कोलकता और हावड़ा की शान, मैं हावड़ा पुल हूँ

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। मैं देश भर में प्रसिद्ध ‘प्रलम्बित बाहुधरण (Suspension type Cantilever Bridge) सेतु ‘हावड़ा पुल’ हूँ। मैं कोलकाता सहित पश्चिम बंगाल के साथ ही भारत का गौरवमय प्रतीक हूँ।’ कोलकाता का उल्लेख होते ही सबसे पहले मेरा ही चित्र हर किसी के मन-मस्तिष्क में उभरता है। लोग मुझे ‘कोलकाता शहर का प्रवेश द्वार’ भी कहते हैं, क्योंकि मैं अकेला ही विगत कई दशकों से शेष भारत को ‘हावड़ा रेलवे स्टेशन’ के मार्फत कोलकाता को जोड़े रखा हूँ। कोलकाता भ्रमणकारी आगत अतिथियों में मेरा स्थान सर्वोपरि है। आज भी मेरे दर्शन तथा मेरी करीबी के बिना किसी भी आगंतुक का कोलकाता प्रवास या भ्रमण अधूरा ही रह जाता है।

अक्सर आप जैसे कोलकतिया प्रवासी लोगों से पूछा जाता ही होगा कि ‘हावड़ा पुल’ में कितने ‘नट’-‘बोल्ट’ या ‘वेल्डिंग’ का प्रयोग हुआ है? ऐसे प्रश्न पूछा जाना कोई अप्रासंगिक नहीं है, क्योंकि अधिकांश वृहत लौह-निर्मित पुलों में सैकड़ों टन ‘नट’-‘बोल्ट’ और ‘वेल्डिंग’ का प्रयोग होना आम बात है । परंतु विशेष गौर करने की बात यह है कि मुझमें में एक भी ‘नट’-‘बोल्ट’ या फिर ‘वेल्डिंग’ का प्रयोग नहीं हुआ है। मुझमें प्रयुक्त वृहद और दीर्घ लोह-खण्डों को परस्पर जोड़ने के लिए केवल ‘खूँटे’ (रिवेट) का ही प्रयोग किया गया है।

मैं श्री चैतन्य महाप्रभु, श्री रामकृष्ण परमहंस, बामा खेपा, स्वामी विवेकानंद की पावन आध्यात्मिक शस्य श्यामल धरती, शहीद खुदीराम बोस और प्रफुलचंद्र चाकी जैसे देशभक्तों की वीरांगना धरती, राजा राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महर्षि अरविन्द घोष, बँकिंचन्द्र चटर्जी की सरस्वती उष्मित पावन भूमि से सम्बद्ध रहने के कारण गर्व महसूस करता हूँ। मनिषियों की पावन भूमि को मैं शत् कोटि नमन करता हूँ।

मैं अपने पूर्ण निर्माण के उपरांत स्कॉटलैंड के ‘फ़ोर्थ ब्रिज (521 मीटर) और कनाडा के ‘कबेक ब्रिज (549 मीटर) के बाद ही विश्व का तीसरा (457.2 मीटर) सबसे लंबा एक ‘प्रलम्बित बाहुधरण सेतु’ (कैंटिलीवर पुल) के रूप में प्रतिष्ठित था, जिस कारण प्रारंभ से ही मैं स्वदेशी और विदेशी पर्यटकों के लिए निरंतर आकर्षण का केंद्र बना रहा हूँ। लेकिन बाद में विश्व में कई अन्य लंबे ‘कैंटीलीवर पुलों’ के निर्माण हो जाने के कारण अब मैं दुनिया का आठवाँ लंबा ‘कैंटिलीवर पुल’ हूँ। वैसे तो मैं प्रारम्भ में ‘नया हावड़ा पुल’ के नाम से विख्यात था, परंतु 14 जून, 1961 को भारत के प्रथम नोबल पुरुस्कार विजेता विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को समर्पित करते हुए ‘रवींद्र सेतु’ के रूप में मेरा पुनः नामकरण किया गया। ‘गुरुदेव’ के नाम के साथ जुड़ना मेरे लिए गौरव की ही बात है। किन्तु अब भी साधारण लोगों में मैं ‘हावड़ा पुल’ ही हूँ। परंतु मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है। नाम तो विषय-वस्तु की पहचान हेतु सम्बोधन मात्र ही होता है, महत्व तो उसके व्यक्तित्व और काम को ही दिया जाता है।

