श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । आज से लगभग दो सौ वर्ष पहले अर्थात, जब बंगाल सहित पूरा भारत ही अंग्रेजों की दुर्नीति से आक्रांत था, तब नवजागरण की ज्योति सबसे पहले बंगाल की धरती पर ही प्रस्फुटित हुई थी। यह नवजागरण ज्योति एक ओर तो राजनीति धरातल पर ‘वन्देमातरम’ की मेघ गर्जना के साथ दीप्त हुई थी, तो दूसरा ओर सामाजिक व धार्मिक स्तर पर भी द्रुतगति से प्रदीप्त हुई थी। ऐसी ही सामाजिक और धार्मिक ज्योति के तेज विम्ब को लेकर आगे बढ़ने वाली एक महान महिला व्यक्तित्व, सामाजिक कार्यकर्ता, जनहितैषी जमींदार, दक्षिणेश्वर माँ काली मंदिर की संस्थापिका एवं नवजागरण काल के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं धर्मगुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मुख्य पृष्ठपोषिका ‘रानी माँ’ या ‘लोकमाता रासमणि’ थी, जिन्हें बंगला में ‘राशमोनी’ कहा जाता है।
रानी रासमणि का जन्म 28 सितंबर 1793 (बांग्ला 11 आश्विन, 1200) को वर्तमान पश्चिम बंगाल के उत्तर चौबीस परगना जिला के हालीशहर के कोना नामक ग्राम में ‘कैवर्त’ (केवट) समुदाय के एक साधारण गृहस्थ परिवार हरेकृष्ण दास और रामप्रिया देवी की संतान के रूप में हुआ था। उनके माता-पिता मछली पकड़ कर उसे बेच कर अपना घर-गृहस्थी चलाया करते थे। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से एक छोटे समुदाय से संबंधित होने के कारण उनके परिवार को तत्कालीन बंगाली समाज में सम्मान की नज़रों से नहीं देखा जाता था। जब बालिका रासमणि लगभग सात वर्ष की ही हुई, तभी उसकी माँ गुज़र गईं। पिता हरेकृष्ण दास माँ और पिता बन कर अपनी पुत्री के प्रति दोनों के दायित्वों को बखूबी से निर्वाह किए। रासमणि बचपन से ही बहुत ही सुन्दर एक असामान्य बालिका रही थीं।
11 साल की उम्र तक जाते-जाते बालिका रासमणि का सौन्दर्य और भी निखर उठा। ऐसे में एक दिन कोलकाता के जानबाज़ार के अमीर अधेड़ जमींदार बाबू राजचंद्र दास के साथ विवाह का रिश्ता स्वयं उनके द्वार पर आया। पिता ने अपनी आर्थिक स्थिति को देख समझ कर और अपनी बेटी रासमणि के सुख-समृद्धि युक्त उज्ज्वल भविष्य को लक्ष्य कर उस रिश्ते को स्वीकार कर लिया और अपनी 11 वर्षीय बेटी रासमणि को जमींदार बाबू राजचन्द्र की तीसरी पत्नी के रूप में ब्याह कर दिया। कुछ वर्ष के उपरांत गौना के बाद रासमणि ‘रानी रासमणि’ के रूप में जमींदार बाबू रामचन्द्र दास की हवेली में आ गई। समयानुसार वह चार बेटियों की माँ भी बनी थीं।
रानी रासमणि का संबंध भले ही जन्म से तत्कालीन एक छोटे जाति समुदाय से था, लेकिन उनका दिमाग़ और काम करने का ढंग विचित्र था। वह हर किसी कार्य को बहुत ही सलीके ढंग से पूर्ण करती थीं। फलतः जमींदार राजचंद्र दास ने उन्हें अपनी जमींदारी सम्बन्धित विभिन्न कार्यों में धीरे-धीरे शामिल कर लिया, जो कुछ ही समय में उस कार्य में पारंगत हो गईं थीं। चुकी वह उम्र में अपने पति से काफ़ी छोटी थीं। अतः वह 43 वर्ष की उम्र में ही 1836 ईo में विधवा हो गई थी।
अपने पति की मृत्यु के उपरांत अपनी जमींदारी की बागडोर को रानी रासमणि बहुत ही कुशलतापूर्वक अपने पारंगत हाथों में संभाल ली। चुकी वह स्वयं उपेक्षित और गरीब समुदाय से संबंधित थीं अतः अपनी जमींदारी को सुव्यवस्थित करने के उपरांत उन्होंने गरीबों के उत्थान मूलक सेवा-कार्यों में सदैव प्रवीण बनी रहीं। उपेक्षित जन-समूह के सामाजिक उत्थान एवं लोक कल्याणकारी कार्य हेतु उन्होंने विभिन्न कार्य योजनाओं को भी गति देना प्रारंभ किया। उनके इन कार्यों से साधारण लोगों में ज़मींदारी के प्रति मान-समर्थन बढ़ गया। अब लोग उन्हें ‘रानी माँ’ कह कर संबोधित करने लगे थे।
