‘छाता पग पनही नहीं और न बांधहिं पाग’
श्री राम पुकार शर्मा हावड़ा। कवि जयराज राठौड़ की यह काव्य-उक्ति राष्ट्रीय, सामाजिक और साहित्यिक परिपेक्ष्य में देश, संस्कृति, आस्था और विश्वास से संबंधित महत्वपूर्ण सन्देश को प्रसारित करती है। जब हमारी मातृभूमि खतरे में हो, तब हमारा कर्तव्य होता है कि हम अपने सारे सुखों को त्याग कर स्वयं को देशहित कार्यों के प्रति समर्पित कर देवें और देशहित कार्य करनेवालों को तन-मन-धन से भरपूर समर्थन प्रदान करें। देशहित के सम्मुख निज स्वार्थों का कोई महत्व न देना चाहिए, बल्कि सर्वदा अपनी स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को प्राप्ति करना ही हमारा एकमात्र परम लक्ष्य होना चाहिए।
पावन आध्यात्मिक नगरी ‘अयोध्या’ को स्वयंभुव मनु जी ने बसाया था और इसका नाम ‘अयोध्या’ रखा, जिसका अर्थ होता है, – ‘अ’-‘युद्य’ अर्थात, ‘जिसे युद्ध के द्वारा न जीता जा सके’। कई युगों तक ‘अयोध्या नगरी’ ‘अ’-‘युद्य’ ही बनी रही। वेद में अयोध्या को ‘ईश्वर का नगर’ बताया गया है, ‘अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या’। इसकी सम्पन्नता की तुलना स्वर्ग से की जाती रही है। यह पावन नगरी भारतवर्ष के ‘सप्तपुरियों’ में से एक विशेष ‘पुरी’ माना गया है। कहा भी गया है, –
‘अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका:’॥
पवित्र सरयू नदी के तट पर दिव्य शोभा से युक्त ‘अयोध्या’ अमरावती के समान अति सुंदर और अति पावन ‘दूसरी अमरावती’ प्रतीत होती है। यह मूल रूप से सनातनी हिंदू मंदिरों का पवित्र शहर है। आज भी यहाँ सनातन हिंदू धर्म से जुड़े अनगिनत पौराणिक अवशेष यत्र-तत्र देखने को मिल जाते हैं। पौराणिक काल से ही यह पावन नगरी प्रतापी सूर्यवंशी या रघुवंशी इक्ष्वाकु वंशीय राजाओं की राजधानी रही है, जिसकी सुंदरता और भव्यता इंद्रलोक से प्रतिस्पर्धा करती थी। पौराणिक काल में इसे ‘अयोध्या’, ‘साकेत’, ‘रामनगरी’, ‘कोशल जनपद’ आदि नामों से जाना जाता था। इसी पावन नगरी ‘अयोध्या’ में महाराज भागीरथ हुए, जिन्होंने अपने तप बल से गंगा जी को स्वर्ग से धरती पर ले आए। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र हुए, जिन्होंने सत्य की रक्षा के लिए राज-पाट से लेकर अपने परिजनों को भी त्याग दिया था। दशरथी रामचन्द्र जी का जन्म भी इसी पावन नगरी की पावन भूमि पर हुआ था, जिन्होंने असुरों को बध कर साधुजनों को निर्भय किया था। वे विष्णु अवतार के रूप में पूजे जाते हैं। आज भी ‘अयोध्या’ की महिमा गाथा में श्रीरामजी ही प्रमुख हैं। परवर्तित काल अर्थात कुछ शताब्दी पूर्व इसे ‘अवध’ के नाम से भी जाना जाता रहा था।
भगवान राम के स्वर्गधाम गमन के उपरांत सरयू नदी में आई भीषण बाढ़ से अयोध्या की भव्यता और संपन्नता बहुत कुछ क्षीण हुई थी। भगवान राम के पुत्र कुश ने अयोध्या की भव्यता को नए सिरे से सहेजने का अथक भगीरथ प्रयास किया। उन्होंने श्रीराम जन्मभूमि पर एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया था। युगों-युगों के भौतिक घाट-प्रतिघातों ने उस मंदिर को जीर्ण-शीर्ण कर दिया। युगप्रवर्तक ऐतिहासिक प्रवीर राजाधिराज विक्रमादित्य ने उस श्रीराम मंदिर का पुनरुद्धार किया था। फिर करीब डेढ़ सहस्त्राब्दि से भी अधिक यह पावन मंदिर सनातनी हिन्दुओं की आस्था-अस्मिता और आध्यात्मिकता का प्रमुख केंद्र बना रहा। परंतु भारत में मुस्लिम शासकों के आगमन और यहाँ स्थापित हो जाने के साथ से ही श्रीराम मंदिर पर संकट के काले बादल मंडराने लगे थे, क्योंकि सनातनी हिन्दुओं की आस्था-अस्मिताओं को तहस-नहस कर उनपर इस्लामी संस्कृति के प्रभुत्व को स्थापित करना ही मुस्लिम शासकों की साम्राज्यवादी नीति थी। मुग़ल शासक बाबर के आदेश पर ही उसका सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या के पवित्र श्रीराम मंदिर को २१ मार्च १५२८ को तोप से ध्वस्त कराया और उसके अवशेष पर १५२८-२९ में एक मस्जिद का निर्माण करवाया, जिसे बाबरी-मस्जिद के नाम से जाना जाता था।
ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार श्रीराम मंदिर की पुनर्स्थापना के लिए समयानुसार ७६ युद्ध लड़े गए। जिस वर्ष मंदिर को तोड़ा गया था, उसी वर्ष भीटी रियासत के राजा महताब सिंह, हंसवर रियासत के राजा रणविजय सिंह, रानी जयराज कुंवरि, राजगुरु पं. देवीदीन पांडेय आदि के नेतृत्व में श्रीराम मंदिर की मुक्ति के लिए सैन्य अभियान छेड़ा गया था । मुगल शाही सेना को उन्होंने विचलित तो जरूर किया, पर उसे पार न पा सके थे। बाद में अयोध्या के ही संत बलरामाचार्य, बाबा वैष्णवदास, कुंवर गोपाल सिंह, ठाकुर जगदंबा सिंह आदि ने श्रीराम मंदिर मुक्ति-संग्राम को आगे भी जारी रखा। इन युद्धों में सिखों के दशम गुरु गोविंद सिंह के ‘निहंगों’ ने भी सशस्त्र भाग लिया था और अपनी बलिदानी भी दी थी।
अयोध्या में धार्मिक हिंसा की पहली दर्ज घटना १८५५ में हुईं थी। तब से स्थानीय हिंदू समूहों ने समय-समय पर माँग करती रही कि इस स्थल पर उनका धार्मिक अधिकार होना चाहिए। १९४६ में, ‘हिन्दू महासभा’ की एक शाखा ‘अखिल भारतीय रामायण महासभा’ ने उक्त स्थान पर अपने अधिकार हेतु आंदोलन शुरू कर दिया। समयानुसार श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन भी अपनी गति पकड़ी ही रही।
कई घटना-चक्रों के उपरांत विगत ६ दिसंबर १९९२ को हिन्दू संगठनों ने विवादित उस ‘बाबरी-मस्जिद’ को ध्वस्त कर दिया। फिर अदालती-कानूनी दाव-पेंच के कई चक्र चले। ऐसे में ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ३० सितंबर २०१० को अयोध्या विवाद से संबंधित मुकदमों पर ‘त्रि-भागी’ फैसला सुनाया। अयोध्या भूमि के १/३ ‘हिंदू महासभा’ द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए ‘राम लला’ को, १/३ ‘उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड’ को, और १/३ ‘निर्मोही अखाड़ा’ को देने की बात कही गई थी, जिसे स्वीकार नहीं किया गया।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद, जो कि सुप्रीम कोर्ट में लंबित था, उसका निर्णय पाँच जजों वाली प्रमुख बेंच के मुख्य न्यायाधीश रजंन गोगोई की अध्यक्षता में ९ नवंबर २०१९ को दिया गया । इसके पूर्व के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ‘त्रि-भागी’ फैसले को पलटते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उपयुक्त साक्ष्य के आधार पर ‘शिया वक्फ बोर्ड’ और ‘निर्मोही अखाड़ा’ के अधिकार देने संबंधित याचिका को खारिज कर दिया। तत्पश्चात सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने ५-० से एकमत होकर विवादित स्थल को ‘श्रीराम मंदिर स्थल’ मानते हुए, फैसला श्रीराम लला के पक्ष में सुनाया। इसके अंतर्गत विवादित भूमि को ‘श्री राम जन्मभूमि’ माना गया और मस्जिद के लिए अयोध्या में ही धन्नीपुर में ५ एकड़ ज़मीन देने का आदेश सरकार को दिया। इस प्रकार अब वहाँ पर श्रीराम का भव्य मंदिर का निर्माण पूर्ण निश्चित हो गया। अयोध्या के विवादित स्थल पर सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के अनुसार ‘श्रीराम मंदिर निर्माण ट्रस्ट’ का निर्माण कर श्रीराम जन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर निर्माण हेतु उसका भूमि-पूजन अनुष्ठान विगत ५ अगस्त २०२० को भारत के यशस्वी प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के कर कमलों से किया गया और तत्पश्चात भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण का श्रीगणेश हो गया है । श्रीराम मंदिर निर्माण का कार्य द्रुतगति से प्रगति पर है। भव्य राम मंदिर में भगवान श्री रामलला की प्राण पृष्ठ मंदिर के गर्भ-गृह में २२ जनवरी २०२४ को अभिजीत मुहूर्त मृगषिरा नक्षत्र में दोपहर १२:२० बजे की जाएगी।