फोटो सौजन्य : गुगल

लेकिन लोगों की निगाह में मेरा स्वरूप बड़ा ही विचित्र है। सामान्यतः प्रत्येक पुल के नीचे कई मजबूत खंभे होते हैं, जिन पर वह आधारित और स्थिर रहता है, परंतु हुगली नदी के करीब पौने किलोमीटर दूर दोनों किनारों पर मेरे भार को संतुलित किए हुए मेरे दोनों फौलादी अंगदी पैर मजबूती से जमें हुए हैं। जब मेरी उत्पति की कल्पना की गई थी, तब ही यह निश्चय किया गया था कि मेरे नीचे से हुगली नदी में पानी के बड़े-बड़े जहाज और नाव बिना किसी अवरोध के ही सुगमतापूर्वक आवागमन कर सकें। मेरे हजारों टन वजनी इस्पात के गर्डरों के ढांचे को मेरे दोनों फौलादी पैरों ने कुछ इस तरह से संतुलित कर मुझे हवा में टिका रखे हैं कि विगत आठ दशकों से भी अधिक वर्षों में मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ा है, जबकि प्रतिदिन लाखों की संख्या में भारी वाहन और पैदल यात्री मुझ पर से पारा पार आवागमन करते ही रहते हैं।

अब चलिए मैं अपने जन्म-निर्माण संबंधित कुछ विशेष बातों को आपसे साझा करता हूँ, जिसे पुराने कागजातों तथा जनश्रुतियों से भी जाना और सुना जा सकता है। बहुत पहले हावड़ा और कोलकता के बीच आवगमन हेतु हुगली नदी को पार करने के लिए कोई स्थायी पुल तो न था, बल्कि तब केवल नावें ही हुगली नदी को पार करने के एकमात्र साधन हुआ करती थीं। धीरे-धीरे कोलकता को पूर्वी भारत का प्रमुख वाणिज्य और प्रशासनिक केंद्र के रूप में उभरने पर इसकी आबादी भी दिन दुगनी और रात चौगुनी बढ़ने लगी। फिर ‘ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी’ द्वारा हावड़ा रेलवे स्टेशन की स्थापना हो जाने के कारण हावड़ा और कोलकाता को परस्पर यातायात के रूप में जोड़ने की आवश्यकता प्रशासन को महसूस होने लगी।

वर्ष 1862 में ‘ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी’ के तत्कालीन मुख्य अभियंता जॉर्ज टर्नबुल को तत्कालीन बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सेसिल बीडॉन ने हुगली नदी पर हावड़ा रेलवे स्टेशन के बहुत करीब ही एक पुल निर्माण हेतु विशेष जाँच-अध्ययन करने के लिए कहा था। समयानुसार व्यापक जाँच और अध्ययन के उपरांत तत्कालीन मुख्य अभियंता जॉर्ज टर्नबुल तथा अन्य कई स्रोतों के द्वारा कई प्रकार के पुलों के निर्माण का सुझाव दिया गया था।

