“यदु-नन्द नंदन देवकी-वसुदेव नंदन वन्दनम्I
मृदु चपल नयनम् चंचलम् मनमोहनम् अभिनन्दनम्II”
भाद्रमास में कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र की काली अंधियारी लगभग मध्य रात्रिI आकाश में घने बादलI रह-रह कर बिजली की चमक और घनघोर वर्षाI मथुरा का बंदीगृहI अचानक तेज प्रकाशविम्ब उत्पन्न हुआ, जिसमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए दिव्य चतुर्भुज भगवान नारायण प्रकट हुए। कंश के उस बंदीगृह में केवल दो बंदियों ने ही उस दिव्य चतुर्भूज श्रीनारायण के दर्शन किये, – ‘वासुदेव और देवकी’ बाकी सभी पहरेदार तो तत्क्षण ही गम्भीर निद्रा के आगोस में समा गएI
श्रीनारायण की पावन ध्वनि सिर्फ वासुदेव और देवकी के कानों में गुँजित हुई, – ‘हे देवी देवकी! मैं तुरंत ही तुम्हारे गर्भ से नवजात शिशु के रूप में जन्म ग्रहण करूँगाI हे देव पुरुष वासुदेव! वर्तमान परिस्थितियों की चिंता न कर आप तुरंत ही मेरे शिशु स्वरूप को गोकुल ग्राम में अपने मित्र नन्द जी के घर ले जाइएगा और वहाँ देवी यशोदा ने जिस माया रुपी कन्या को जन्म दी है, उसके स्थान पर मुझे रख कर उस माया रुपी कन्या को आप यहाँ ही अतिशीघ्र लेते आइयेगाI’
श्रीनारायण का आदेश पूरा होते ही अचानक माता देवकी की प्रसव पीड़ा बढ़ी और जैसे ही मध्य रात्रि का बेला हुआ, ठीक तभी श्रीनारायण, माता देवकी के गर्भ से नवजात शिशु रूप में अवतरित हुएI श्रीनारायण की मधुर कर्णप्रिय अल्प क्रुन्दन की ध्वनि सिर्फ वासुदेव और माता देवकी के कानों में ही अमृतरस प्रवाहित कीI अभी वासुदेव तो इस चिंता में ही थे कि मजबूत जंजीरों से बंधे प्रभु की आज्ञा का पालन भला कैसे करूँगाI
पर यह क्या? तुरंत ही वे मजबूत उन जंजीरों से मुक्त हो गएI बंदीगृह के दरवाजे भी एक-एक कर स्वतः ही खुलते गएI तत्काल कुछ अन्य वस्तु न पाकर वासुदेव जी ने बंदीगृह में ही फलों के लिए रखी एक टोकरी में, पत्नी देवकी के ही वसन के एक टुकड़े में अपने नवजात ईश्वरीय शिशु को लपेट कर रखा और अविलम्ब ईश्वरीय आदेशानुसार गोकुल ग्राम के लिए चल पड़ेI बेचारी सद्य:प्रसूति माँ देवकी अपने जन्मा को भर निगाह से देख भी तो न पाई थीI
पर ईश्वरीय आदेश में ही अपने शिशु पुत्र की रक्षा की बात को समझ कर वह अपने कलेजे को कठोर बनाकर अपने नवजात शिशु की मंगल कामना करते हुए उसे को विदा कीI माँ का विशाल कलेजा हर कष्ट को सह कर ही अपनी सन्तान की रक्षा ही चाहती हैI देवी देवकी भी तो एक माता ही रही!
