रवीन्द्रनाथ ठाकुर जयंती विशेष : ‘सुंदर स्वर्ग हेतु मैं मरना नहीं चाहता’

“सुंदर स्वर्ग हेतु मैं मरना नहीं चाहता,
मनुष्यों के बीच ही मैं रहना चाहता हूँ।
जीवन-हृदय के बीच स्थान यदि मैं पा सकूँ,
तो इन सूर्य-किरणों, पल्लवित-पुष्पित काननों,
दीन-दुखियों के बीच ही अभी मैं जीना चाहता हूँ।”

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। मानवीय संवेदना युक्त साहित्य, संगीत, चित्रकला आदि की कलात्मकता और प्रगतिशीलता के दिव्य ‘किरण-पुंज’ का यदि विश्व-स्तर पर दर्शन करना चाहे, तो वह बंग-भूमि के शस्य-श्यामल धरा पर अवतरित माँ भारती के वरदपुत्र रवीन्द्रनाथ (रबीन्द्रनाथ) ठाकुर में ही संभव हो सकता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने काल के एक प्रमुख दार्शनिक तथा सांस्कृतिक समाज सुधारक भी थे। वे बंगाल भाषा के मूर्धन्य विभूति थे, जिनमें कवि, उपन्यासकार, संगीतकार, नाटककार, चित्रकार, निबंधकार, गीतकार, गायक, अभिनेता आदि सब कुछ एकाकार हुआ है। वास्तव में वे एक ‘कविगुरु’ के स्वरूप में सिर्फ बंगाल के ही नहीं, वरन सम्पूर्ण भारतीय एवं विश्व संस्कृति के ज्योतिर्मय-स्तम्भ रहे हैं।

उसी के अनुरूप उन्हें ‘गुरुदेव’, कविगुरु और ‘विश्वकवि’ आदि विशेष उपनामों से विभूषित किया गया है। व्यापक विश्व-पटल पर वे एकमात्र ऐसे दिव्य व्यक्तित्व थे, जो दो देशों, यथा – भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक’ और बंगलादेश के राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्लादेश’ के अमर रचनाकार शिल्पी थे। श्रीलंका के राष्ट्रगान ‘श्री लंका माता अप श्री….. लंका नमो, नमो, नमो, नमो माता !’ पर भी रवि बाबू का स्पष्ट प्रभाव है, जिसकी रचना बोलपुर, शांति निकेतन के ही एक प्रबुद्ध छात्र श्री आनंद समाराकून ने सन् 1940 में की थी। गर्व की बात भी है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ही प्रथम गैर-यूरोपीय ‘नोबल पुरस्कार’ विजेता भी रहे हैं।

विश्वकवि व गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म बंगला के ‘पोचीसे बोईशाख’ (पचीसवाँ वैशाख, 1268 बंगाब्द, अंग्रेजी 7 मई 1861) के भोर में 3 बजे कोलकाता के जोड़ासाँको की भव्य जमींदारी हवेली में हुआ था। इनकी माता शारदा देवी एक धर्म परायण महिला थी। उनके पिता देवेंद्र नाथ ठाकुर समाज सुधार में अग्रणीय ‘ब्रह्म समाज’ के एक वरिष्ठ नेता थे और सादा जीवन, उच्च विचार वाले बंगाल के एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व थे। रवीन्द्रनाथ अपने माता-पिता के चौदहवीं संतान और आठवें पुत्र थे। बचपन में सभी उन्‍हें प्‍यार से ‘रबी’ कहकर बुलाया करते थे। बचपन में ही उनकी माता की मृत्यु हो गई थी। उनके पिता व्यापक रूप से यात्रा करने वाले व्यक्ति थे, जिस कारण ‘रबी’ का पालन-पोषण जमींदारी प्रथा के अनुकूल नौकरों के कठोर अनुशासन में ही हुआ था।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का परिवार प्रगतिशील विचारधारा से युक्त पूर्णरूपेन शिक्षितों का था। इनके सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ एक विख्यात दार्शनिक और कवि थे। दूसरे भाई सत्येंद्रनाथ कुलीन और यूरोपीय सिविल सेवा के लिए प्रथम भारतीय नियुक्त व्यक्ति थे। एक भाई ज्योतिरिंद्रनाथ प्रसिद्ध संगीतकार और नाटककार थे। इनकी बहन स्वर्ण कुमारी एक उपन्यासकार थीं। इनके पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर ने कई पेशेवर ध्रुपद संगीतकारों को अपने घर में रहने और बच्चों को भारतीय शास्त्रीय संगीत पढ़ाने के लिए नियोजित कर रखा था। शिक्षित और सुसंस्कृत परिजनों का सुप्रभाव ‘रबी’ बाबू पर उनके शैशवकाल से ही पड़ता रहा। फलतः वे स्वयं भी बचपन से ही बड़े ही कुशाग्र बुद्धि के बालक थे।