जिसे केंद्र कर सन् 1870 में ‘कलकत्ता पोर्ट ट्रस्ट’ की स्थापना हुई और सन् 1871 में ही ‘हावड़ा ब्रिज एक्ट’ बना कर उसे नए पुल का निर्माण और उसका उपयुक्त रख-रखाव का काम सौंपा दिया गया। वर्ष 1874 में 22 लाख रुपए की लागत से हुगली नदी पर पीपे का 465.7 मीटर लंबा और 19 मीटर चौड़ा और उसके दोनों ओर 2.1 मीटर चौड़े फुटपाथ युक्त एक ‘पोंटून ब्रिज’ बनाया गया। इसे 17 अक्टूबर 1874 को यातायात के लिए खोला दिया गया था। स्टीमर और अन्य जल परिवहन के आवागमन के लिए इस पुल को समय-समय पर बीच से खोल दिया जाया करता था। परंतु इस ‘पोंटून ब्रिज’ के साथ एक समस्या थी, यह पुल खराब मौसम और हुगली में आने वाले ‘बान’ (Tidal Bore) के चोटों और बढ़ती यातायात के दबाव को सहने में विफल साबित हो रहा था अतः इसके निर्माण के लगभग छः दशक के पहले ही एक अन्य मजबूत पुल की प्रशासनिक आवश्यकता महसूस होने लगी थी।

ऐसे में उस पीपे के ‘पोंटून ब्रिज’ पर से भार को कम करने के उद्देश्य से ही एक अन्य विकल्प के रूप में उस के साथ ही एक अन्य ‘फ्लोटिंग ब्रिज’ बनाने का निर्णय लिया गया। इसके लिए डिजाइन भी बना लिये गए थे और निर्माण के लिए निविदाएँ भी मँगवा ली गई थीं। पर बहुत दिनों तक इस योजना पर कोई काम नहीं हो पाया। फिर इसी बीच प्रथम विश्वयुद्ध भी छिड़ गया। नतीजन ‘फ्लोटिंग ब्रिज’ बनाने की योजना कागजों में ही धरी की धरी ही रह गई।

फोटो सौजन्य : गुगल

लेकिन सन् 1917 में फिर से उस प्रकल्पित ‘फ्लोटिंग ब्रिज’ पर काम् शुरू हुआ। सन् 1921 में, सर आर.एन. मुखर्जी के नेतृत्व में ब्रिज के निर्माण क्रिया को देख-रेख के लिए ‘मुखर्जी समिति’ गठित की गई। इस टीम ने निर्माणाधीन ब्रिज के सर्वेक्षण हेतु सिविल इंजीनियर सर बेसिल मॉट को भेजा। उन्होंने ‘फ़्लोटिंग ब्रिज’ के स्थान पर ‘सिंगल स्पैन आर्च ब्रिज’ बनाने का सुझाव दे दिया। सन् 1922 में, ‘मुखर्जी समिति’ ने अपनी रिपोर्ट ‘न्यू हावड़ा ब्रिज कमीशन’ को सौंप दी। सन् 1926 में ‘न्यू हावड़ा ब्रिज कमीशन’ ने उस पीपे के पुल के स्थान पर एक अन्य भव्य पुल निर्माण की सिफारिश करते हुए उसके लिए भूमि अधिग्रहण और रख-रखाव के लिए ‘कर’ लगाने संबंधित कुछ नए कानून बनाए। उसे ‘हावड़ा ब्रिज एक्ट’ का नाम दिया गया।

फिर सन् 1930 में हावड़ा और कलकत्ता के बीच एक नए पुल के निर्माण की व्यवहार्यता को देखने के लिए एक और टीम, ‘गूड समिति’ का गठन किया गया। इसके मुख्य ड्राफ्ट्समैन ने एक ‘निलंबन कैंटरलीवर पुल’ (Suspension Cantilever Bridge) का डिजाइन किया, जिसे ‘गूड समिति’ ने स्वीकार कर लिया। उसके निर्माण संबंधित वैश्विक निविदाएँ मँगवाई गई। रेंडेल, पामर और ट्रिटन, वाल्टन ब्रिटिश कंपनी, क्लीवलैंड ब्रिज एंड इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड आदि ने अनुबंध में भाग लिये थे। लेकिन सबसे कम बोली एक जर्मन कंपनी की थी, परंतु उस समय जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन के बीच बढ़ती दुश्मनी के कारण उससे अनुबंध नहीं किया गया। अंततः नये पुल निर्माण करने का विराट काम को इंग्लैंड के ‘ब्रेथवेट’ और ‘बर्न एंड जोसेप कंस्ट्रक्शन कंपनी’ को सौंपा दिया गया और फिर सन् 1936 में मेरे जन्म संबंधित नींव पड़ने के साथ ही मेरे गगनचुंबी अप्रतिम विराट स्वरूप का निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया।

