“लक्ष्मीबाई का रूप धार, झलकारी खड़ग संवार चली।
वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र अस्त्र तन धार चली॥“ – बिहारी लाल हरित
श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता : भारत प्राचीन काल से ही ‘वीरप्रसूताभूमि’ रही है। समयानुसार इसने वीर संतानों को जन्म दी है। उन्ही में से एक थी झलकारी बाई, जिसकी वीरता झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई से जरा भी कम न थी। झलकारी की वीरता में उसके विपक्षी सेनापति ह्यूरोज ने कहा था – ’अगर भारत में स्वतंत्रता की दीवानी ऐसी दो-चार और महिलाएँ हो जायें, तो अब तक ब्रिटिश ने भारत में भी जो ग्रहण किया है, वह उन्हें छोड़ना पडेगा। फिर भारत को स्वतंत्र होने से कोई भी नहीं रोक सकता।‘
झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झाँसी के पास के ही भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। इनके पिता सदोवर सिंह और माता जमुना देवी थे। झलकारी बाई को शैशवावस्था से ही मातृ-वियोग सहना पड़ा। पर पिता ने उन्हें उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण कोई औपचारिक शिक्षा तो न दिलवा सके, परन्तु घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग जैसे प्रशिक्षण कराते हुए उसका पालन-पोषण एक वीर लड़के की भांति किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ संकल्पी बालिका थी। झलकारी घर के काम-काज के अतिरिक्त पशुओं की देखभाल और पास के जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में एक आदमखोर चीते ने झलकारी के संगी-साथियों पर हामला कर दिया। चीते के अचानक हमले को देखकर उसके संगी-साथी सभी भाग खड़े हुए, किन्तु झलकारी ने हिम्मत न हारी और वह कुल्हाडी लेकर चीते से जा भिड़ी। चीते ने भी अपने पंजों से झलकारी को घायल कर दिया। लेकिन झलकारी ने भी कुल्हाड़ी से चीते के माथे पर सधा हुआ कई वार किया। कुछ ही समय में वह आदमखोर चीता निर्बल होकर निढाल हो कर गिर पड़ा, जो कुछ ही समय के उपरांत मर गया।
एक अन्य अवसर पर झलकारी को पता चला कि उसके गाँव के ही एक व्यवसायी के घर पर डकैतों के एक गिरोह ने हमला कर दिया है। गाँव के कुछ लोग उन डकैतों के डर से भाग खड़े हुए। पर झलकारी अपने घर में रखे एक पुरानी तलवार को अपने हाथ में थामें उस व्यवसायी को डकैतों से बचाने के लिए के लिए पहुँच गई। उस छोटी, पर निडर झलकारी ने बड़ी ही फुर्ती से शायद डकैत के प्रमुख को ही पटक कर उसके गर्दन पर अपनी तलवार रख दी। डकैत अब तक जिसे एक छोटी और साधारण बच्ची समझ रहे थे, उसके खूंखार तेवर को देखकर दंग रह गया। तब तक कई गाँव वाले भी अपने हाथों में लाठी-भाले थामें आ खड़े हुए। डकैत दल वापस लौट जाने में ही अपनी भलाई समझें। बाद में झलकारी ने उस डकैत प्रमुख से अपने गाँव की ओर रुख न करने की कसम लेकर छोड़ दी।
झलकारी जैसे-जैसे बड़ी होने लगी, वैसे-वैसे उसकी बहादुरी के कारनामें की संख्या भी बढ़ने लगी। अब तो वह गाँव भर के गर्वयुक्त बहादुर बेटी थी। उसकी बहादुरी के अनुरूप ही गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक बहादुर सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया। रानी लक्ष्मीबाई की पूरी सेना पूरन की बहादुरी का लोहा मानती थी और उस पर गर्व करती थी। कहा जाता है कि एक बार गौरी पूजा के अवसर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ झाँसी के किले में महारानी लक्ष्मीबाई को सम्मान देने और उनका आशीर्वाद लेने गई। महारानी लक्ष्मीबाई इस कोली बाला झलकारी की कद काठी तथा हमशक्ल स्वरूप को देखकर काफी प्रभावित हुई। महारानी झलकारी की बहादुरी के किस्से भी सुनी।
उन्हें प्रतीत हुआ ऐसी नायब बहादुर बाला तो उसके साथ होनी चाहिए और फिर रानी उसे अपने दुर्गादल, जो कि सेना की प्रमुख महिला शाखा थी, उसमें भर्ती कर लिया। झलकारी को तो जैसे मन की मुराद मिल गई। झलकारी को दुर्गादल की महिला सदस्यों के साथ बंदूक चलाना और तोपों का प्रशिक्षण दिया गया। झलकारी इन सब में सर्वश्रेष्ठ निकली। आगे चलकर झलकारी बाई महिला दुर्गादल की सेनापति बनाई गई। चुकी झलकारीबाई महारानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थी, इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए वह रानी के वेश में ही महारानी लक्ष्मी के साथ ही युद्ध-संघर्ष का अभ्यास करती थी।