रवींद्रनाथ की प्रारंभिक शिक्षा घरेलू वातावरण 1864 से होती हुई वर्तमान कोलकाता के प्रसिद्ध ‘सेंट जेवियर स्कूल’ में हुई थी। चुकी उनके पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर चाहते थे कि रवीन्द्रनाथ बड़ा होकर बैरिस्टर बने। अतः 1878 में उन्होंने रबी बाबू को बैरिस्टर बनाने की इच्छा से इंग्लैंड के ‘ब्राइटन पब्लिक स्कूल’ में नाम लिखवाया। बाद में उन्होंने ‘लन्दन विश्वविद्यालय’ में भी कानून का अध्ययन किया। परंतु रबी बाबू का मन वहाँ न लगा और 1880 में वे बिना डिग्री लिए ही वापस बंगाल लौट आए। 9 दिसंबर, 1883 को रबी बाबू का विवाह जेसोर जिले (वर्तमान बांग्लादेश) के बेनीमाधव रायचौधुरी की कन्या भवतरिणी देवी के साथ हुआ। विवाह के उपरांत उनका नाम ‘मृणालिनी देवी’ कर दिया गया था।

ग्यारह वर्ष की आयु में ‘रबी’ बाबू का उपनयन संस्कार हुआ था। बाद में फरवरी 1873 में वे अपने पिता के साथ कई महीनों के लिए भारत भ्रमण हेतु यात्रा पर निकल गए। इसी क्रम में अमृतसर में अपने एक महीने के प्रवास के काल में पिता-पुत्र लगभग प्रतिदिन ही स्वर्ण मंदिर में जाया करते थे। स्वर्ण मंदिर में सुप्रभात की ‘गुरुवाणी’ और ‘नानक वाणी’ से ‘रबी’ बाबू बहुत प्रभावित हुए थे।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर को बचपन से ही प्रकृति की सानिध्यता काफी पसंद थी। कभी-कभी अपनी जमींदारी के सियालदा क्षेत्र में नाव लिए बीच नदी में बने टापू पर चल जाया करते थे। फिर वहाँ घंटों निर्जन मौन प्रकृति को एकटक निहारते रहते और कलरव करते विभिन्न प्रकार के पक्षियों के साथ अपना आत्मीय संबंध स्थापित करने में तल्लीन रहा करते थे। यही तल्लीनता उन्हें मनुष्य, मनुष्यतेर प्राणी और पर्यावरण के लिए एक गंभीर चिंतक बना दी। उनका मानना था कि छात्रों को प्रकृति से दूर नहीं, बल्कि प्रकृति की सानिध्यता में ही वास्तविक और व्यवहारिक शिक्षा दी जा सकती है। अपने इन्हीं विचारों को मूर्त स्वरूप प्रदान करने के लिए ही उन्होंने 1921 में बीरभूम जिला में बोलपुर के निकट ‘शांति निकेतन’ की स्थापना की, जो कालांतर में विश्व शिक्षा का प्रमुख केंद्र बना और वह आज भी प्रमुख ही बना हुआ है।

बचपन से ही रवीन्द्रनाथ को माँ वाग्देवी का आशीर्वाद प्राप्त था। बचपन से ही बालक ‘रबी’ का भी झुकाव कविता, छन्द और कहानियाँ लिखने की ओर था। उन्होंने अपनी पहली कविता मात्र 8 वर्ष की अवस्था में लिखी थी। प्रारंभ में उन्होंने ‘भानु सिन्हा’ के छद्म नाम से अपनी कविताओं का प्रकाशन किया था। फिर 1877 में जब वह 16 वर्ष के हुए, तब उनकी पहली लघुकथा ‘भिखारिणी’ और एक छोटी कविता संग्रह ‘संध्या संघ’ प्रकाशित हो गई थी। इसके बाद तो साहित्य के विविध क्षेत्र उनके लिए साहित्यिक कर्म के मैदान बन गए, जिसमें उनकी कलम विविध विधाओं को नित सृजन करने लगी। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई उपन्यास, निबंध, लघु कथाएँ, यात्रावृन्त, नाटक और सहस्रो गाने लिखा है। परंतु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सबसे ज्यादा अपनी कविताओं के लिए प्रसिद्ध हुए हैं। उन्होंने इतिहास, भाषाविज्ञान और आध्यात्मिकता से संबंधित कई पुस्तकों की रचना की है। वे सब के सब अपने आप में उत्कृष्ट स्वरूप को प्राप्त की हैं।

