एक भाई को उसकी बहन की सुहाग का स्मरण दिलाती रही थी। कालांतर में जब हमारा भारतीय समाज अक्रान्ताओं द्वारा पद दलित किया जाने लगा, तब देश और समाज हित के लिए युद्ध पर जाने के पूर्व अपने पति की रक्षा के लिए पत्नी उनकी कलाई पर और बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधने लगी थी।
पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने काशी नरेश को राखी बाँध कर ही विश्व प्रसिद्द काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को स्थापित करने के लिए पर्याप्त भूमि दान-दक्षिणा स्वरूप प्राप्त की थी। बंगाल विभाजन के नियत दिन 16 अक्तूबर, 1905 को विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोरे के नेतृत्व में लोग गंगा में स्नान कर एक-दूसरे को राखी बाँध कर पारस्परिक भाईचारे तथा एकता को प्रदर्शित कर इस त्यौहार का राजनीतिक रूप में उपयोग आरम्भ किए। वर्तमान में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्रिया-कलापों में भी ‘राखी-बंधन’ का महत्व काफी बढ़ गया है। अब तो समस्त चराचर सहित पृथ्वी की रक्षा की वृहत परिकल्पना को लेकर वृक्षों और जीव-जन्तुओं को भी राखी बाँधने की परम्परा चल पड़ी है।
देखा जाय तो राखी के कोमल कच्चे धागों के पावन बंधन में कठोर से कठोर हृदय को भी द्रवित कर देने की असीम शक्ति निहित है। वास्तव में राखी के कोमल धागे सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता का सांस्कृतिक संकल्प है। विवाह के बाद बहनें पराये घर में चली जाती हैं। इसी पर्व के बहाने प्रतिवर्ष अपने परिजन सहित सगे-सम्बन्धियों के साथ मिलने आती हैं। इस प्रकार जो कड़ी टूटने-सी हो जाती है, उसे यह त्यौहार फिर से मजबूती प्रदान करता है।
आधुनिक तकनीकी का राखी-बंधन जैसे त्योहारों पर भी प्रभाव पड़ा है। प्रांतरों में रहने वाले भाई-बहन, जो किसी करणवश पहुँच पाने में असमर्थ होते हैं, वे अब ई-कॉमर्स के माध्यम से राखी आदान-प्रदान कर अपने प्रेम भाव को जागृत और प्रदर्शित करते रहते हैं। परन्तु वर्तमान की भौतिक चकाचौंध ने भाई-बहनों के इस पवित्र राखी-बंधन को भी अपने फाँस में बांध लिया है। यह स्नेह और सादगी का पवित्र राखी-बंधन त्योहार भी अब दिखावे और लेन-देन के चक्रव्यूह में निरंतर फँसते हुए अपने महत्व को विनष्ट करते जा रहा है। ब्राह्मण यजमानों को दक्षिणा के लालच, तो बहन-भाई भी अपनी सम्पन्नता के प्रदर्शन के भंवर जाल की ओर इस पवित्र त्यौहार को भी ले जाने में अधिक रूचि लेने लगे हैं।
परन्तु इतना होने पर भी इस राखी-बंधन त्यौहार में अभी भी रिश्तों की मिठास मौजूद है, क्योंकि इसमें समता, एकता, संरक्षण एवं स्नेह के समन्वय के साथ-साथ भाई-बहन का पवित्रतम सनातन संबंध जुड़ा हुआ है। अतः आवश्यकता है रिश्तों में परस्पर मिठास भरने वाले ऐसे त्योहारों का बार-बार मानना, ताकि रिश्तों को निरंतर सुदृढ़ता बनी रहे। आज भी इस ‘राखी बंधन’ त्योहार की प्रासंगिकता बनी हुई है।
(राखी बंधन त्यौहार, श्रावण पूर्णिमा)
श्रीराम पुकार शर्मा,
हावड़ा –1
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com