‘भास्करस्य यथा तेजो मकरस्थस्य वर्धते।
तथैव भवतां तेजो वर्धतामिति कामये।।
मकरसंक्रांन्तिपर्वणः सर्वेभ्यः शुभाशयाः।
श्री राम पुकार शर्मा, हावड़ा। ‘सारे तीर्थ बार-बार, गंगासागर एक बार।’ तात्पर्य है कि सभी तीर्थों के कई बार की यात्रा से प्राप्त पुण्य फल, मात्र एक बार ‘गंगासागर’ में स्नान और दान करने से ही प्राप्त हो जाता है। विश्व प्रसिद्ध प्राचीनतम ‘गंगासागर मेला’ पश्चिम बंगाल के दक्षिण भाग में हुगली नदी (गंगा) के मुहाने पर स्थित ‘गंगासागर द्वीप’ के दक्षिणी छोर पर विगत अनंत वर्षों से आयोजित होते आ रहा है। आज से कई दशक पूर्व तक यहाँ की यात्रा अत्यंत ही कष्टप्रद-जानलेवा हुआ करती थी। जीवन के लगभग अंतिम पड़ाव में पैदल लम्बी दूरी यात्रा, कई मील चौड़ी नदी को साधारण डेंगी (नाव) से पार करना, पुनः मीलों की दूरी, भूख-प्यास, रोग, विकार, जंगली व जलीय जन्तु, चोर-डकैत आदि जनित जानलेवा आपदा के कारण कई तीर्थयात्री अपनी यात्रा के दौरान ही अपने प्राण गवां बैठते थे। वापस न लौट पाते थे। अतः तब ‘गंगासागर एक बार’ ही प्रासंगिक हुआ करता था।
प्राचीन मान्यता है कि ‘मकर संक्रांति’ के दिन ही भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूँकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को ‘मकर संक्रान्ति’ के नाम से जाना जाता है।
‘माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।
स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति।।’
परन्तु वर्तमान में स्थानीय पश्चिम बंगाल सरकार, प्रशासन तथा स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा तीर्थ-यात्रियों की भरपूर देख-भाल, सेवा, पर्याप्त वाहनों की सुविधाएँ आदि सब मिलकर गंगासागर की यात्रा को काफी सुगम बना दिया हैं। जिस कारण प्रतिवर्ष ‘गंगासागर मेला’ में तीर्थ-यात्रियों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है। इस वर्ष तो मेला में तीर्थ यात्रियों की संख्या तीस लाख के पार होने की संभावना व्यक्त की गई है। यात्रा की सुगमता के कारण अब तो हर उम्र के लोग इस मेले में जाने लगे हैं। तो गंगासागर मेला अब जीवन में ‘एक बार’ ही नहीं, बल्कि ‘बार-बार’ के लिए उपयुक्त हो गया है।
यह गंगासागर द्वीप अति प्राचीन है, जो लगभग 30 किलोमीटर लम्बा और औसतन 10 किलोमीटर चौड़ा है। इस द्वीप के दक्षिणी छोर पर विशाल सागर की लहरें निरंतर कल्लोल करती रहती हैं। इसी के किनारे रुपहले चमचमाती सागर लहरें विस्तृत रेतीले तटीय-धरातल को सर्वदा नम बनाए रखती है। इसी रेतीले सतह पर कुछ ही दूरी पर महर्षि कपिल मुनि जी का सुसज्जित भव्य मंदिर है। यह मंदिर 1973 में निर्मित हुआ है। इस मंदिर के गर्भ गृह में सिंदूरी रंग में रंजित महर्षि कपिलमुनि जी तपस्या मुद्रा में विराजमान हैं। उनके दाँये में पार्श्व में ही भक्त भगीरथी को गोद में लिए हुए पतित पावनी चतुर्भुजी गंगा तथा बायीं पार्श्व में महाराज सगर की चिताकर्षक प्रतिमाएँ विराजमान हैं। मंदिर के ठीक दायीं ओर श्रीराम भक्त श्रीहनुमान की और बायीं ओर बनदेवी विशालाक्षी की भी भव्य मूर्तियाँ स्थापित हैं।