सरस्वती नंदन रवींद्रनाथ का रचना-संसार आकाश की तरह सीमाहीन है, सागर की तरह अनंत गहरा है। जीवन जगत का शायद ही कोई पहलू रहा हो, जो उनकी सूक्ष्म दृष्टि से ओझिल हो पाया हो। फिर बच्चे, जवान, स्त्री, वृद्ध सबके लिए उन्होंने सरल छड़ा (तुकबंदी) किया है। जिनकी गिनती करना मूर्खता ही होगी। रवींद्र-साहित्य की प्रतिच्छया विविध भारतीय साहित्यों पर पड़ी है। इस प्रकार देखा जाए तो, कवीन्द्र रवींद्र भारतीय साहित्य के शिखर गुरु हैं। रवींद्र-साहित्य केवल शब्दार्थ, साहित्य-प्रतिमानों की रमणीयता का ही कोरा प्रदर्शन भर नहीं है, बल्कि मानवता के लिए किया गया शब्द-संयोजन है, जिसमें विश्व जन को जीने की राह दिखाने का असीम बल निहित है।

तत्कालीन बंगला साहित्य को श्रीवृद्धि करने के साथ ही साथ कवीन्द्र रवींद्र ने संगीत और नृत्य साधना तथा चित्रकला को अपनी जादुई स्पर्श से समाज में शीर्ष स्थान पर स्थापित किया है। आज बंगाल का हर घर-आँगन ही रवींद्र-संगीत, रवींद्र-नृत्य और चित्र-कला का आखड़ा बना हुआ है। ऐसा शायद ही कोई बंगाली परिवार होगा, जो रवींद्र-संगीत-नृत्य-कला से अनभिज्ञ हो। आज रवींद्र-संगीत बंगाल की संस्कृति सहित भारतीय संस्कृति की विशेष पहचान बनी हुई है। यह सब कवीन्द्र के प्रयासों से ही संभव हो पाया है।

साहित्य के क्षेत्र में अग्रणीय रहने के साथ ही साथ रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने गुलाम देश की मुक्ति के लिए संघर्षरत्त सेनानियों का साथ देते हुए अपने देश-प्रेम का परिचय दिया है। 16 अक्टूबर 1905 को ब्रिटिश सरकार ने तत्कालीन बंगाल को सांप्रदायिकता के आधार पर दो भागों में बाँट दिया था, जिससे पूरे देश में ही भयानक जन आक्रोश और आंदोलन उत्पन्न हुए थे। कवीन्द्र भी ‘बंग-भंग’ के विरूद्ध स्वतंत्रता सेनानियों के साथ आंदोलन में उतर पड़े। उनके नेतृत्व में कोलकाता (कलकत्ता) में हजारों लोग आपसी एकता का प्रदर्शन करते हुए परस्पर ‘रक्षा-बंधन’ उत्सव का पालन किया।

फिर ‘स्वदेशी-आंदोलन’ और वहिष्कार-आंदोलन’ ने तो अंग्रेज सरकार की अर्थ नीति को डवाडोल कर दिया । जिससे घबराकर ब्रिटिश सरकार ने 1911 में अपनी ‘बंग-भंग’ नीति को रद्द कर दी। उन्होंने एक बार महात्मा गाँधी जी को पत्र लिखकर कहा था, – ‘स्वाधीनता की महान भेंट जनता को दान में नहीं मिल सकती है। हमको इसे प्राप्त करने के लिए इसे जितना होगा और यह अवसर तब आएगा, जब हम भारतीय सिद्ध कर देंगे कि हम अंग्रेजों से श्रेष्ठतर हैं।’

कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी मातृभूमि की वंदना करते हुए बंगला भाषा में ‘जन गण मन अधिनायक जय हो’ गीत की रचना की, जिसे 27 दिसंबर 1911 को पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) अधिवेशन में उनकी भांजी सरला स्‍कूली बच्‍चों के साथ इसे बंगाली और हिंदी में गाई थी। स्वयं उन्होंने ही इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘दि मॉर्निंग सांग ऑफ इंडिया’ शीर्षक से 1919 में किया था। बाद में इसका हिन्दी में अनुवाद भी किया गया। जब हमारा देश आजाद हुआ, तब संविधान सभा ने 24 जनवरी, 1950 को ‘जन गण मन अधिनायक जय हो’ को भारत के राष्ट्रगान के रूप में सादर स्वीकार कर लिया। इसके अलावा उन्होंने ‘आमार सोनार बांग्ला’ नामक गीत की रचना की थी, जिसे 1971 में बांग्लादेश ने अपने राष्ट्रीय गान के रूप में अपनाया लिया।