वासुदेव जी भाद्रमास के अतुलित वर्षाजल को धारण किये गर्व से उफनती यमुना के तट पर अपने शिशु पुत्र के साथ पहुँचेI यमुना अपने पति श्रीनारायण को इस शिशु रूप में भी पहचान गई और उनके चरण स्पर्श हेतु इठलाने लगीI पर यमुना के इस अशांत रूप को देखकर वासुदेव जी कुछ विचलित हो गए, तभी श्रीनारायण की वही पूर्व ध्वनि उनके कानों में गुँजित हुई, – ‘वर्तमान परिस्थितियों की चिंता न कर आगे बढ़ते जाएँI’ – और वासुदेव एक साधारण टोकरी में त्रिलोक स्वामी को अपने माथे पर धारण किये यमुना के जल में प्रवेश कियेI शेषनाथ भी शायद निर्धारित योजना के अनुकूल यमुना-जल में पहले से ही तैयार बैठे थेI
तुरंत छत्रप बनकर अपने प्रभु के ऊपर तन गएI पर बेचारी यमुना क्या करे? इतने करीब होकर भी अपने स्वामी के चरणों से दूर! अपने स्वामी के चरण स्पर्श हेतु वह और व्यग्र होकर लहरों के रूप में उछल भरने लगीI गहराई भी बढ़ती ही जा रही थीI यमुना भी अपनी व्यग्रता में वासुदेव जी को डुबोती ही जा रही थीI पहले कन्धा डूबा, फिर मुँह-नाक और आँख डूबेI अब तो उनका सिर भी जल तल होने लगाI
यमुना अपने उद्देश्य पूर्ती हेतु और ऊँची उछाल भरने लगीI शायद टोकरी में अठखेलियाँ करता शिशु दोनों की परीक्षा ही तो ले रहा थाI तब शिशु ने अपने कोमल चरण को नीचे लटका दियाI शिशु स्वरूप अपने पति के चरणस्पर्श कर यमुना तृप्त हो गई और वासुदेव जी के मार्ग पर निरंतर घटती हुई उन्हें सुगम मार्ग प्रदान करती रहीI वासुदेव जी इस रहस्य को न समझ सकेI
यमुना पार कर वासुदेव जी उसे धन्यवाद दिएI यमुना भी अन्तः भाव से शिशु स्वरूप श्रीनारायण से पुनः दर्शन देने का निवेदन कीI शिशु टोकरी में ही मुस्कुराते हुए यमुना को आश्वस्त किया, मानों कह रहा हो, – ‘ तुम्हारे बिना तो मेरी बाल-लीलाएँ अधूरी ही रह जाएगी, प्रिये! मैं तुम्हारे करीब ही बाल क्रीड़ाएँ किया करूँगाI’
उस काली अंधियारी बरसती रात्रि में वासुदेव गोकुल में अपने मित्र नन्द के द्वार पर पहुँचेI सभी बंद दरवाजे स्वतः ही खुल गएI सभी लोग यहाँ तक कि उनके मित्र नन्द जी और सद्य:प्रसूति यशोदा जी भी गम्भीर निद्रा में बेसुध पड़े हुए दिखेंI वासुदेव जी अपने मित्र और उनकी पत्नी को मन ही मन प्रणाम किये और प्रसूति गृह में प्रवेश कर बहुत ही सावधानी से अपने शिशु पुत्र को यशोदा के पास धीरे से रख कर उनकी माया रुपी पुत्री को उठा लिए I
एक बार मन हुआ कि अपने शिशु पुत्र को मन भर देख तो लेवें, पर पुत्र प्रेम और विलम्ब होने के डर से उससे मुख मोड़कर द्रुतगति से उस गृह से निकल पड़ेI बरसाती रात्रि में गिरते-बचते पुनः मथुरा के बंदीगृह पहुँच गएI मन ही मन सोच रहे थे कि उनके भीगे और कीचड़ से सने वस्त्रों से उनकी और ईश्वरी चाल पकड़ ली जाएगीI बंदीगृह के सभी दरवाजे अभी भी खुले ही पड़े थेI एक-एक कर दरवाजे को पार करते गये और वे दरवाजे भी एक-एक कर स्वतः ही बंद होते गएI
बंदीगृह में पहुँचते ही माया रुपी यशोदा नंदिनी को उन्होंने जैसे ही देवी देवकी के के अंक में रखा, वैसे ही कारा की मजबूत बेड़ियाँ पुनः उनके हाथ-पैर को बंधित कर दींI उनके वस्त्र पूर्व की भांति सूखे और कीचड़हीन हो गएI उस मुख्य बंदीगृह का दरवाजा भी स्वतः ही बंद हो गयाI बंदीगृह के रक्षक भी गम्भीर निद्रा से अचानक जाग गएI
बंदीगृह में नवजात शिशु की क्रुन्दन की कर्णप्रिय मधुर ध्वनि गूँज उठीI रक्षकप्रमुख दौड़ पड़ा अपने महाराज कंश को सूचना देनेI कुछ समय में अपने विकराल स्वरूप में मथुरा नरेश कंश बंदीगृह में प्रकट हुआI अपनी बहन देवकी के अंक से उस नवजात शिशु को छिन्न लियाI गौर से देखा तो यह नवजात कन्या शिशु थीI पर उससे हत्यारे को क्या? उसे तो बस आकाश वाणी के वही उवाच स्मरण था, – ‘देवकी की आठवीं संतान ही तेरा काल हैI वही तेरी मृत्यु का कारण होगाI’ अब भला वह पापी-हत्यारा अपने हाथ आये अपने सम्भावित काल को छोड़ कर अपनी मृत्यु को कैसे निश्चित कर सकता है?
अतः वह पूर्व आदतन उस शिशु कन्या को भी पास के बड़े चट्टान पर पटक मारने के लिए उछालाI पर यह कैसी विडम्बना? वह कन्या शिशु स्वतः ऊपर उठ गई और गगन भेदी भीषण आवाज में कठोरता से कही, – ‘पापी हत्यारा कंश! तुम्हारा काल जन्म ले चूका हैI बच सकते हो तो बच जाओI वह जल्द ही तुझे तेरे पापों का दंड देगा।’ – और वह माया शिशु अंतर्ध्यान हो गईI
“हाथी चढ़े, घोड़ा चढ़े, और चढ़े पालकी,
नंद के आनंद भयो जय कन्हैया लाल कीI”
‘जय श्रीकृष्ण’
- श्रीराम पुकार शर्मा