।।हमारी खटिया।।
श्रीराम पुकार शर्मा
खटिया कुछ और नहीं तो, यह आराम-स्वप्नों का पर्याय हैं,
थके-हारे क्लांत जनों के लिए, यह कोमल सेज सुखाय हैं।
आज अचानक ‘खटिया’ के स्मरण हो आने के पीछे कुछ कारण हैं। अभी कुछ दिन पूर्व ही एक रिश्तेदार के पास एक वैवाहिक जैसे सामाजिक समारोह में शामिल होने के लिए गया हुआ था। बड़े नगर के अति करीब होने के कारण उस समारोह पर देहात की अपेक्षा नगरी प्रभाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा था। आगत अतिथियों के सुखद आराम के लिए किसी ‘डेकोरेटर’ से काफी संख्या में आरामदायक गद्दे, तकिये, कम्बल आदि मँगवा कर पास के ही एक बड़े से हॉलनुमा कमरे में सजा दिए गए थे। मैं भी एक गद्दा, एक तकिया और एक कम्बल को हथिया कर उस पर पसर कर इस नगरी संस्कृति का ही एक विशेष अंग भी बन गया।
अब मेरी अन्वेषी आँखें उस सुसज्जित हॉल की विभिन्न वस्तुओं को निहारने लगी। उस हॉलनुमा कमरे के एक कोने में खड़ी कर रखी हुई एक ‘खटिया’ ने अनायास ही मेरी नजर को अपनी ओर आकृष्ट कर ली। उसकी रस्सियाँ कई जगहों से टूट-टूट कर लटक रही थीं। उसका एक पैर भी कुछ टेंढ़ा होकर लटक रहा था अर्थात वह अपनी उपेक्षा वाली वृद्धावस्था के जर्जर रूप में पहुँच गयी थी। लेकिन ‘कभी तो हम जवान थे’ का स्मरण कर वह उन साफ़-सुथरे और मोटे-ताजे मेहमान गद्दों को अचरज भरी निगाहों से देख रही थी। स्वाभिमानी बुजुर्ग की तरह ही वह इन मेहमानों के सम्मुख वह अपनी उपेक्षा, दुर्बलता और दुखड़ा को न रोना चाहती थी। पर अंतर्वेदना छुपाये कहाँ छुपती है? बहुत कुछ स्वतः ही प्रकट हो जा रहे थे। मन हुआ, उसकी गोद में ही सोकर सुख-स्वप्नों को देखने का प्रयत्न करूँ। कोशिश भी की, पर हाल के व्यवस्थापक ने साफ़ मना कर दिया। शायद वह नहीं चाहता था कि इन सुसज्जित गद्दों के बीच उस टूटी खटिया के पैबंद को लगाया जाय।
खैर, सरल देहाती भाषा में ‘खटिया’ और इसी ‘खटिया’ का ही एक पर्यायवाची सभ्य शब्द है, ‘चारपाई’, जो अपने चार ‘पायों’ पर आधारित एक विशुद्ध देहाती कोमल शयन साधन है। इसे रस्सियों के सहारे बड़े ही प्रेम के ताने-बाने से परस्पर चटाईनुमा बुना जाता है। थके-हारे किसान-मजदूर-पथिक से लेकर पूंजीपति मालिक तक, नवजात शिशु से लेकर वृद्धजन तक, रोगी से लेकर निरोगी तक और फिर राजा से लेकर रंक तक सबके तन तथा मन को विश्रांत प्रदान कर उन्हें सुख-स्वप्न-लोक में अकेले ही पहुँचाने में ‘खटिया’ पूर्ण सक्षम रही है।
शारीरिक आराम के लिए ‘खटिया’ या ‘चारपाई’ हमारे पूर्वजों द्वारा प्राचीन काल से ही निर्मित एक अत्यंत ही सरल, सुगम और सस्ती सर्वोत्तम खोज है, जो हलकी, टिकाऊ, सस्ती, स्थानान्तरण-मरम्मत में सुगम, शरीर को अधिक से अधिक आराम देने के लिए अति उपयुक्त होती है। इस पर विशेष बिछावन की आवश्यकता भी न होती है। इसीलिए आज से कोई पाँच-छः दशक पूर्व तक प्रायः हर घरों में और घर के बाहर बरामदों में खटिया ही सोने, या कुछ क्षण आराम करने के, या फिर आगत हित-कुटम्ब-मेहमान की मेहमानी के लिए समर्थ साधन हुआ करती थी। कहीं से भी थका-मंदा आदमी आता और वह घड़ी भर के लिए भी खटिया पर पड़ जाता, तो मानो वह खटिया कोई अदृश्य चुम्बकीय शक्ति की भाँति उसके शरीर और मन से उसकी सारी थकान को खिंच लिया करती थी। फिर तो आदमी पुनर-तरो-ताजा महसूस करने लगता था। तभी तो कवि रामदरश मिश्र भी खटिया के समर्थन में कहा करते हैं –
‘जैसे एक बड़ी दुनिया के बीच अपना घर होता है,