जीवन के लगभग अर्धशतक वर्षों तक कवीन्द्र रवीन्द्र की सारी उप‍लब्धियाँ कोलकाता व उसके आसपास तथा कुछ स्तर पर पास के सीमावर्तीय राज्यों तक सीमित रहीं। पर 51 वर्ष की उम्र में 1912 में वे अपने पुत्र के साथ समुद्री मार्ग से इंग्‍लैंड जा रहे रहे थे। इसी समुद्री यात्रा के दौरान उन्‍होंने अपनी 125 अप्रकाशित तथा 32 पूर्व के संकलनों में प्रकाशित गीतों को मिलाकर कुल 157 गीतों का संग्रह ‘गीतांजलि’ के नाम से संकलित किया। इसका अंग्रेजी में स्वयं अनुवाद “गीतांजलि: सॉन्ग ऑफ रिंगस” नाम से किया, जो 1 नवंबर 1912 को ‘इंडियन सोसायटी ऑफ़ लंदन’ द्वारा प्रकाशित हुआ। इसे उनके परिचित मित्र और सुप्रसिद्ध चित्रकार विलियम रोथेन्स्टाइन के रेखाचित्रों से सुसज्जित किया गया।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि वाई.वी. येट्स ने इसकी भूमिका लिखी। मार्च, 1913 में ‘मैकमिलन पब्लिकेशन’ ने इसे प्रकाशित और यूरोप सहित कई पश्चिमी देशों में इसे प्रचारित किया। तत्पश्चात गीतों की इस छोटी-सी रचना ‘गीतांजलि’ ने साहित्य संसार के विद्वजनों को अपनी ओर आकृष्ट किया। फिर कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर को सन् १९१३ में विश्व साहित्य का सर्वोच्च ‘नोबल पुरस्कार’ से सम्मानित करते हुए प्रथम बार एक भारतीय भाषा को सम्मानित किया। अब वे ‘विश्वकवि’ के शीर्षासन पर आसीन हो गए। फलतः १९१५ में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को ब्रिटिश राजा जॉर्ज पंचम की ओर से ब्रिटिश सरकार ने ‘नाइटहुड’ यानि ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया। उन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से बहुत कुछ अतिरिक्त सुख-सुविधा व अधिकार प्रदान किए गए थे।

सत्तर वर्ष की ढलती आयु में कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने हाथों में ब्रुश पकड़कर एक कुशल चित्रकार होने का भी परिचय दिया। मई 1930 में उनकी पहली चित्र प्रदर्शनी पेरिस में लगी, जिसमें विश्व-स्तर के कलाकारों, कला मर्मज्ञों और कला समालोचकों को उन्होंने अपने चित्रकारी से चमकृत कर दिया। पाश्चात्य कला विद्वानों-मर्मज्ञों ने उनके चित्रों के आधार पर उन्हें ‘कला-क्षेत्र में नवीन धारा का प्रवर्तक’ घोषित किया था।

विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा था। महात्मा गाँधी जी राष्ट्रवाद को अधिक महत्व दिया करते थे, वहीं विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर मानवता को अधिक महत्व दिया करते थे। लेकिन दोनों में एक दूसरे के प्रति असीम सम्मान-भाव थे। जब महात्मा गाँधी जी 1915 में शांति-निकेतन आए थे। तब कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गाँधी जी को ‘महात्मा’ शब्द कहकर विभूषित किया, तो गाँधी जी ने भी तत्काल रवीन्द्रनाथ ठाकुर को ‘गुरुदेव’ कहकर संबोधित किया। दोनों आदरसूचक संबोधन शब्द आज जगत भर में एक-दूसरे के परिचायक बन गए हैं।

लेकिन देश और देशवासियों के प्रति अपनी जिम्मेवारी का प्रदर्शन करते हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 13 अप्रैल 1919 में पंजाब के अमृतसर के जलियांवाला बाग के नरसंहार की घोर नींद की और अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रदत्त ‘नाइटहुड’ की उपाधि को लौटा दिया। स्वयं को पीड़ित भारतीयों के साथ रहने में ही उन्होंने सुख और गर्व को महसूस किया।

माँ वाग्देवी के अमर यशस्वी पुत्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी अमूल्य प्रचुर साहित्यिक सम्पति हमें प्रदान कर 7 अगस्त 1941 (22 श्रावण, 1348 बंगाब्द) को अपने नश्वर शरीर को त्याग कर माँ सरस्वती की गोद में सदा के लिए सो गए। उनकी पावन जयंती पर हम उन्हें शत-शत नमन करते हैं।

रवीन्द्र जयंती, (9 मई, 2023)

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101, (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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