संबंध लाल-कालीन का कंटीली राह से

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

संविधान को कहते हैं आईन जिसे घोषित किया गया है कि हम भारत के लोग इसको अपनाते हैं स्वीकार करते हैं मंज़ूर है। शायद सभी ने पढ़ा तक नहीं बिना पढ़े पढ़े लिखे लोगों ने हस्ताक्षर कर दिए अनपढ़ लोग अंगूठा लगाने को तैयार थे फिर भी मुमकिन नहीं कि इस में ऐसा समझाया गया होगा कि सरकार और जनता का रिश्ता लाल-कालीन का कंटीली राह से संबंध जैसा होगा। भला इस से बढ़कर चिंताजनक दशा क्या हो सकती है कि चुनकर सत्ता पर बिठाने वाले भूखे नंगे बदहाल हैं और जनता की सेवा का वादा करने वाले राजसी शान से ऐशो आराम का मज़ा लूटते राजा बनकर अय्याशी भरा जीवन जीते हैं।

विडंबना की बात है संसद विधानसभाओं राजभवन सचिवालय से न्यायलय तक हर कोई देश के गरीबों के खून पसीने की कमाई पर मौज मनाते हुए समझता है ये आज़ादी है उनको मिला अधिकार है। जबकि वास्तव में ये सभी अपना अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाने में असफल ही नहीं हुए और नाकाबिल ही साबित नहीं हुए बल्कि इनका ज़मीर मर चुका है अन्यथा इन सभी को शर्म आती बिना कर्तव्य निभाए मनमर्ज़ी का वेतन सुविधाएं हासिल करने नहीं छीनने के लिए।

देशभक्ति जनता की सेवा जनकल्याण की भावना जैसे शब्द इनके लिए कोई अर्थ नहीं रखते हैं इन्होने ऐसे शब्दों को अपने अपकर्म और कर्तव्यविमुख होने को ढकने का आवरण या मुखौटा बना रखा है। जिस देश की आधी आबादी को बुनियादी सुविधाएं जीने की उपलब्ध नहीं उस का शासन चलाने वालों का देश के ख़ज़ाने को अनावश्यक फज़ूल खर्चों पर बर्बाद करना अनुचित अमानवीय और अपराध ही नहीं सबसे बढ़कर अधर्म एवं पाप है। शपथ उठाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है जब उठाने वाले की भावना ईमानदारी पूर्वक उस पर खरे उतरने की नहीं होकर केवल औपचरिकता हो पद और सत्ता पर काबिज़ होने को तोते की तरह कही बात को दोहराना। 

 आज़ादी के 73 साल बाद बहुत कुछ किया जाना संभव था जो किया नहीं किया बल्कि जो नहीं किया जाना चाहिए था वही निर्लज्जता पूर्वक डंके की चोट पर किया गया विकास के नाम पर सिर्फ ख़ास वर्ग को सभी कुछ उपलब्ध करवाने को। और अधिकांश सामान्य वर्ग को कुछ भी नहीं खोखले वायदे झूठे आंकड़े और उनको ऐसे जाल में फंसाना जिस में लोग गुलामी को भी सत्ता और सरकार की अनुकंपा समझने लगें। आज महिला दिवस है और हम महिलाओं को समानता के अधिकार और आदर मिलने की पैरवी करते हैं लेकिन क्या शासक वर्ग धनवान लोग और देश के एक चौथाई अमीर वो लोग जिनके पास पैसा दौलत का 75 फीसदी से अधिक है।