सन् 1857 में झाँसी पर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था। अंग्रेजों ने झाँसी को विक्टोरिया के झंडे के नीचे लाने के कई प्रयास किए। लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि, ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया।
अप्रैल 1857 के दौरान, महारानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। पूरन कोली को किले के एक द्वार की रक्षा करने का दायित्व सौंपा गया। झलकारी बाई रानी की मुख्य सहयोगी की भूमिका में थी। रानी के सेनानायकों में से एक देशद्रोही दूल्हेराव ने उन्हें धोखा दिया I उसने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया और किले का एक संरक्षित गुप्त द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी ने अपने किशोर दत्तक पुत्र को पीठ पर बाँध लिया। घोडे पर सवार होकर गुप्त-मार्ग से किले से बाहर हो गई। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झाँसी से दूर निकल गईं।
इधर पूरन कोली दुर्ग की रक्षा करते हुए बुरी तरह घायल हो गया। झलकारी बाई जो अब रानी की भूमिका में युद्ध कर रही थी, पति के घायल होने की सूचना पाकर ज़रा-सा भी विचलित नहीं हुई। उसने ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। उसने महारानी लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और बड़े ही धैर्य और साहस के साथ झाँसी की सेना की कमान अपने हाथ में ले ली और अंग्रेजी सेना पर किसी घायल शेरनी की भांति टूट पड़ी। झलकारीबाई रानी की ही भांति अनवरत युद्ध करती रही, और अंग्रेज यही समझते रहे कि उनसे रानी ही युद्ध कर रही है। एकायक झाँसी की सेना पस्त होने लगी। झलकारी को शत्रु ने चारों ओर से घेर लिया और बंदी बना लिया। उसे जनरल ह्यूरोज के समक्ष प्रस्तुत किया गया। जनरल ह्यूरोज और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झाँसी पर कब्जा कर लिया है, बल्कि जीवित रानी लक्ष्मीबाई भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूरोज़ भी उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए?
तो वीर और साहस की प्रतिमूर्ति झलकारी ने दृढ़ता के साथ कहा, – ‘मुझे फाँसी दो।‘
पर जैसा कि होता आया है I वहाँ झाँसी के एक गद्दार ने रानी के वेश में झलकारीबाई को पहचान लिया और उसने अंग्रेजों को बता दिया कि यह रानी लक्ष्मीबाई नहीं, बल्कि उनकी दुर्गा दल की नायिका झलकारीबाई है। जनरल ह्यूरोज वीर और साहसी झलकारीबाई की क्रिया-कलापों से से बहुत प्रभावित हुआ। झलकारीबाई की वीरता तथा त्याग की प्रशंसा करते हुए उसने कहा था, – ’अगर भारत में स्वतंत्रता की दीवानी ऐसी दो चार महिलाएँ और हो जायें तो अब तक बर्तानियों ने भारत में जो ग्रहण किया है, वह उन्हें छोडना पडेगा। भारत को स्वतंत्र होने से कोई भी नहीं रोक सकता।‘
झलकारीबाई ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है।
झलकारीबाई का अन्त किस प्रकार हुआ, इस बारे में इतिहासकार मौन हैं। कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा फाँसी दे दी गई। लेकिन कुछ का कहना है कि उनका अंग्रेजों की कैद में जीवन समाप्त हुआ। अखिल भारतीय युवा कोली के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. नरेशचन्द्र कोली के अनुसार 4 अप्रैल 1857 को झलकारी बाई ने वीरगति प्राप्त की। झाँसी की रानी का इतिहास जब-जब लोगों के द्वारा पढ़ा जायगा, झलकारी बाई के योगदान को लोग अवश्य याद करेंगे।
मैथिलीशरण गुप्त के निम्न पंक्तियों के द्वारा हम झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई की सहयोगी वीरांगना झलकारीबाई को उनकी 191 वीं गौरवमयी जयंती पर नमन करते हैं –
जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लडना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।।