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विनय कुमार शुक्ल, कोलकाता। रिश्तों को जोड़ने और बनाए रखने के लिए भाषा और अभिव्यक्ति एक सशक्त माध्यम है पर जब भाषा के नाम पर राजनीति होने लगे तो यही भाषा कलह और विघटन का कारण भी बन जाती है। वर्षों पहले भाषा के नाम पर पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हो गया था तो भाषा के नाम पर भारत में भी दो विचारधाराएँ राजनीतिक पटल पर आ चमकी थीं। उनमें से एक हिंदी प्रेमी और दूसरे हिंदी विरोधी। एक दशक ऐसा भी था भाषा के इस लहर ने विभाजन की सी स्थिति ला दी थी।
हालांकि बदलते समय और सीमित क्षेत्रफल में रोजगार की कमी ने लोगों को बहुभाषिता की आवश्यकता का ज्ञान करवाया और धीरे-धीरे जो लोग हिंदी से नफरत करने लगे थे उन्हें हिंदी के करीब आता हुआ देखा गया। विशेषकर युवा वर्ग, जिनको यह एहसास हो गया है कि यदि रोजगार करना है तो अपनी सीमा के बाहर भी जाना पड़ सकता है और जब आप सीमा के बाहर जाते हैं तो भारत में कम से कम हिंदी को एक सेतु के रूप में लेकर चलना होगा।
अपनी भाषा के क्षेत्रफल से बाहर निकलने पर संवाद के माध्यम के रूप में थोड़ा-बहुत हिंदी का ज्ञान तो रखना ही होगा। वह अगल बात है कि गाहे-बगाहे हिंदीतर राज्यों में हिंदी विरोध के स्वर उठाने वाले बड़े या छोटे नेता दिख ही जाते हैं पर इसपर युवावर्ग विशेष ध्यान नहीं देता। उन्हे पता है कि रोजगार के लिए संपर्क भाषा के रूप में ही सही हिंदी थोड़ा-बहुत जान लेना आवश्यक है। नेताओं का क्या है, उन्हें भी अपने नेतागिरी का रोजगार बचाए रखने के लिए ऐसे हथकंडे चलाना ही पड़ता है।
राजनीति में यह आम है। सत्ता पक्ष और विपक्ष में सत्ता के लिए संघर्ष सदैव ही चलता रहता है। इसी क्रम में वर्तमान सत्तारूढ़ दल को सिंहासन से हटाकर अपनी सत्ता लाने की चाहत में विरोधी दलों ने एक नया संगठन बनाया है जिसे इंडिया का नाम दिया गया है। रणनीति तय करने और अपनी विचारधारा को संगठित करने के उद्देश्य से इस संगठन की बैठकों का लगातार आयोजन चल रहा है।
इसी बैठक के क्रम में दिनांक 19 दिसंबर 2023 को आयोजित बैठक में फिर से एक बार भाषा के नाम पर विखंडन स्पष्ट रूप से देखा गया है। पार्टी की बैठक में जब नीतीश कुमार ने हिंदी में बोलना शुरू किया तब संगठन के टी.आर. बालू ने उनके हिंदी भाषण को न समझने की बात करते हुए मनोज झा से इसका अनुवाद करने के लिए कहा। हालांकि नीतीश कुमार ने अपने भाषण का अनुवाद करने से मना कर दिया, पर खबरों की मानें तो नीतीश कुमार के भाषण के बाद मनोज झा हिंदी में भाषण देने वाले नेताओं के भाषण के अनुवाद करते हुए देखे गए।
हालांकि भाषा न समझ पाने की बात कहते हुए इस मामले को रफ़ा-दफ़ा करने का प्रयास किया गया पर खबरों के अनुसार नीतीश कुमार को यह बात रास नहीं आई। उन्होंने कह ही डाला कि हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा है और राष्ट्रभाषा का इस प्रकार से ऐसे मंच से विरोध समझ से परे है जो मंच भारत को विकास की राह पर ले जाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के संगठन से बनने की तैयारी में है।
यह घटना भले ही छोटी सी लग रही हो पर इन हलचलों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चाहे जितना भी गठबंधन हो जाए, विभिन्न दल भाषा के नाम पर अब भी एक झरोखा खाली रखना चाह रहे हैं जिससे आवश्यकता पड़ने पर वे गठबंधन में रहकर भी क्षेत्रीय स्तर पर अपनी पुरानी राजनीति और राष्ट्रीय स्तर पर अलग राजनीति में उलझे और उलझाए रख सकें। इसीलिए जहां भाषाई विविधता हो वहां समरसता होना जरूरी हो जाता है।
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