फिर क्या था? मैं दो मजबूत किनारों के पायों पर झूलता हुआ एक विराट ‘निलंबन कैंटरलीवर पुल’ के अस्तित्व के रूप में क्रमशः विकसित होने लगा। उस समय मुझे बनाने के लिए साढ़े छबीस हजार टन विशुद्ध स्टील की आवश्यकता थी, जो विश्व युद्ध की भयानक छाया में प्राप्त करना बहुत ही कठिन था। इंग्लॅण्ड की एक कम्पनी मात्र तीन हजार टन स्टील की आपूर्ति कर पाने में सक्षम थी। जबकि बाकी के साढ़े तेइस हजार टन बेहतरीन किस्म के स्टील की आपूर्ति भारतीय ‘टाटा स्टील कम्पनी’ ने ‘टिस्कॉम’ के रूप में उच्च तनाव वाला स्टील विकसित कर की। इस प्रकार स्वदेशी स्टील की फौलादी काया के बदौलत ही विगत अस्सी वर्षों से मैं विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं को सहन करते हए आज भी अपनी फौलादी तन के साथ मैं शान से खड़ा हूँ।

मुझे संतुलित रखने और दोनों तटों पर आधारित मेरे फौलादी पैरों को मजबूत संबल देने के लिए 16.4 मीटर × 8.2 मीटर × 26.5 मीटर के लंगर-कोष्ठकों को बहुत ही सावधानी के साथ कंक्रीट से दृढ़ किया गया है, जिससे कि नदी के किनारे की पोली मिट्टी पर मेरे 26,500 टन वजनी इस्पात के ढाँचे से और मुझ पर से निरंतर गुजरने वाले यान-वाहनों के हजारों टन के भार से मेरे मजबूत पायों को धँसान से रोका जा सके। मेरा सम्पूर्ण भार ही हुगली नदी के दोनों किनारों पर बने 88 मीटर ऊँचे मेरे दोनों मजबूत जंघाओं पर लटकते हुए टिका हुआ है। मेरी लंबाई 705 मीटर और चौड़ाई 21.6 मीटर है। जल सतह पर मेरे दोनों पायों के बीच की दूरी 457.2 मीटर है। पुल के दोनों ओर मेरी 99 मीटर लम्बी लंगर-भुजाएँ हैं तथा दोनों बाहुधरणों में प्रत्येक की लम्बाई 143 मीटर है, जो 172 मीटर लम्बे मध्यखण्ड को जोड़ते हैं। लंगर-भुजाएँ मेरे आधार स्तम्भों को सन्तुलित बनाए रखती हैं। इस प्रकार मैं एक अद्वितीय संरचनात्मक धातु निर्मित पुल हूँ।

अंततः द्वितीय विश्व युद्ध के डर की साये में रह कर मुझ जैसे नायाब पुल को पूरे चार वर्षों में पूर्ण कर लिया गया। वह भी महायुद्ध के डरावनी वर्षों के दौरान, जब मानवीय कार्य-शक्ति व स्टील सामग्रियों दोनों की आपूर्ति बहुत ही कठिन कार्य था। शहर के भीतर भी कड़ाई से लागू ‘ब्‍लैक आउट’ के बावजूद मेरे निर्माण कार्य 24 घंटे चलते रहे थे। मेरे निर्माण के दौरान कोलकत्ता की स्वामिनी कालीघाट की ‘माँ काली’ की अनुकंपा मुझ पर बराबर रही। उनके आशीर्वाद से मेरे निर्माण काल में कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई थी। इस प्रकार 1942 में मैं पूर्णरूपेण तैयार हो गया। उस समय मेरे निर्माण कार्य में लगभग 25 मिलियन भारतीय रुपये खर्च हुए थे।