इस प्राचीन द्वीप की तरह ही यहाँ पर लगने वाला ‘गंगासागर मेला’ की परम्परा भी बहुत प्राचीन है। पुराणों में उल्लेखित है कि राजा सगर ने ‘अश्वमेध यज्ञ’ का एक घोड़ा छोड़ा था और उसकी रक्षा का दायित्व अपने शूरवीर साठ हजार पुत्रों को दिया था। परन्तु द्वेषवश इन्द्र ने उस घोड़े को चुराकर कपिलमुनि के पाताल लोक स्थित आश्रम में बाँध दिया था। उस घोड़े को खोजते हुए जब सागर के राजकुमार वहाँ पर पहुँचे और अज्ञानतावश कपिल मुनि पर संदेह कर उनकी तपस्या भंग कर उन्हें अपमानित करने लगे। तब महामुनि को उनकी उदण्डता पर क्रोध उत्पन्न हो गया और फिर पलक झपकते ही सभी शूरवीर राजकुमार कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गए। असमय मृत्यु के कारण वे सभी प्रेत बन कर अपनी मुक्ति के लिए बेचैन हो गए। बाद में राजा सगर के तेजस्वी पौत्र अंशुमान ने कपिलमुनि से क्षमा-याचना कर प्रेत बने अपने अग्रजों की मुक्ति का उपाय पूछा।
महर्षि कपिलमुनि ने भस्मित राजकुमारों की मुक्ति हेतु स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाने को कहा, जिसकी पवित्र जल के स्पर्श से मृत राजकुमारों की आत्मा प्रेतयोनि से मुक्त होकर स्वर्ग गमन करेंगी। अंशुमान गंगा को धरती पर लाने के लिए तप किए, किन्तु सफल न हुए। उनके बाद उनका पुत्र महाराज दिलीप ने भी प्रयत्न किए, पर वे भी सफल न हुए। तब दिलीप का समर्थवान पुत्र भागीरथ ने कठोर तप करके सृष्टिकर्ता ब्रह्मा तथा महादेव शिवशंकर जी को प्रसन्न कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की। भगीरथ शंखनाद करते हुए आगे-आगे और उनके पीछे-पीछे गंगाजी अविरल प्रवाह के साथ कपिल आश्रम में पहुँचीं और उनके पितरों के भस्म को अपने पवित्र स्पर्श से प्रेतयोनि से मोक्ष प्रदान कर स्वयं सहस्त्र जलधाराओं में विभक्त होकर सागर में समाहित हो गई।
गंगा और सागर के इस संगम-स्थल को प्राचीन काल से ही हिन्दुओं के लिए एक विशेष पवित्र स्थल के रूप में माना जाता रहा है। ‘मकर संक्रांति’ के पावन अवसर पर यह केवल गंगा और सागर का ही संगम न होकर, पूरे भारतीय संस्कृति, अस्मिता और महान चिंतन का भी विराट संगम हो होता है। वैसे भी मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य देव धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना ही ‘मकर-संक्रांति’ कहलाता है। पृथ्वी पर लगने वाले सबसे बड़े मेले ‘कुम्भ’ के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा जन-समावेश मेला है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि गंगासागर की पवित्र तीर्थयात्रा सैकड़ों तीर्थयात्राओं के समान है और मकर संक्राति के अवसर पर गंगा और सागर के संगम में पुन्य-स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। माना गया है कि ‘मकर-संक्रांति’ के अवसर पर गंगासागर में एक बार डुबकी लगाने पर 10 अश्वमेध यज्ञ और एक हज़ार गाय दान करने के समान पुण्य-फल प्राप्त होता है।
