अशोक वर्मा “हमदर्द, कोलकाता। भारत की एकता और विविधता इसकी सबसे बड़ी ताकत है। यहां विभिन्न भाषाएं, धर्म और संस्कृतियों का संगम मिलता है, जो इस देश को विश्व में अद्वितीय बनाता है। परंतु, समय-समय पर कुछ स्थानीय और अलगाववादी संगठन इस विविधता को चुनौती देते हैं और इसके परिणाम स्वरूप देश की एकता खतरे में पड़ जाती है। हाल ही में सिलीगुड़ी में बिहार से आए परीक्षार्थियों के साथ बांग्ला पक्खो नामक संगठन द्वारा किया गया दुर्व्यवहार इसी प्रकार की चुनौती का उदाहरण है। देखा जाय तो यह बांग्ला पक्खो का अलगाववाद की ओर बढ़ता कदम है।
बांग्ला पक्खो एक ऐसा संगठन है जो बंगाली भाषा और संस्कृति की रक्षा और संवर्धन का दावा करता है। बंगाल में बाहरी राज्यों से आए लोगों के प्रति इसके विरोधी रुख को देखते हुए, इसे एक अलगाववादी संगठन के रूप में देखा जा सकता है। यह संगठन अक्सर यह तर्क देता है कि बंगाल में बाहरी राज्यों से आए लोग स्थानीय संसाधनों और नौकरियों पर कब्जा कर रहे हैं,जबकि सच्चाई ये है की जीतने भी बड़े-बड़े उद्योग धंधे है उसमें से ज्यादातर गैर बंगला भाषी के है।
प्रश्न यह नही है की यहां रोजगार सृजन किस भाषा प्रांत के लोगों द्वारा होता है, फर्क तब पड़ता है जब भाषा प्रांत के नाम पर लोगों को रोजगार से रोका जाता है। वो ये दिखाना चाहते है की गैर प्रान्तों के लोगों की वजह से स्थानीय लोगों को अवसरों की कमी हो रही है। इस तर्क के पीछे की भावना बंगाली अस्मिता की रक्षा की है, लेकिन इसे जिस तरह से लागू किया जा रहा है, वह न केवल संविधान की भावना के खिलाफ है, बल्कि इससे सामाजिक अस्थिरता भी बढ़ रही है।
सिलीगुड़ी में बिहार से आए परीक्षार्थियों के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ, वह इस बात का सबूत है कि बांग्ला पक्खो जैसे संगठन भारत की संघीय ढांचे और संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ काम कर रहे हैं। यह घटना न केवल क्षेत्रीय भाषा की सुरक्षा के नाम पर की गई हिंसा को दर्शाती है, बल्कि इसे अलगाववादी मानसिकता का एक गंभीर उदाहरण भी माना जा सकता है। पश्चिम बंगाल में ऐसे हिंसा की तमाम खबरें है। ऐसे में ये पता करना है की इन्हें इस कार्य के लिए कहां से फंडिंग हो रही है, उस पर सरकार और उनके तंत्र आवाज उठाएं।
बांग्लादेशी नागरिक और रोहिंग्याओं पर चुप्पी बांग्ला पक्खो के दोहरी नीति पर सवाल खड़ी करता है। वो दूसरे प्रांत के लोगों पर तो अपना विचार रखते है किंतु दूसरे देशों के लोगों पर ये अपना मुंह बंद रखते है, जो भारत और भारतीयों के लिए आत्म चिंतन का विषय है।
बांग्ला पक्खो की गतिविधियों का सबसे विवादास्पद पहलू यह है कि यह संगठन अक्सर बिहार और अन्य राज्यों से आए भारतीय नागरिकों के खिलाफ मुखर होता है, लेकिन जब बांग्लादेशी नागरिकों या रोहिंग्याओं का मामला आता है, तो यह चुप रहता है। यह एक दोहरी नीति को उजागर करता है, जिससे कई प्रश्न खड़े होते हैं। भारत में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिक और रोहिंग्या शरणार्थी देश की सुरक्षा, सामाजिक संरचना और आर्थिक संसाधनों पर गंभीर प्रभाव डालते हैं। फिर भी इस मुद्दे पर बांग्ला पक्खो जैसे संगठन की चुप्पी संदेहास्पद है।
यह स्थिति राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक स्थिरता के लिए खतरनाक हो सकती है। अगर ऐसे संगठन अवैध नागरिकों के प्रति उदासीन रवैया अपनाते हैं और भारतीय नागरिकों के प्रति आक्रामक होते हैं, तो इससे समाज में विभाजन और असंतोष बढ़ सकता है। ऐसे में भारत सरकार या पश्चिम बंगाल सरकार क्या बांग्ला पक्खो पर बैन लगाएगी?
यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या बांग्ला पक्खो पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। किसी भी संगठन पर प्रतिबंध तभी लगाया जा सकता है जब वह देश की सुरक्षा, सामाजिक सौहार्द और संविधान के मूल्यों को खतरे में डालता हो। बांग्ला पक्खो की गतिविधियां जो हिंसा और विभाजनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देती हैं, निश्चित रूप से एक गंभीर चिंता का विषय है। लेकिन इस पर प्रतिबंध लगाना केंद्र और राज्य सरकारों की राजनीतिक और कानूनी स्थिति पर निर्भर करेगा।
इसके अलावा यह भी देखा गया है कि बंगाल में ऐसे संगठनों को कभी-कभी स्थानीय राजनीति में समर्थन मिल जाता है। यह राजनीतिक समर्थन ऐसे संगठनों की गतिविधियों को रोकने में बड़ी बाधा हो सकता है। अगर सरकार इन संगठनों पर सख्त कार्रवाई नहीं करती, तो यह भविष्य में अधिक गंभीर समस्याओं का कारण बन सकता है।
बंगाल में भाषा और प्रांत के नाम पर बढ़ते उपद्रव से हजारों ऐसे लोग परेशान है जो रोज इनका शिकार होते है। बंगाल में भाषा और प्रांत के नाम पर बढ़ते उपद्रव का इतिहास रहा है। चाहे वह गोरखा आंदोलन हो, आमरा बंगाली संगठन या उत्तर बंगाल में अलग राज्य की मांग, ऐसे मुद्दे हमेशा राज्य की स्थिरता को चुनौती देते रहे हैं। बांग्ला पक्खो का उभरना और बिहारियों या अन्य भारतीय नागरिकों के खिलाफ हिंसा, इस बात की ओर इशारा करता है कि भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर उपद्रव बढ़ सकता है।
अगर राज्य और केंद्र सरकारें जल्द ही इस मुद्दे पर ध्यान नहीं देतीं, तो यह भारत के संघीय ढांचे को कमजोर कर सकता है। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है, चाहे वह किसी भी राज्य का हो। लेकिन जब राज्य विशेष में बाहरी लोगों के प्रति हिंसा और विभाजनकारी विचारधारा का समर्थन किया जाता है, तो इससे संविधान की भावना कमजोर होती है।बांग्ला पक्खो जैसे संगठनों का उभार भारत की एकता और अखंडता के लिए गंभीर खतरा है।
भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता की रक्षा के नाम पर हिंसा और विभाजनकारी राजनीति का समर्थन न केवल संविधान के खिलाफ है, बल्कि यह देश की सुरक्षा और स्थिरता के लिए भी हानिकारक है। ऐसे संगठनों पर बैन लगाने की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन उससे पहले यह जरूरी है कि समाज में संवाद और समझ बढ़े। देश के विभिन्न हिस्सों से आए नागरिकों को एक-दूसरे की संस्कृति और परंपराओं का सम्मान करना चाहिए।
सरकार को ऐसे मुद्दों पर सख्त कदम उठाने चाहिए, ताकि देश की एकता और अखंडता बनी रहे। अंततः यह भारत की विविधता में एकता की परिकल्पना को बरकरार रखने की जिम्मेदारी हम सभी की है। किसी भी प्रकार के अलगाववादी विचारों को स्थान देना देश की स्थिरता और समृद्धि के लिए घातक साबित हो सकता है।
(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)
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