मेरी सबसे बड़ी विशेषता, मेरे निर्माण में स्टील के प्लेटों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए नट-बोल्ट-वैल्डिंग की जगह धातु की ही बनी केवल ‘कीलों’ (रिवेट्स) का ही इस्तेमाल है । परंतु शायद मेरी फौलादी शक्ति की परीक्षा होनी अभी बाकी ही थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जहाँ-तहाँ जापानी बमबारी हो रहे थे, उससे मैं भी अछूता न रहा। जापानी सेना द्वारा मुझे नष्ट करने के लिए मुझ पर दिसंबर 1942 में भारी बमबारी भी की गई थी। लेकिन मेरी स्वदेशी विशुद्ध स्टील निर्मित फौलादी संरचना ने उन शक्तिशाली बम के आघातों को बिना विचलित हुए शांत सहन कर ली। परंतु इसी बमबारी के डर के कारण मेरे तैयार हो जाने के बाद भी मेरे अंग्रेज आकाओं ने मुझे यान-वाहनों और जनता-जनार्दन से दूर ही रखा गया, क्योंकि वे जापानी सेना द्वारा 1941 में पर्ल हार्बर पर हुए हामले का हश्र देख चूके थे। उससे वे डरे और सहमें हुए थे।

मेरे उद्घाटन समारोह पर भी जापानी हमले का खतरा बना हुआ था। इसलिए तय हुआ कि मेरे उद्घाटन हेतु कोई समारोह का आयोजन नहीं किया जाएगा। फिर विश्व युद्ध की भयानक डरावनी छाया में बिना किसी औपचारिक उद्घाटन के ही 3 फरवरी, 1943 को एक ट्रामगाड़ी को मुझ पर से चलाकर मुझे जनता के लिए खोल दिया गया था। फिर तो मुझ पर प्रतिदिन ही हजारों की संख्या में गाड़ियाँ और पैदल यात्रीगण आवागमन करने लगे। इस प्रकार मैं दुनिया का एक अजूबा संरचना होने के बावजूद भी आज तक मेरा कोई औपचारिक उद्घाटन नहीं हुआ है।

लगभग पचास वर्षों के बाद वर्ष 1993 में मेरे ऊपर बढ़ती ट्रैफिक और ट्राम के मंथर आवागमन तथा उससे उत्पन्न कम्पन से सम्भावित खतरे से बचाने के लिए मेरे ऊपर से ट्रामों की आवाजाही को सर्वदा के लिए बंद कर दी गई। आज भी मेरे ऊपर से प्रतिदिन लगभग सवा लाख वाहन औऱ पाँच लाख से भी ज्यादा पैदल यात्री गुजरते हैं।

वर्तमान में श्यामा प्रसाद मुखर्जी पोर्ट ट्रस्ट (कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट) द्वारा मेरे रख-रखाव संबंधित सभी कार्य संचालित किये जाते हैं। मेरा सबसे ज्यादा नुकसान और क्षरण पक्षियों की विष्ठा (मल) और मानव का ष्ठीव (थूक) के कारण होता रहा है। इससे मेरे विविध अंग-प्रत्यांगों में जंग लग जाते हैं, जो मुझे कमजोर कर देते हैं। इसके लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी पोर्ट ट्रस्ट (कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट) को मेरी सफाई के लिए प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख रूपये से भी अधिक खर्च करने पड़ते है। साथ ही मुझे सर्वांग रंग-रोगन करने के लिए लगभग 26,500 लीटर रंग की आवश्यकता होती है।