सन् 1840 के आस-पास बंगाल के तत्कालीन अंग्रेज़ शासकों ने तत्कालीन कलकत्ता के इर्द-गिर्द हुगली नदी से संबंधित एक नया नियम लागू किया । मछुवारों द्वारा मछली पकड़ने के लिए नदी में जाल डालने से उनके स्टीमरों के आने-जाने में दिक्कत होती थी । अतः मछुवारे को हुगली नदी में मछली पकड़ने के लिए ‘टैक्स’ देना पड़ेगा। बेचारे गरीब मछुआरे पहले से ही आर्थिक अभाव में अपना जीवन काट रहे थे, ऊपर से यह ‘टैक्स’ का फरमान उनकी दशा को और भी दीन-दरिद्र बना दे रहा था। ‘टैक्स’ न देने की स्थिति में अंग्रेज अधिकारी गरीब मछुवारों की छोटी-छोटी नौकाओं को टक्कर मार कर तोड़ देते थे, या फिर जब्त कर लिया करते थे।
गरीब मछुवारों पर हो रहे अंग्रेजों के अत्याचारों को जान कर ‘रानी माँ’ बहुत ही दुखी हुईं। उन्होंने मन ही मन उनकी समस्याओं का उपयुक्त समाधान और अंग्रेजों को भी उचित सबक सिखाने का ठोस निर्णय कर लिया। ‘रानी माँ’ ने अपने प्रखर बुद्धि व कार्य का परिचय देते हुए अंग्रेज़ों से एक चुक्ति कर ली, जिसके अनुसार एक निश्चित रकम प्राप्त कर अंग्रेजों ने हुगली नदी में घुसड़ी से मटियाब्रूज क्षेत्र तक का मालिकाना हक रानी रासमणि को प्रदान कर दिया। पर वे यह भूल गये कि स्टीमरों के आने-जाने में भविष्य में दिक्कतें भी होंगी। बाद में वैसा ही हुआ भी। ‘रानी माँ’ तो यही चाहती भी थी।
फिर रानी रासमणि ने हुगली नदी के घुसड़ी से लेकर मटियाब्रूज तक के हिस्से पर लोहे की मजबूत जंजीरों से अवरोध लगा कर अंग्रेजों के महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर रोक लगा दी और मछुवारों को मछली पकड़ने के लिए अपनी जाल डालने की आज्ञा प्रदान कर दी। साथ में विशेष हिदायत भी दी कि वे अंग्रेजों के कहने पर अपनी जाल को नदी से बिल्कुल ही न हटाएं। रानी के आदेशानुसार मछुवारे ने वैसा ही किया। अब तो अंग्रेजों के स्टीमर का आवागमन ठप्प ही हो गया। बात बढ़ने पर मछुवारों के पक्ष में रानी स्वयं आगे आई और अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त अपने विशेषाधिकार पत्र को सामने रख दी, जिसमें उल्लेखित था कि नदी के उस विशेष क्षेत्र पर रानी का ही पूर्ण अधिकार है। अब अंग्रेजों को अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने रानी की बुद्धि-बल को लोहा मानते हुए उनसे माफी माँगी और मछुवारों पर लागू ‘टैक्स’ को खारिज करते हुए उन्हें नदी में कहीं भी मछली पकड़ने हेतु जाल डालने की पूर्ण छूट दे दी।
एक बार अंग्रेज सरकार ने उनके घर की दुर्गापूजा की देवी विसर्जन यात्रा को नगर में शांति भंग होने की आशंका के आधार पर रोकने के आदेश दे दिए थे। मगर रानी रासमणि ने उस आदेश की अवहेलना कर दुर्गा देवी की विसर्जन यात्रा निकाली। अंग्रेज सरकार ने उनपर भारी जुर्माना लगाया। लेकिन इसके विरोध में काफी संख्या में स्थानीय लोग उठ खड़े हुए। फिर व्यापक तोड़-फोड़ और हिंसा की आशंका के कारण सरकार को उन पर लगाए गए जुर्माने को वापस लेना ही पड़ा था।
ऐसा माना जाता है कि रानी रासमणि को एक स्वप्न में देवी माँ काली ने भवतारिणी रूप में दर्शन दिया था। स्वप्न में ही उन्होंने रानी को एक मंदिर बनाने का आदेश भी दिया था । जिसके बाद रानी ने उत्तर कोलकाता में, हुगली नदी की बायीं किनारे पर एक अंग्रेज ‘जेक हसटी’ से लगभग 20 एकड़ जमीन खरीदी और वहाँ पर देवी भवतारिणी के लिए ‘नवरत्न शैली’ में टॉलीगंज के बाबू रामनाथ मंडल द्वारा ‘राधाकांत मंदिर’ से प्रेरित एक विराट और भव्य मंदिर बनवाई। इस भव्य मंदिर का निर्माण 1847 में प्रारंभ कारवाई, जो 1855 में पूर्ण हुआ। उसमें ‘स्नान यात्रा’ के दिन (31 मई, 1855) को देवी माँ काली की भवतारिणी माता की भव्य प्रतिमा को स्थापित किया गया। इस विशेष अवसर पर देश भर से कोई एक लाख ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया था। पहले इसका नाम श्री श्री जगदेश्वरी काली मंदिर था। जिसे आज ‘दक्षिणेश्वर काली मंदिर’ के नाम से जाना जाता है, जहाँ प्रतिवर्ष करोड़ों लोग दर्शन के लिए आते हैं। महत्व की दृष्टि से कोलकाता के ‘कालीघाट’ के पश्चात इसी मंदिर का स्थान है।