वैसे ही घर की तमाम चीज़ों के बीच चारपाई है।
कहाँ-कहाँ से थके-हारे लोग घर पहुँचते हैं,
तो उनमें एक आश्वस्ति व्याप जाती है।’
खटिया पूर्णतः ज्यामितिक कला व स्वरूप पर निर्मित एक वैज्ञानिक आरामदायक साधन ही तो है, जिसमें ज्यामिति से सम्बन्धित आयत, वर्ग, त्रिभूज, वृत्त, समकोण, न्यूनकोण, सरल रेखा, सामानांतर रेखा आदि सब स्वरूपों का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है। ताजुब की बात यह है कि एक अनपढ़ देहाती भी एक सुंदर खटिया बुनकर इन सिर-दर्द कारक ज्यामितिक स्वरूपों का बहुत ही सरलता से कलात्मक उदाहारण प्रस्तुत कर देता है। इन्हीं में से कुछेक तो रंगीन रस्सियों के सहारे रंगीन कालीन या चटाई के समान ही नयनाभिराम इन्द्रधनुषी खटिया बना डाला करते हैं। जरा कल्पना तो कीजिए, ऐसी रंगीन इन्द्रधनुषी खटिया पर शयन से प्राप्त इन्द्रधनुषी आनंद का। उस पर भी हिलने-डुलने से खटिया की ‘चूँ-चूँ’ करती संगीतमय ध्वनि भी रात्रि के सन्नाटे में कितनी प्यारी लगती है –
‘अपने घर की चूँ-चूँ करती चारपाई लगती है कितनी प्यारी,
महलों के मखमली बिस्तर पर नींद नहीं आती है रात सारी।’
शारीरिक विज्ञान के अनुसार जब हम सोते हैं, तब हमारे सिर और पाँव के मुकाबले में पेट को अधिक खून या तरल पदार्थ की आवश्यकता होती है, क्योंकि रात या दोपहर को लोग अक्सर खाने के बाद ही सोते हैं। ऐसे में पेट की ग्रन्थियों को सुगम पाचन-क्रिया के लिए अन्य समय की अपेक्षा अधिक खून और तरल पदार्थ की जरूरत पड़ती है। खटिया पर सोने से उसकी लचीली रस्सी-जाल बीच में कुछ नीचे की ओर लटक कर झोलिनुमा लटकाव बना देती है, जो पेट में पाचक स्थल पर भोजन पदार्थों को एकत्रित करने में और पेट तक अधिक रक्त तथा तरल पदार्थों को पहुँचा कर पाचन-प्रक्रिया में सहायता पहुँचाती है। खटिया पर सोने से न सिर्फ कमर और कंधों के दर्द से ही मुक्ति मिलती है, बल्कि सम्पूर्ण बदन दर्द भी कुछ ही समय में छू-मंतर हो जाता है। मेरे जैसे ही कई लोगों का मानना है कि –
‘खटिया पर पड़ते ही निंदिया अपने अंक में ले लेती है,
विश्रांत मन की आँखों में सुखद स्वप्न तैरने लगते हैं।’
आज भी आराम करने के नाम पर जीतनी भी आराम कुर्सियाँ बनाई जाती है, उन्हें भी खटिया के सिद्धांत के अनुकूल बीच में नीचे की ओर लटकती झोलिनुमा ही बनाई जाती है। यहाँ तक कि शिशुओं के शारीरिक सर्वांगीन विकास हेतु पहले उनके लिए ‘पालने’ भी सिर्फ कपडे़ की और लटकती झोलीनुमा ही हुआ करते थे, जिसमें वह शिशु अपनी माँ की लचीली गर्भ और गोद के एहसास को पाते हुए चैनपूर्वक शयन किया करता था। माताएँ अपने कामों में लगी रहती थीं। खटिया को अपनी आवश्यकतानुसार सुगमतापूर्वक स्थानांतरण करते रहने के कारण उसके नीचे या अगल-बगल गंदगी और रोग के कीटाणुओं के अस्तित्व की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है।
जबकि आज के भारी-भरकम चौकी-खाट या डबलबेड अत्यधिक भारी होने के कारण उसे वर्षों तक उनके निश्चित स्थान से हटाया नहीं जाता है। फलतः उनके नीचे सदैव अंधेरा कायम रहता है, जिसमें निरंतर गंदगी जमा होती ही रहती है और उसमें रोग के किटाणु भी निरंतर पनपते ही रहते हैं। जबकि खटिया को उपयोग के उपरांत रोज सुबह आँगन या घर के बाहर खड़ा कर दिया जाता है। उसकी और उसके स्थान की नियमित सफाई भी हो जाती है। उसे नियमित सूरज की गर्मी मिलती ही रहती है। अतः उसमें रोग के कीटाणुओं की सम्भावना लगभग शून्य ही हो जाती है। फलतः खटिया-सेवी लोग सदैव निरोग ही रहा करते हैं।