मैं पिछले आठ दशकों से हुगली नदी पर गर्व से खड़ा बंगाल और बाद में पश्चिम बंगाल के इतिहास, आध्यात्म, राजनीति, कला, सस्कृति, साहित्य, सिनेमा आदि की साक्षी रहा हूँ। मैंने द्वितीय विश्व युद्ध के भयानक बमबारी को देखा और झेला है। यहीं पर खड़ा रहकर मैंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के स्वदेशी गंभीर उद्वेगों को सुना और उसके बाद के लगभग सभी राष्ट्रीय आंदोलनों को मैंने अपनी विहंगम दृष्टि से देखा है। जिसमें स्वतंत्र्यवीर और तमलुक के मातंगिनी हाजरा को अपने हाथ में तिरंगा लिये अंग्रेज की गोली से आहत होकर मातृभूमि की गोद में गिरते और वीरगति को प्राप्त करते हुए देखा है। तमलुक के नौजवान देशभक्त रामचन्द्र बेरा, सतीश चंद्र सामंतों, सुशील कुमार धारा, अजय मुखर्जी आदि को भी आंग्रेजों के विरूद्ध लड़ते और तमलुक में ‘राष्ट्रीय सरकार’ के निर्माण को भी मैंने यहीं खड़े-खड़े देखा है। रास बिहारी बोस, सुभाष चंद्र बोस तथा उनके ‘आजाद हिन्द फौज’ के सिंगापूर के हॉल में गुंजित ‘दिल्ली चलो’, ‘जय हिन्द’ और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ संबंधित बुलंद अनुगूँज को मैं हावड़ा-कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में खड़े सुना था। मैं भी उनकी आवाज में अपनी आवाज मिलाते हुए गर्व से कहता रहा, – ‘जय हिन्द! वन्दे मातरम!’

मैंने देखा, स्वतंत्रता प्रेमियों पर अंग्रेजों का अमानवीय जुल्म और उनकी गोलियों से हताहत अनगिनत देशभक्तों को, जो भारत माता की गोद में सदा के लिए ‘लिये बिना गर्दन का मोल’ सो गए। मैं यहीं से खड़े-खड़े कलकता की सड़कों पर श्री अरविन्द घोष, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, रासबिहारी बोस, सरोजनी नायडू आदि को ‘वन्देमातरम’ का गंभीर उद्घोष करते हुए देखा है। फिर मैंने1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बंगाली बुद्धिजीवियों द्वारा अंग्रेजों के विरूद्ध आन्दोलन करते और पुलिस की बरसती लाठियाँ को अपने माथे और अपने सीने पर झेलते हुए देखा है। मैंने विराट शस्य-श्यामल बंगाल की भू-भाग पर बटवारे की क्रूर रक्तरंजित ‘रेडकलिफ़ रेखा’ को खींचते हुए भी देखा, जिसकी पैनी धार में हजारों को कटते और मरते हुए भी देखा है। कैसे हिंदू-बहुल पश्चिमी हिस्से को भारतीय राज्य ‘पश्चिम बंगाल’ बनते ही आपसी हिंसा-रंजिश और भयानक रक्तपात ने अपने गिरफ्त में ले लिया था और मानवता लगातार शर्मसार होती रही थी। मैं स्थिर-गंभीर खड़ा लोगों की उस नादानियों पर आँसू बहाते रह गया था। चाहकर भी कुछ न कर सका था। मेरी मौन-मूक वेदना को वे उन्मादी भला क्या समझ पाते?

