हमारे देश में योग की लोकप्रियता के प्रसार के साथ अब सारे संसार में योग के प्रति सबके मन में प्रेम और लगाव कायम हुआ है। योग जीवन के सात्विक दर्शन का संदेश देता है और मनुष्य को सच्ची जीवन साधना का संदेश देता है। यह ज्ञान और कर्म के अलावा आत्मा की पवित्रता से जीवन को समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर करता है। शास्त्रों में इंद्रिय निग्रह को ही योग कहा गया है और इसके लिए आत्म साधना जरूरी है। सदियों से योग के सहारे साधक जीवन को सफल बनाते रहे हैं और लौकिक कल्याण के अलावा लोकोत्तर जीवन के अभिष्ट को भी प्राप्त करते रहे हैं। सांसारिक वासनाओं से निरंतर खुद को दूर करके ईश्वर को प्राप्त करना ही योग है। यह उचित ही कहा गया है – ‘योग : कर्मसु कौशलम्’
आजकल शहरों में योग के नाम पर बड़े-बड़े केंद्र और शिविरों का आयोजन हो रहा है और यहाँ संभ्रांत तबके के लोग इनमें खूब भाग लेते दिखायी देते हैं, लेकिन यह योग के नाम पर फैशनपरस्ती है। शहरों में लोगों का भोगवादी जीवन दर्शन योग के मूल संदेश से कोसों दूर दिखायी देता है। मनुष्य अपने मनप्राण को आत्मिक संस्कारों से जाग्रत करके ही योग में प्रवृत्त हो सकता है। योग साधना के लिए षड्विकारों के रूप में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन विकारों से मनप्राण को रहित करके ईश्वर प्रेम में समर्पित जरूरी है। योग से ही मनुष्य पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करता है।
योग का अर्थ समुचित रूप से जीवनधर्म का निर्वहन है और इसमें ध्यान – प्रणायाम – आसन का काफी महत्व है, लेकिन आजकल कुछ लोग सिर्फ इसे ही योग मानने लगे है। योग का अर्थ सम्यक आत्मिक साधना से लोक कल्याण में प्रवृत्त होना है और इसे जीवन का सबसे महान धर्म कहा गया है। योग से आत्म कल्याण और लोक कल्याण की सिद्धि होती है। महर्षि पतंजलि को योग का प्रवर्तक माना जाता है और उन्होंने योग को सुंदर और सुखमय जीवन का आधार कहा है। इससे शरीर में प्राण और तेज का समावेश होता है।