आज के चौकी-खाट या डबलबेड के बिस्तर गर्मी के दिनों में अक्सर अधिक गर्म हो जाया करते हैं। उस पर सोने मात्र से ही बदन में तेज ताप की जलन महसूस होने लगती है। पर खटिया की बुनावट ऐसी होती है कि उसके अनगिनत छिद्रों से हवा नियमित आर-पार होती ही रहती है, जिस कारण गर्मी के दिनों में भी बिस्तर गर्म नहीं हो पाता है। खटिया पर सोने वालों को ‘शैय्या जलन’ (Bed Soar) नहीं हुआ करते हैं। इसकी उभरी हुई रस्सियाँ अनायास ही उसके सेवी के सारे शरीर पर निरंतर हल्का-हल्का दबाव (एक्यूप्रेशर) करती ही रहती हैं। पृष्ठ भाग को भी पर्याप्त ताजगी हवा मिलती ही रहती है। अर्थात खटिया साधारण जन से लेकर मरीजों तक के लिए भी बहुत लाभदायक हुआ करती है। इसके सहारे हजारों रुपये की दवा और डॉक्टर के खर्च को भी बचाया जा सकता है। अतः कह भी सकते ही हैं –
क्या हुआ? मेरे घर में यदि एक चारपाई मात्र ही जगह है, पर मुझे गहरी नींद के लिए दवा की जरुरत नहीं पड़ती है।
खटिया हल्की होने के कारण उसे जब चाहे, जहाँ चाहे, वहाँ तुरंत ही डालकर उस पर सोने का आनंद लिया जा सकता है। विशेषकर गर्मी की रात्रि में मकान की छत पर खटिया पर सोने का जो मजा है, उसका क्या कहना? चन्द्रमा की दुधिया शीतलता में दिन भर की उष्णता से व्यग्र मन शीतल विश्रांति को प्राप्त करता है। आस-पास के पेड़-पौधों की मिश्रित खुशबूयुक्त ताजगी हवा और आस-पास के जीव-जन्तुओं की मंद-मंद कर्णप्रिय सम्मिलित ध्वनि के बीच यह खटिया नैसर्गिक के बीच भी स्वर्गीय सुख को प्रदान करती है।
छत पर सोने का जो सुख मिलता है, रात्रि में खटिया पर,
जान पड़ता है, चाँद-सितारों से बहुत पुराना हमारा नाता है।
पता नहीं कब मिलने उतर आये ये सब मेरे छत पर,
इसीलिए छत पर एक खटिया और पानी भरा एक लोटा है।
प्राचीन काल से ही खटिया हमारी संस्कृति के एक विशेष अंग होने के कारण हमारे घर-द्वार, रहन-सहन से लेकर हमारी भाषा, बोली और साहित्य के साथ भी इसका एक अटूट रिश्ता बना हुआ है। इसके बिना हमारा सामाजिक जीवन बहुत कुछ अधूरा-अधूरा सा प्रतीत होता है। अब देखिये न ‘खटिया’ शब्द को केंद्र कर हमारे कई मुहावरे और कहावते बने हुए हैं, जो हमारी विविध भावनाओं को बड़ी ही सरलता से अभिव्यक्त कर देते हैं। जैसे खटिया तोड़ना व खटिया सेना – आराम और आलस्य भाव के अर्थ को व्यक्त करते हैं, तो खटिया खड़ी करना – परेशान करने के अर्थ को। इसी तरह से खटिया पकड़ना – बीमार ग्रस्तता के अर्थ को, तो खटिया उठ जाना, खटिया लहुटय, खटिया उसलय व खटिया से उतारना, खटिया उलटना – मरने के अर्थ को व्यक्त करते हैं। तोरे खटिया पर तोरे जमाई – घर में बस गये जमाई के अर्थ को, तो अइसन बहुरिया चटपट, खटिया ले उठे लटपट – घर फोड़वा बहु के अर्थ को व्यक्त करता है। खटिया सटाना – मिलने के अर्थ को, तो खटिया बिछाना – इंतजार करने के अर्थ में अक्सर ही प्रयोग किये जाते हैं।
यह बात और है कि आज भले ही घरों में खटिया के स्थान को खाट-पलंग और डबल बेडों ने तथा घर के बाहर की खटिया के स्थान को अलग-अलग कुर्सी व बेंचों ने ले लिये हैं। अब तो ‘खटिया’ शायद हमारी विरासत की एक यादगार ऐतिहासिक वस्तु ही बन कर रह गई है। परन्तु हमारे मन, हमारी बोलचाल और हमारे विविध साहित्य में ‘खटिया’ जो वर्षों से जम कर बैठी हुई है, उसे भला कोई कैसे भूल सकता है?
श्रीराम पुकार शर्मा,
हावड़ा-1(पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail.com