राष्ट्रपिता गाँधी जी देश की आजादी के जश्न से दूर इसी कलकता में अनशन कर उस भयानक सांप्रदायिक रक्तपात को रोकने की कोशिश करते दिखाई दिए थे। फिर मैंने देखा, सन् 1950 में, कूचबिहार के राजा जगदीपेंद्र नारायण को पश्चिम बंगाल के साथ विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करते। तत्पश्चात स्वतंत्र भारत के चतुर्दिक नव-निर्माण अभियान को मैं देख-देख कर हर्षित होता रहा, क्योंकि मेरे जिस्म में भी तो ‘भारतीय हृदय’ ही रहा है और मेरे मस्तिष्क में अपनी मातृभूमि के सर्वविकास के सुंदर स्वप्न ही संचित रहे थे। सन् 1955 में, चंदननगर के ‘फ्रांसीसी एन्क्लेव’ को पश्चिम बंगाल में एकीकृत होते भी मैंने देखा और मैं बहुत संतुष्ट हुआ था।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तथा स्वतंत्र देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि से लेकर देश के लगभग सभी पर्वर्तित राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, आगत विदेशी राजनयिकों आदि को भी सायरन बजाते उनके काफिलों को भी मैंने बहुत ही करीब से आते-जाते देखा है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत मैंने पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोर्चा युग के बिधान चंद्र राय, प्रफुलचंद्र सेन, अजय कुमार मुखर्जी, प्रफुलचंद्र घोष, सिद्धार्थ शंकर राय के शासनकाल में स्थानीय अनगिनत रियासतों का पश्चिम बंगाल राज्य में विलय होते देखा। फिर वाममोर्चा ‘कास्ते-हथुड़ी-तारा’ युग के ज्योति बसु व बुद्धादेब भट्टाचार्य को देखा, जिनमें नकसलबाड़ी विद्रोह, सुंदरवन के मारिचझापी नरसंहार, धुआँ बंद-चक्का बंद, हड़ताल, नंदीग्राम हिंसा, सिंगूर आंदोलन आदि को भी मैंने देखा और दुख महसूस किया है और अब मैं ममता बनर्जी के नेतृत्व में ‘तृणमूल युग’ के अंतर्गत नव बंगाल को भी देख रहा हूँ।

फोटो सौजन्य : गुगल

मैं आपको बहुत ही विश्वास के साथ बतलाता हूँ कि महापुरुषों की यह बंगाल-भूमि बहुत पहले से ही आध्यात्म, साहित्य, संगीत, कला, संस्कृति आदि के क्षेत्र में अग्रणीय रहा है। मैंने बहुत ही करीब से नोबल पुरस्कार से सम्मानित प्रथम भारतीय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को उनकी ‘गीतांजलि’ जैसी उत्कृष्ट रचनाओं के साथ ही ऋषि बँकिमचंद्र चटर्जी, शरतचंद्र चटोपाध्याय, माइकेल मधुसूदन दत्त, ताराशंकर बंधोपाध्याय, विभूति भूषण मुखोंपाध्याय, माणिक बंधोपाध्याय, शरदिन्दू बंधोपाध्याय, आशापूर्ण देवी, महाश्वेता देवी, सुनील गंगोपाध्याय, समरेश मजूमदार आदि जैसे बंगाली सरस्वती वरद-पुत्रों को बहुत ही करीब से देखा और उनके वृहद साहित्य-संपदा का मनन किया है। नोबल पुरस्कार से सम्मानित ‘ममता की प्रतिमूर्ति’ मदर टेरेसा को तथा उनके मानवताजन्य सेवाओं को भी बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। उनके मानवताजन्य कार्य को मैंने सदा नमन किया है और आज भी नमन करता हूँ।

नोबल पुरस्कार प्राप्त कर पश्चिम बंगाल सहित भारत के नाम को जगचर्चित करने वाले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन तथा अभिजीत बनर्जी को भी मैं सम्मान की नजरों से देख रहा हूँ। इसके साथ ही चलचित्र तथा थियेटर के माध्यम से समाज को नई राह की ओर उन्मुख करने वाले सत्यजित राय, मृणाल सेन, बुद्धदेव दासगुप्ता, चिदानंद दासगुप्ता, हेमंत कुमार, मन्ना दे, उत्तम कुमार, कानन देवी, नरगिस, अपर्णा सेन, शक्ति सामंत, सौमित्र चटर्जी आदि महान कलाकारों के साथ ही पं. तारापद चक्रवर्ती, पं. अजय चक्रवर्ती, पं. सत्यकिंकर बंधोपाध्याय, पं. ज्ञान प्रकाश घोष आदि संगीतज्ञ के कर्ण प्रिय शास्त्रीय संगीत को भी श्रवण किया है। अपने खेल प्रतिभा से देश को सम्मान प्रदान करने वाले गोष्टो पाल, चुन्नी गोस्वामी, शैलेन मान्ना, पंकज राय, मोंटू बनर्जी, संवरण बनर्जी, प्रदीप कुमार बनर्जी, बाईचुंग भूटिया, सौरव गांगुली आदि प्रतिष्ठित व्यक्तित्व को भी मैंने बहुत ही करीब से देखा और उन्हें महसूस किया है। अवनीन्द्रनाथ टैगोर, राम किंकर बेज, नंदलाल बोस, जैमिनी राय आदि जैसे मूर्तिकार और चित्रकार को भला कौन भारतीय भूल सकता है। उन सभी को भी और उनकी कृति को मैंने अपने बहुत पास से देखा है। इन सभी पर मुझे गर्व है।