उनका बाकी जनता से बड़ा अंतर सबको सब बराबर नहीं मिलने का वास्तविक कारण सरकार की भेदभाव पूर्ण व्यवस्था नहीं है जो गरीब का शोषण और अमीर को और अमीर बनाने की नीतियों पर चल रही है। गांधी जी की सोच और समाजवाद की अवधारणा को दरकिनार कर पूंजीवादी व्यवस्था का नतीजा देश कंगाली के कगार पर खड़ा है। जिनको देश और समाज की समस्याओं का समाधान निकालना चाहिए था वही खुद सबसे विकराल समस्या बनकर सामने खड़े हैं और उन्होंने चालाकी और छलपूर्वक जनता को उस भंवर में ला दिया है जब कोई विकल्प सामने नहीं दिखाई देता है। जो कश्ती को खेवनहार बनकर पतवार थामकर पार लगाने की बात कहकर चले थे हमको डुबोने का काम कर रहे हैं खुद अपने लिए सुरक्षित बचने के उपाय पहले किए हैं। 

  अब हमारे पास बस एक ही रास्ता है ऐसे माझी पर भरोसा करना छोड़ खुद अपने साहस से इन मौजों से टकराना और तैर का पार करना हौंसलों के दम पर। इतिहास गवाह है मखमली बिस्तर पर चैन से सोने वाले ऊंचे महलों में फूलों पर चलने वाले कंटीली राह पर चलने वालों झौंपड़ी में रहने वालों पर कभी रहम नहीं किया करते हैं। उनको मसीहा समझना सबसे बड़ी भूल होती है जिनको सत्ता की हवस होती है बेरहम बन जाते हैं।

मगरमच्छ के आंसू गिरगिट की तरह रंग बदलना उनकी फितरत है उनका भरोसा नहीं किया जा सकता है। जिन के शासन में कहा जाता है कि उनके राज में सूर्य कभी अस्त नहीं होता उनको उनकी हैसियत समझा सकते हैं तो ये मुट्ठी भर लोग जो बिना शासकीय अधिकार किसी काम के नहीं देश की जनता के बहुमत के सामने कब तक टिक सकेंगे। अब तलक संविधान को राजनेताओं ने अपने अनुसार स्वार्थ सिद्ध करने को परिभाषित किया और दुरूपयोग किया है अब समय आ गया है उनको संविधान की भावना समझाने और उनकी वास्तविक जगह शासक नहीं जनसेवक है दिखलाने का। 

 आज हमारे देश और समाज में नैतिकता सच्चाई ईमानदारी खोखले शब्द बन कर रह गए हैं वास्तव में इनका कोई महत्व कोई मूल्य रह नहीं गया है। डॉक्टर शिक्षक स्कूल अस्पताल क्या धर्म उपदेशक तक अपने वास्तविक कर्म से अधिक ध्यान अपने स्वार्थ और धन दौलत हासिल करने पर देते हैं। ऊंचे पद पर बैठ कर मापदंड निम्न स्तर के दिखाई देते हैं। सरकारी कर्मचारी अच्छा वेतन पाकर भी ईमानदारी से कर्तव्य नहीं निभाते हैं। पुलिस अपराध मिटाने पर नहीं अपराध को बढ़ाने पर ध्यान देती है हर कोई अपने मतलब की खातिर दूसरे को धोखा देने को अनुचित नहीं समझता है। जो जिस व्यौपार धंधे कारोबार में है मुनाफा कमाने को सब कुछ करता है। मिलावट ही नहीं ज़हर तक बेचते हैं पैसे की खातिर आसानी से धनवान बनने को लोग। भगवान से कोई भी डरता नहीं है शायद सभी समझते हैं उनके अपकर्मों का हिसाब कोई नहीं करने वाला है।

सोचा समझा जाये तो हम मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरिजाघर जाते हैं दिखावे को आडंबर करने को क्योंकि वास्तविक जीवन में हमने धर्म की राह चलना छोड़ दिया है। शायद हमने ईश्वर और धर्म को भी लेन देन का कारोबार समझ लिया है और समझते हैं वहां भी रिश्वत चाटुकारिता चढ़ावे गुणगान आरती से बात बन जाएगी। अर्थात हमने भगवान को भी अपने जैसा मान लिया है जो खुश हो जाएगा उपहार पाकर या स्तुति सुनकर मतलब ये कि हमने भगवान ईश्वर को भी समझा तक नहीं है।  

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