गंगासागर मेला जाने के लिए तीर्थयात्रियों की सुगमता हेतु पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा बहुत प्रयास किये जा रहे हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों के अतिरिक्त अन्य देशों से भी अनगिनत तीर्थयात्री गंगासागर मेला में पुन्य स्नान हेतु आते हैं। गंगासागर की यात्रा हेतु देश या विदेश के किसी भी भाग से पहले कोलकता आना पड़ेगा। फिर कोलकाता के सियालदह से काकदीप या नामखाना के लिए रेलसेवा उपलब्ध है। मेला के समय कोलकता के विभिन्न स्थानों से बहुल बससेवा संचालित की जाती है। मेले में पहुँचने के लिए दो अलग अलग मार्ग हैं। एक तो ‘काकदीप’ से ‘हारउड पॉइंट’। (यहाँ के लिए कोलकाता से सीधे बस सेवा उपलब्ध है) ‘हारउड पॉइंट’ से ‘लंच’ (जलयान) से गंगासागर द्वीप के ‘कचुबेड़िया’ और फिर वहाँ से बस द्वारा ‘गंगासागर मेला’ में पहुँचा जाता है।
दूसरा मार्ग ‘नामखाना’ से ‘लंच’ (जलयान) द्वारा गंगासागर द्वीप के ‘चेमागुड़ी’ और फिर वहाँ से पुनः बस द्वारा ‘गंगासागर मेला’ में पहुँचा जाता है। मेला के समय दोनों ही मार्ग सुगम बना दिए जाते हैं। चुकी हुगली नदी में ‘लंच’ (जलयान) का आवागमन नदी के ज्वार-भाटा और धुंध के कारण कभी-कभी नियंत्रित किये जाते हैं, ऐसे में तीर्थयात्रियों को बहुत ही संयम से काम लेना चाहिए। हर स्थान पर स्वयंसेवक तीर्थयात्रियों की सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। अतः किसी भी परेशानी की स्थिति में स्वयंसेवकों की ही सहायता लेना श्रेयकर होता है। चुकी आजकल कोरोना पुनः अपना पाँव पसारने लगा है, अतः कोरोना हेतु आवश्यक मानदण्ड को मानना भी जीवन रक्षा के लिए आवश्यक है।
सूर्य के मकर-राशि में प्रवेश या संक्रांति को ‘महापर्व’ की संज्ञा दी गई है। मकर संक्रांति के इस विशेष दिन को उत्तर प्रदेश में खिचड़ी बनाकर खाने तथा खिचड़ी की सामग्रियों को दान देने की प्रथा होने के कारण इसे ‘खिचड़ी पर्व’ भी कहा जाता है। बिहार-झारखंड में यह धारणा है कि मकर-संक्रांति से सूर्य का स्वरूप तिल-तिल बढ़ता है, अत: वहाँ इसे ‘तिल संक्रांति’ कहा जाता है और प्रतीक स्वरूप इस दिन दही-चुरा के साथ तिल तथा तिल से बने पदार्थो का सेवन किया जाता है। हरियाणा व पंजाब में इसे ‘लोहड़ी पर्व’ के रूप में मनाया जाता है। असम में इस दिन ‘बिहू त्यौहार’ मनाया जाता है। दक्षिण भारत में ‘पोंगल पर्व’ मनाया जाता है। इस दिन तिल, चावल, दाल की खिचड़ी बनाई जाती है। ऐसे भी शीत ऋतु में तिल और गुड़ खाना काफी फायदेमंद होता है। यह शरीर को गर्म रखता है। खिचड़ी खाने से पाचन क्रिया सुचारू रूप से संचालित होने लगती है। इसमें प्रयुक्त विभिन्न मसाले शरीर के अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है और विभिन्न रोग-कीटाणुओं से लड़ने में मदद करती है।
‘भास्करस्य यथा तेजो मकरस्थस्य वर्धते।
तथैव भवतां तेजो वर्धतामिति कामये।।
मकरसंक्रांन्तिपर्वणः सर्वेभ्यः शुभाशयाः।’
भावार्थः
‘जैसे मकर राशि में सूर्य का तेज बढ़ता है, उसी तरह आपके स्वास्थ्य और समृद्धि की हम कामना करते हैं। मकर संक्रांति पर्व पर सबका शुभ और मंगल हो।’
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail।com