मैं भारतीय सहित विदेशी विविध साहित्य, फिल्म, थियेटर, पर्यटन को भी अपने निर्माण काल से ही काफी प्रभावित करते रहा हूँ। मेरे बिना तो हावड़ा और कोलकाता में मानवीय जीवन और व्यापार की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। आपको को यह जानकर हैरानी होगी कि मैंने लगभग हर दौर के फिल्म निर्माताओं को अपनी ओर आकर्षित किया है। सत्यजीत राय, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, शक्ति सामंत आदि की फिल्मों में मेरी भूमिका दृष्टव्य है। इसके अतिरिक्त कई बंगाली, हिंदी, मलयालम, तमिल, उडिया, बिहारी, अंग्रेजी इत्यादि भाषाओं के फिल्मों में भी मैंने अभिनय किया है। जिनमें ‘हावड़ा ब्रिज’, ‘अनुरोध’, ‘दो अनजाने’, ‘अमर प्रेम’, ‘गुंडे’, ‘बर्फी’, ‘लव आजकल’, तमिल फ़िल्म ‘आधार’, मलयालम फ़िल्म ‘कलकत्ता न्यूज़’, रोलैंड जोफ़े की अंग्रेज़ी फ़िल्म ‘सिटी ऑफ़ जॉय’ आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। मुझसे संबंधित फिल्मों की लिस्ट बहुत लम्बी है।

मैं अपने निर्माण काल से ही इस हुगली नदी के दोनों किनारों पर जूट, कपड़ा, लोहा, मोटरगाड़ी, रेल, कागज आदि संबंधित सैकड़ों मिलों से उत्पादन के उठते काले धुएँ को देखा तथा उन मिलों से समय संकेत के बजते ‘सायरन’ को सुन-सुन कर बड़ा ही हर्ष का अनुभव किया करता था। होली-दशहरा-दिवाली, ईद-मोहर्रम आदि के अवसर पर उन मिलों के श्रमिकों के मुहल्ले में रात-दिन भर दंगल, गवनई, बिरहा, नाच आदि जैसी सांस्कृतिक सौहार्द्र जनित क्रिया-कलापों से बंगाल की इस औद्योगिक धरती को मैंने बिहार-यू.पी. के चौपाल भी बनते देखा है। पर वह सब अब कहाँ? सब इतिहास बन गए। अब तो दूर-दूर तक मिल तथा कारखानों के स्थान पर गगनचुंबी आवसीय इमारतें दिखाई देती हैं, जिसमें प्रेम-सौहार्द्र तो नहीं, बल्कि परस्पर ईर्ष्या-द्वेष जनित भावनाएँ ही वास करती दिखाई दे रही हैं।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

जो भी हो, पश्चिम बंगाल के लोगों के हृदय में मेरा एक अक्षुण्ण विशेष स्थान है। मैं बंगालियों के लिए गर्व बोधक स्मारक हूँ, तो भारतीयों के लिए एक अजूबा दर्शनीय राष्ट्रीय धरोहर भी हूँ। साथ ही साथ खास बनावट के कारण मैं पूरे विश्व भर में अपना खास महत्व रखता हूँ अतः मुझे साफ-सुथरा और सुरक्षित रखना न केवल प्रशासन की, बल्कि आप सब की जिम्मेवारी भी है। मैं आपका गर्व हूँ। मुझे सुरक्षित रखिए।

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101, (पश्चिम बंगाल)
ईमेल – rampukar17@gmail.com

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