श्रीराम मंदिर में श्रीराम लला की प्राण-प्रतिष्ठा से भारत सहित पूरे विश्व भर के सनातनी हिन्दुओं के हृदय में प्रसन्नता की अविरल लहरें हिलोरे मारने लगी हैं। हर किसी को उस पावन घड़ी का बेसब्री से इंतजार है। ऐसी ही अपार प्रसन्नता की लहरें और आत्मसंतुष्टि की भावना अयोध्या से सटे पूरा बाजार ब्लाक और उसके आसपास के १०५ गाँव के क्षत्रिय परिवारों में भी प्रस्फुटित हो रही है। कारण, अब वे करीब ५०० वर्षों के बाद फिर से अपने माथे पर सम्मानीय पगड़ी व छाता धारण करेंगे और अब अपने पैरों में चमड़े के जूते भी पहनेंगे।
उन १०५ गाँव के क्षत्रिय परिवार श्रीराम मंदिर पर हमले के विरोध में पिछले ५०० वर्षों से क्षत्रिय-शानों-शौकत को त्याग कर नंगे सिर और नंगे पाँव रह रहे हैं। उनके पूर्वजों ने १६ वीं सदी में श्रीराम मंदिर को बचाने के लिए तत्कालीन क्षत्रिय प्रमुख ठाकुर गज सिंह के नेतृत्व में मुगलों से कई युद्ध किए थे। पर विशाल मुगल सैनिकों का वे सामना न कर सके और वे पराजित हुए थे। श्रीराम मंदिर को न बचा पाने के विषाद और अपमान बोधता के कारण ठाकुर गजसिंह ने अपने माथे पर से पगड़ी व छाते तथा पैरों से चमड़े के जूते सदा के लिए निकालकर दृढ़ प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक श्रीराम मंदिर मुक्त न हो जाएगा, तब तक न वे स्वयं और न ही उनके कोई भी वंशज अपने माथे पर पगड़ी धारण करेंगे और न ही अपने पैरों में चमड़े के जूते ही धारण करेंगे।
अपने पूर्वज की प्रतिज्ञा को सम्मान देते हुए उनके वंशज विगत ५०० वर्षों से अपने माथे पर न तो पगड़ी, न छाता ही और न पैरों में जूते ही न पहना करते हैं। लेकिन चुकी अब श्रीराम मंदिर का उद्धार हो गया। अब वहाँ पर भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है, तो अब उन १०५ गाँव के क्षत्रिय अपने माथे पर पगड़ी व छाता धारण करेंगे और अपने पैरों में जूते भी पहनेंगे, क्योंकि उनकी प्रतिज्ञा फलीभूत हो गई है। उन गाँवों के घर-घर जाकर और सार्वजनिक सभाओं में क्षत्रिय लोग एक दूसरे को पगड़ियाँ, छाते और जूते बाँट रहे हैं। अयोध्या के अलावे पड़ोसी बस्ती जिले के कुछ गाँव में भी रहने वाले सभी ठाकुर परिवार खुद को भगवान राम का वंशज ही मानते हैं, उनमें भी अद्भुत उत्साह है।
अयोध्या और उसके निकटवर्ती गाँव में करीब डेढ़ लाख सूर्यवंशियों ने अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा का पालन करते हुए शादी या अन्य समारोह में भी अपने माथे पर ‘पगड़ी’ न धारण कर अलग तरीके की ‘मौरी’ को धारण करते रहे हैं, जिसमें सिर खुला रहता है। अपने पैरों में खड़ाऊ ही पहनते हैं। फिर बिना चमड़े वाले जूते-चप्पल आए, तो उन्हें भी वे पहनने लगे हैं, लेकिन चमड़े के जूते उनके द्वारा कभी नहीं पहने गए हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस डी.पी. सिंह भी इस सत्य को गर्वपूर्वक स्वीकार करते हैं।
२२ जनवरी, २०२४ के दिन को ऐतिहासिक बनाने के क्षेत्र में हम सनातनी हिन्दुओं का भी विशेष फर्ज बनाता है। हम सभी बड़े भागी हैं कि हम सभी उस ऐतिहासिक और आध्यात्मिक पल के गवाही बनेंगे। उस महान काल के पल-पल की गतिविधियों को अपने मन-मस्तिष्क में सहेज कर रखना है। आध्यात्मिक और आस्था-विश्वास के आधार पर हमें अवश्य ही अपने अराध्य देव श्रीराम जी का अभिनंदन करना चाहिए। साथ ही साथ श्रीराम जन्मभूमि से जुड़े सभी वीरगति को प्राप्त रामभक्तों को हमें स्मरण करना भी अपेक्षित है।
श्रीराम पुकार शर्मा
लेखक व आलेखकार,
अध्यापक, श्री जैन विद्यालय
हावड़ा
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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