इस भव्य मन्दिर के प्रधान पुरोहित के रूप में स्थानीय पंडितों द्वारा विरोध किए जाने के पश्चात कमारपुकुर के रामकुमार चट्टोपाध्याय को प्रधान पुरोहित के रूप में नियुक्त की गई थी। उनका छोटा भाई गदाधर चट्टोपाध्याय उनका सहायक थे। रामकुमार चट्टोपाध्याय की मृत्यु के उपरांत उनके छोटे भाई गदाधर चट्टोपाध्याय इसके प्रधान पुरोहित बने। इसी मन्दिर में रहते हुए उन्होंने माँ भवतरिणी देवी का साक्षात्कार भी किया था। बाद में वे ‘स्वामी रामकृष्ण परमहंस’ के रूप में एक विख्यात दार्शनिक, योगसाधक और धर्मगुरु के रूप में उभरे। रानी रासमणि रामकृष्ण परमहंस की पितृपोषक भी बनी थीं।
राजमाता रानी रासमणि जनहितैषी कार्यों के प्रति विशेष ध्यान रखती थीं। उन्होंने तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु, कलकत्ता से सुवर्णरेखा नदी पार करते हुए जगन्नाथ पुरी तक एक पक्की सड़क का निर्माण करवाया था। इसके अलावा, कलकत्ता के निवासियों के लिए, गंगास्नान की सुविधा हेतु उन्होंने रामचन्द्र घाट (बाबुघाट), अहिरीटोला घाट, नीमतला घाट आदि घाटों का निर्माण भी करवाया था। उन्होंने इम्पीरियल लाइब्रेरी (वर्त्तमान भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय) एवं हिन्दू कॉलेज (वर्त्तमान प्रेसिडेन्सी विश्वविद्यालय) के लिए भी आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान की थी।
यही नहीं राजमाता रासमणि ने क्षेत्रीय सामाजिक उत्थान के लिए असामाजिक तत्वों यथा; गुंडे, चोर, उच्चकों आदि की जिंदगी को सुधारने में भी बहुत मदद की थी। वर्तमान संतोषपुर के आस-पास के दलदलीय क्षेत्रों में कुछ चोर-उचक्के छुपकर लूट मचाने के लिए अपने पैरों में डंडे बांधकर निकल जाया करते थे। राजमाता रानी रासमणि ने इन लुटेरों और उनके परिवारों के भरण-पोषण के लिए उनके लिए आस पास मछली पालन हेतु अनगिनत तालाब खोदवा दिए, फिर जल्द ही वहाँ के लोग लूट-खसोट के कार्य को त्याग कर मछली व्यापार में लग गए।
राजमाता रानी रासमणि 67 वर्ष की अवस्था में 19 फरवरी, 1861 (बंगाब्द 9 फाल्गुन, 1267) को माँ काली के चरणों में सदा के लिए लीन हो गई। रानी रासमणि के प्रति सम्मान प्रदर्शन में कोलकाता में कई स्थानों पर उनकी प्रतिमाएँ स्थापित की गई है। दक्षिणेश्वर काली मंदिर के प्रवेशद्वार के पास ही रानी रासमणि का मन्दिर है। इसके अलावा धर्मतला और कर्ज़न पार्क में रानी रासमणि की भी प्रतिमा मौजूद है। कोलकाता के धर्मतला में रानी रासमणि ऍवेन्यू है। जानबाजार में उनकी पैतृक निवास के पास वाली सड़क का नाम रानी रासमणि रोड है। विवेकानन्द सेतु मोड़ से दक्षिणेश्वर मंदिर तक जाने वाली सड़क का नाम भी रानी रासमणि मार्ग किया गया है। इसके अलावा, दक्षिणेश्वर मन्दिर के निकट स्थित फेरी घाट का नाम भी रानी रासमणि घाट है। भारतीय डाक विभाग ने रानी रासमणि की द्विषत सालगिराह के उपलक्ष्य में 1993 में एक विशेष डाक टिकट जारी किया था।
पर राजमाता रासमणि अपने सामाजिक, धार्मिक और मानवताजन्य कार्यों के लिए बंगाली सहृदय के हृदय में सदैव के लिए सादर स्थापित हैं। उन्होंने अपने विभिन्न लोक सेवा कार्यों के माध्यम से एक जनहितैषी ज़मीन्दार की अपनी छवि तैयार की थीं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रानी रासमणि को देवी दुर्गा के अष्टनायिकाओं में से एक रूप ही माना करते थे।
श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101
पश्चिम बंगाल
ई-मेल संपर्क सूत्र – rampukar17@gmail.com